संदीप बामजई
आर्थिक मामलों के जानकार
वैश्विक अर्थव्यवस्था में 40 प्रतिशत की दखल रखनेवाले अमेरिका और चीन के बीच छिड़े ट्रेड वार ने दोनों देशों के चार दशक पुराने रिश्ते को खत्म होने के कगार पर ला छोड़ा है. कुछ विशेषज्ञ इसे आर्थिक शीत युद्ध की आहट बता रहे हैं. वहीं, कुछ विशेषज्ञों का ऐसा भी कहना है कि यह ट्रेड वार अगले बीस वर्षों तक जारी रह सकता है. इस हफ्ते दोनों देशों द्वारा एक-दूसरे पर तीसरी बार टैरिफ वृद्धि लागू करने से वैश्विक आर्थिक बाजारों में इसे लेकर बहस गर्म हो गयी है. इस व्यापारिक युद्ध की वजह से न केवल भारत, अपितु पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था संकट में है. ट्रेड वार से पैदा हुए आर्थिक संकटों पर केंद्रित है आज का इन दिनों…
अमेरिका और चीन के बीच जो ट्रेड वार चल रहा है. इसके विश्लेषण में सबसे अहम बात समझ लेनी चाहिए कि जब भी दुनिया की दो बड़ी इकोनॉमी आर्थिक युद्ध के मैदान में उतरती हैं, तो उसका नतीजा पूरा विश्व भुगतता है. रुपये की गिरावट के साथ ही कई अन्य देशों की मुद्राओं पर इसका असर तो अरसे से देखा जा रहा है. दुनिया की उभरती अर्थव्यवस्थाओं पर असर भी इसी वार का नतीजा है. अमेरिका-चीन के इस ट्रेड वार का सच क्या है, इसे समझने के साथ-साथ हमें दुनिया पर इसके असर को भी देखना होगा. सबसे ज्यादा असर उन देशों पर पड़ता है, जिनका अमेरिका-चीन के साथ प्रगाढ़ व्यापारिक संबंध है.
चीन को ट्रंप की धमकी
अमेरिका की अर्थव्यवस्था करीब 20 ट्रिलियन डॉलर की है और चीन की करीब 15 ट्रिलियन डॉलर की. करीब ढाई ट्रिलियन डॉलर की भारतीय अर्थव्यवस्था इनके मुकाबले कुछ भी नहीं है.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप साफ कहते हैं कि ‘चीन जब तक खुली अर्थव्यवस्था नहीं अपनायेगा, आर्थिक सुधार नहीं करेगा, अमेरिकी उत्पादों को अपने यहां आने नहीं देगा, तब तक मैं उसे जीने नहीं दूंगा.’ लेकिन वहीं, शातिर चीन ने इस ट्रेड को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है. चीन ने पहले जापान के साथ, फिर साउथ कोरिया के साथ, और फिर नॉर्वे के साथ इस हथियार का इस्तेमाल किया.
अमेरिका को टक्कर देना मुश्किल
जिस तरह से अमेरिका अपनी रणनीति लेकर चल रहा है, अमेरिका को टक्कर देना चीन के लिए भारी पड़ सकता है. इस सप्ताह ट्रंप ने घोषणा की कि अमेरिका अब चीनी सामानों के 200 बिलियन डॉलर के आयात पर 24 सितंबर से 10 प्रतिशत का टैरिफ (आयात शुल्क) लगायेगा और यही टैरिफ जनवरी, 2019 से 25 प्रतिशत हो जायेगा.
इसका मतलब साफ है कि अब ट्रंप पूरी तरह से ट्रेड वार पर उतर आये हैं, जिसका असर दुनियाभर की करेंसी और अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा. सबसे ज्यादा उन देशों पर पड़ेगा, जो उभरती अर्थव्यवस्था हैं. पूरी दुनिया चाहती है कि चीन अपनी अर्थव्यवस्था को खोले, लेकिन बजाय ऐसा करने के वह ट्रेड को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है.
निर्माण का हब है चीन
अमेरिका के इस कदम के जवाब में चीन ने कहा कि 60 बिलियन डॉलर के अमेरिकी उत्पादों पर वह भी 5 से 10 प्रतिशत टैरिफ लगायेगा. इन अमेरिकी उत्पादों में कृषि और ऊर्जा उत्पाद ज्यादा हैं. लेकिन, इससे अमेरिका को उतनी समस्या नहीं होगी, जितनी कि चीन को होगी.
