ये जीना भी कोई जीना है?

सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार drsureshkant@gmail.com हिंदी की पुण्य स्मृति से कुछ सरकारी दफ्तर एक ही दिन में पीछा छुड़ा लेते हैं, तो कहीं-कहीं हफ्ते-भर तक हिंदी की याद ताजा की जाती है. कोई-कोई दफ्तर पखवाड़े, बल्कि महीनेभर तक रोजे-जैसे रखता है. इस दौरान हिंदी की याद में प्रतियोगिताएं, भाषण होते और कवि-सम्मेलन होते हैं. नेपथ्य […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 20, 2018 6:46 AM

सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

drsureshkant@gmail.com

हिंदी की पुण्य स्मृति से कुछ सरकारी दफ्तर एक ही दिन में पीछा छुड़ा लेते हैं, तो कहीं-कहीं हफ्ते-भर तक हिंदी की याद ताजा की जाती है. कोई-कोई दफ्तर पखवाड़े, बल्कि महीनेभर तक रोजे-जैसे रखता है.

इस दौरान हिंदी की याद में प्रतियोगिताएं, भाषण होते और कवि-सम्मेलन होते हैं. नेपथ्य में और भी पता नहीं क्या-क्या होता है. अध्यक्ष के भाव बढ़ जाते हैं, कनागतों में ब्राह्मणों की तरह. व्यस्तता आसमान छूने लगती है उनकी.

एक अध्यक्ष महोदय तो इतने व्यस्त रहते थे कि एक ही समय एक कार्यक्रम में स्वयं अध्यक्ष रहते थे, तो दूसरे में उनकी आत्मा. तीसरे में उनकी टोपी, तो चौथे में छड़ी. पांचवें-छठे के लिए वे अपनी मूंछ के बाल तक देने को तैयार रहते थे.

पुराने जमाने में जैसे युद्ध के समय क्षत्रिय अपनी शादी में स्वयं न पहुंच पाने पर अपनी तलवार ही गाजे-बाजे के साथ लड़की वालों के यहां भेज देते थे और लड़की उस तलवार को अपने पेट में भोंक लेने की तीव्र इच्छा का दमन कर और घरवालों की इच्छा सिर-माथे लगा उस तलवार के साथ ही फेरे ले लेती थी, वैसे ही अध्यक्ष के अभाव में कोई-कोई दफ्तर उनकी आत्मा, टोपी, छड़ी या मूंछ के बाल से ही समारोह की अध्यक्षता करवा लेता था.

हमारे दफ्तर में भी हिंदी-पखवाड़ा मनाने का निर्णय हुआ. पखवाड़े के दौरान आयोजित की जानेवाली हिंदी-प्रतियोगिताओं की सूचना बदस्तूर सूचना-पट्ट पर लगवा दी गयी.

जिन कुछ लोगों की दया-दृष्टि उस सूचना-पट्ट पर जाने-अनजाने जा सकी, उनमें से कुछ ने पहले तो यह जानना चाहा कि यह पखवाड़ा क्या होता है, क्या यह अखाड़े से मिलती-जुलती कोई चीज है, और कि हिंदी का उससे क्या जायज-नाजायज ताल्लुक है? वैसे शक नहीं कि हिंदी का अपना एक अलग अखाड़ा बन चुका है, जिसमें एक से एक धुरंधर अखाड़ेबाज ताल ठोकते नजर आते हैं और अपने दांव-पेचों से खुद हिंदी को ही चित किये दे रहे हैं.

हिंदी की और साथ ही अपनी भी भद पिटने से बचाने के लिए मैंने सोचा कि क्यों न हर विभाग-अनुभाग से जुड़े दफ्तर के पब्लिक-एड्रेस सिस्टम पर कर्मचारियों से हिंदी-प्रतियोगिताओं में बढ़-चढ़कर भाग लेने का अनुरोध प्रसारित करवा दिया जाये. मैं सिस्टम-इंचार्ज के पास पहुंचा, तो उसने घोर एेतराज किया.

बोला, पब्लिक-एड्रेस-सिस्टम किसी आकस्मिक स्थिति के लिए है, जैसे कि किसी कर्मचारी के दिवंगत होने पर कर्मचारियों को शोक-सभा की सूचना देने के लिए. हिंदी-विंदी के लिए उसके इस्तेमाल की इजाजत नहीं दी जा सकती. हां, अगर हिंदी भी मर गयी हो, तो बात अलग है. और अभी न मरी हो, तो जब वह मर जाये, तब आना.

मैं पानी-पानी हो गया. सोचा, धरती फट जाये और मैं समा जाऊं. पर धरती माता ने मुझे उपकृत नहीं किया. और न हिंदी ही मरी, इतना सब होने पर भी. पर सवाल वही है अमिताभ बच्चन मार्का- ये जीना भी कोई जीना है लल्लू?

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