ढलान पर रुपया

रुपये की गिरती कीमत को थामने के सरकारी उपाय कारगर साबित होते नहीं दिख रहे हैं. थोड़ा संभलने के बाद भारतीय मुद्रा में फिर गिरावट हो रही है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के बढ़ते दाम तथा चालू खाता घाटा में बढ़ोतरी के बीच 14 सितंबर को घोषित उपायों से कारोबारी हफ्ते के आखिर में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 19, 2018 6:45 AM

रुपये की गिरती कीमत को थामने के सरकारी उपाय कारगर साबित होते नहीं दिख रहे हैं. थोड़ा संभलने के बाद भारतीय मुद्रा में फिर गिरावट हो रही है.

अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के बढ़ते दाम तथा चालू खाता घाटा में बढ़ोतरी के बीच 14 सितंबर को घोषित उपायों से कारोबारी हफ्ते के आखिर में रुपया 71.84 रुपये प्रति डॉलर पर बंद हुआ था, परंतु सोमवार को एक सप्ताह में इसके मूल्य में सबसे बड़ी गिरावट आयी. सरकारी प्रयास का मुख्य लक्ष्य अनावश्यक आयात कम करना और विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों की भागीदारी बढ़ाना था.

इस क्रम में विदेशी वाणिज्यिक उधारी के नियम आसान बनाने, चालू वित्त वर्ष में बाजार से उधार लेने के लिए देश से बाहर जारी किये गये रुपये के बॉन्ड को टैक्स में छूट देने तथा विनिर्माण इकाइयों को तीन साल की जगह एक साल के लिए पांच करोड़ डॉलर तक कर्ज लेने की अनुमति जैसे प्रयासों के जरिये केंद्र सरकार ने वित्तीय बाजार पर निवेशकों के भरोसे को बहाल करने की कोशिश की है.

इन उपायों का सकारात्मक असर दिखना अभी शेष है, पर इसी बीच रुपये का मूल्य घटते जाना चिंताजनक है. कमजोर रुपये का अर्थ है सेवा और सामान के आयात मूल्य का बढ़ना. इस बढ़त की वसूली आखिरकार ग्राहकों से ही होती है. सो, आनेवाले वक्त में महंगाई बढ़ सकती है. तेल की कीमतों में भी इजाफा हो रहा है. भारत कच्चे तेल की अपनी जरूरत का करीब 84 फीसदी हिस्सा आयात करता है.

इस साल तेल-निर्यातक देशों की पहलों, एशिया में भू-राजनीतिक तनाव बढ़ने और ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध के कारण कच्चा तेल महंगा होता जा रहा है. तेल के आयात में कमी नहीं की जा सकती है. जानकारों का अनुमान है कि इन स्थितियों में चालू खाता घाटा बढ़कर सकल घरेलू उत्पादन का तीन फीसदी भी हो सकता है. आमतौर पर रुपये की कीमत गिरने से निर्यात को बढ़ावा मिलता है, लेकिन फिलहाल इस मोर्चे पर भी सुस्ती है.

बीते चार साल में डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत 20 फीसदी से ज्यादा कम हुई है, जबकि निर्यात 314.40 अरब डॉलर से घटकर 303.52 अरब डॉलर का हो गया है, यानी इसमें 3.5 फीसदी की कमी हुई है. उम्मीद के हिसाब से निर्यात में बढ़ोतरी नहीं होने से विदेशी मुद्रा के कारोबारी और आयातक पसोपेश में हैं और थमकर देखना चाहते हैं कि रुपये में गिरावट कब और कहां जाकर थमती है. शेयर बाजार का टूटना इसी पहलू की ओर एक संकेत है.

जून के आखिर तक देश में विदेशी मुद्रा भंडार 407 अरब डॉलर था. इस रकम के सहारे तकरीबन 10 माह तक सेवा और सामानों के आयात का खर्च उठाया जा सकता है. सो, तात्कालिक तौर पर तो स्थिति नियंत्रण में है, परंतु अर्थव्यवस्था को दूरगामी नुकसान की आशंका से उबारने के लिए रुपये की गिरती कीमतों पर अंकुश लगाने के लिए नये सिरे से कदम उठाना बेहद जरूरी है.

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