इसकी वजह यह है कि चीन एक मैन्यूफैक्चरिंग इकाेनॉमी है. तकनीकी उत्पादों के साथ ही हर तरह की वस्तुओं के निर्माण का हब है चीन. इसलिए अगर अमेरिका टैरिफ बढ़ाता है, तो चीन के उत्पादों का अमेरिकी बाजार में जा पाना मुश्किल हो जायेगा. ऐसे में अगर चीन के लिए अमेरिकी बाजार बंद हो जायेंगे, तो चीन की अर्थव्यवस्था डगमगा जायेगी. हालांकि, अमेरिका में भी एक ऐसा वर्ग है, जो मानता है कि अमेरिका को भी नुकसान होगा. यह वर्ग ट्रंप के साथ लॉबिंग कर रहा है कि ट्रंप ऐसा न करें, क्योंकि कई अमेरिकी कंपनियों के सामान भी चीन में ही निर्मित होते हैं. लेकिन, ट्रंप अभी टस-से-मस नहीं हुए हैं.
तेजी से बढ़ रहा है चीन
अगर चीनी उत्पादों पर 25 प्रतिशत का टैरिफ लग जायेगा, तो वे इतने महंगे हो जायेंगे कि उन्हें खुद अमेरिकी भी खरीद नहीं पायेंगे. जाहिर है, ट्रेड वार अमेरिका के लिए भी नुकसान लायेगा. बीते मार्च में व्हॉइट हाउस में ट्रेड के ऊपर बने एक सेक्शन- 301 की रिपोर्ट में यह बताया गया कि ट्रंप के इस उद्दंड रवैये से अमेरिकी परेशान हैं.
रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि अमेरिकी सामानों की जितनी पहुंच चीन में होती है, उतनी ही पहुंच चीनी सामानों की अमेरिका में भी होनी चाहिए. अमेरिका कहीं-न-कहीं यह मानता है कि चीन अब अमेरिका से बड़ी अर्थव्यवस्था बननेवाला है. अमेरिका का सबसे बड़ा डर है कि चीन की अर्थव्यवस्था एक दिन अमेरिका से भी बड़ी हो जायेगी. और सचमुच ऐसा हो जायेगा, क्योंकि चीन जिस तरह आगे बढ़ रहा है, साल 2025 तक वह अपनी 15 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था को अमेरिका के 20 ट्रिलियन पर ला खड़ा करेगा. इसलिए अमेरिका ट्रेड वार का खेल खेल रहा है.
चीन चाहता है कि वह अमेरिका से बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाये, वहीं अमेरिका चाहता है कि चीन को वह बड़ा न होने दे. दरअसल, चीन में बहुत बड़ा प्रॉपर्टी मार्केट है और स्टॉक मार्केट है. चीनी अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अगर ट्रेड वार चलता रहा, तो ये दोनों मार्केट फट पड़ेंगे और चीनी अर्थव्यवस्था डगमगा जायेगी. पूरी तरह से बरबाद नहीं होगा, क्योंकि चीन के पास 3.3 ट्रिलियन डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है, जो भारत की अर्थव्यवस्था से कहीं ज्यादा है.
क्षमताहीन भारत की आर्थिक नीतियां
इस ट्रेड वार से भारत को एक लाभ हो सकता है. अगर भारत भी अपना मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर मजबूत कर ले और निर्माण-उत्पादन शुरू कर दे, तो बड़े निर्यात के स्तर पर वह अमेरिका के लिए चीन को रिप्लेस कर सकता है.
तब अमेरिका मैन्युफैक्चरिंग के लिए भारत की ओर शिफ्ट हो जायेगा. लेकिन, मुश्किल यह है कि यहां के नेताओं में मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ाने की क्षमता ही नहीं है. ये बस गाल बजानेवाले नेता बन के रह गये हैं. चीन के मुकाबले भारत का निर्यात कुछ भी नहीं है. ऐसे में भारत के लिए यह सुनहरा मौका है कि वह निर्माण का हब बनकर अपने निर्यात को दुनियाभर में बढ़ाये. लेकिन, भारतीय राजनीति में और हमारे नेताओं में इस बात की न तो समझ है और न ही उनमें क्षमता ही है, उन्हें तो सिर्फ जाति-धर्म के मुद्दों पर ही राजनीति करनी आती है, वह भी गंदी राजनीति. जबकि चीन एक महत्वाकांक्षी देश है, उसे पता है कि दुनिया की ताकत बनने के लिए उसे क्या करना है.
यही वजह है कि चीन जब-तब अमेरिका के मुकाबले खड़ा होने की कोशिशें करता रहता है. लेकिन, भारत में न तो ऐसा जोर है, न जील है. जो अमेरिकी अर्थव्यवस्था पिछली तिमाही में महज 4.2 प्रतिशत ग्रोथ की थी, उसका बेस 20 ट्रिलियन डॉलर है. और भारत आठ प्रतिशत की ग्रोथ पर भी महज ढाई-तीन ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था लेकर उछल रहा है कि वह आर्थिक महाशक्ति बनेगा.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
अमेरिकी प्रतिबंधों पर रूस और चीन की तीखी प्रतिक्रिया
चीन के अतिरिक्त रूस ने भी अमेरिका की जमकर आलोचना की है और भविष्य में ‘कड़े परिणामों के लिए तैयार रहने’ को कहा है. दोनों देशों की यह प्रतिक्रिया अमेरिका के उस नये कदम पर आयी है, जिसमें उसने बीते शुक्रवार को रूसी प्रतिबंधों की घोषणा की और चीन पर भी लागू कर दिया.
रूस के उप-विदेश मंत्री सर्गेई रियाबकोव ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि अमेरिका आग से खेल रहा है. पहली बार ऐसा हुआ है कि रूस से अपने संबंधों पर कार्रवाई करते हुए अमेरिका ने किसी तीसरे देश को भी निशाना बनाया है. इससे ट्रेड वार के खतरनाक स्वरूप लेने की आशंका उठने लगी है. रूस के घातक गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाकर अमेरिका ने चीनी रक्षा मंत्रालय के उपकरण विकास विभाग और उसके शीर्ष प्रशासकों पर सुखोई एसयू-35 और जमीन से हवा में चलनेवाली मिसाइल एस-400 की हालिया खरीदों पर वित्तीय प्रतिबंध लगाया है. चीन ने इसकी प्रतिक्रिया में साफ कहा है कि अमेरिका तुरंत इन प्रतिबंधों को खत्म करे अन्यथा इसके परिणामों को भुगतने के लिए तैयार रहे.
चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआंग के अनुसार, अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों के बुनियादी सिद्धांतों का उल्लंघन किया है और दोनों देशों और उनकी सेनाओं के रिश्तों पर गंभीर रूप से क्षति पहुंचायी है. चीन ने आधिकारिक तौर पर अमेरिका को भेजे जवाब में भी यही प्रतिक्रिया शामिल की है और कहा है कि रूस को लेकर पहली बार सीएएटीएसए (कॉउंटरिंग अमेरिकास एडवरसरीस थ्रू सैंक्शंस एक्ट) प्रतिबंध कानून के तहत किसी तीसरे देश को प्रतिबंधित किया जा रहा है. इसके जवाब में अमेरिका ने चीन पर व्यापार में अव्यावहारिक नीतियों को लागू करने का आरोप लगाया है.
अमेरिका के अनुसार, चीन अपनी नीतियों को बदलने की जगह उल्टा उस पर ही पलटवार कर रहा है. अमेरिका और चीन के बीच चल रहे इस ट्रेड वार में डोनाल्ड ट्रंप ने तीसरी बार टैरिफ बढ़ाते हुए चीन को यहां तक चेतावनी दे दी थी कि अगर उसने इसके खिलाफ कोई जवाबी कार्रवाई की तो अमेरिका चीन के 267 अरब डॉलर के आयातित सामानों पर शुल्क लगा देगा. अगर अमेरिका यह कदम उठाता है, तो उसके बाद अमेरिका में आयातित लगभग सभी प्रकार के चीनी सामानों पर शुल्क बढ़कर लग जायेगा. गौरतलब है कि अमेरिका में लगभग 522.9 अरब डॉलर का चीनी सामान आता है.
कारोबारी युद्ध में लीन अमेरिका और चीन
चीन और अमेरिका के बीच जारी ट्रेड वार रोज नये आयामों को छू रहा है. विभिन्न मुद्दों पर असहमतियों को आगे बढ़ाते हुए दोनों देश अपनी आर्थिक नीतियों द्वारा एक-दूसरे को हराने में जुटे हुए हैं. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन से अमेरिका द्वारा आयात किये जाने वाले 200 अरब डॉलर के सामानों के आयात पर 10 प्रतिशत शुल्क बढ़ाने की घोषणा की है, जिसके 1 जनवरी से 25 प्रतिशत हो जाने की आशंका है. इस कार्रवाई का जवाब देते हुए चीन ने 60 अरब डॉलर के अमेरिकी सामानों पर शुल्क लगा दिया है, जो साल के अंत से प्रभावी हो जायेगा. यह इस साल अमेरिका द्वारा की गयी तीसरी कार्रवाई है. इससे पहले, अमेरिका ने दो बार ऐसी ही कार्रवाई की थी और 50 अरब डॉलर की चीनी वस्तुओं पर शुल्क बढ़ा दिया था, और बदले में चीन ने भी अमेरिकी वस्तुओं पर शुल्क बढ़ा दिया था.
अमेरिका और चीन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से हैं और जिस तरह से दोनों देश एक-दूसरे पर ट्रेड वार की आड़ में हमले कर रहे हैं, यह बाकी दुनिया के लिए परेशानी का सबब बन चुका है. भारत के लिए व्यापार के लिहाज से दोनों देश महत्वपूर्ण रहे हैं, इसलिए यह ट्रेड वार भारत के लिए चिंता का कारण है. इस ट्रेड वार का भारत सीधे तौर सामना कर रहा है और नुकसान भी उठा रहा है. एक अध्ययन के अनुसार, मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट पर भी ट्रेड वार का असर पड़ने लगा है और भारतीय बाजार से निवेशक अपने पैसे निकाल रहे हैं और अमेरिका की तरफ रुख कर रहे हैं. ट्रेड वार का सीधा असर रुपये पर भी पड़ रहा है और रुपये के डॉलर की तुलना में गिरने का एक कारण भी बन गया है.
क्या होता है ट्रेड वार
सीधा-सीधा कहें तो ट्रेड वार या व्यापारिक युद्ध संरक्षणवाद से पैदा होता है है. जब सरकारें अपने देश के उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए विदेशी सामानों पर पाबंदियों को जोर देती हैं, तो सरकार की इस नीति को संरक्षणवाद कहते हैं. इसके अंतर्गत, अगर कोई देश किसी देश के साथ व्यापार पर टैरिफ (आयात शुल्क) बढ़ाता है और जवाबी कार्रवाई में दूसरा देश भी ऐसा ही करता है, तब ट्रेड वार की स्थिति पैदा होती है.
जब दो देशों में ट्रेड वार की शुरुआत हो जाती है, तब अन्य देशों को भी इसके परिणाम झेलने पड़ते हैं, इसका उदाहरण हम अमेरिका और चीन के बीच चल रहे ट्रेड वार के रूप में देख सकते हैं. अर्थशास्त्री ट्रेड वार को व्यापार द्वारा किया जाने वाला युद्ध कहते हैं. अकादमिक भाषा में कहें, तो जब भी आर्थिक संकट आता है तो देश अपने उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए टैरिफ लगाते हैं, तब इसे संरक्षणवाद कहा जाता है. विदेशी सामानों पर लगाये जाने वाला टैक्स या कर ही टैरिफ होता है. जब एक देश दूसरे देश से आनेवाले सामान पर टैरिफ बढ़ाता है और दूसरा देश भी इसके जवाब में टैरिफ बढ़ाकर प्रतिक्रिया करता है तो दोनों देशों के संबंध बिगड़ते हैं. इसका सीधा असर तमाम अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ता है और ट्रेड वार के परिणाम भयावह होने लगते हैं.
ट्रेड वार का भारत पर असर
अमेरिका और चीन के बीच चल रहे ट्रेड वार में भारत पिसता रहा है. हालांकि कुछ विशेषज्ञ इसे भारत के लिए, चीन की जगह लेकर दुनिया में अपनी स्थिति मजबूत कर लेने का मौका भी बता रहे हैं. लेकिन ट्रेड वार के ‘साइड इफेक्ट्स’ को नकारा नहीं जा सकता है.
आदित्य बिड़ला समूह के अध्यक्ष, मंगलम बिड़ला ने बीते शुक्रवार को कहा है कि यह ट्रेड वार यानी वैश्विक व्यापार युद्ध अमेरिका और चीन के बीच छिड़े होने से भारत का नुकसान हो रहा है. मंगलम बिड़ला ने कहा कि अमेरिका ने चीनी आयात पर टैरिफ बढ़ाकर लगाया हुआ है, इसलिए वहां से होकर जो सामान भारत में आयात होते हैं, उनके शुल्क का बोझ भारत को उठाना पड़ेगा. मंगलम बिड़ला की चिंता निराधार नहीं है. एल्यूमिनियम एसोसिएशन के आंकड़ों के मुताबिक, चीन द्वारा यूएस स्क्रैप आयात पर 25 प्रतिशत आयात शुल्क लगाने की वजह से, वहां से होकर भारत में आनेवाले स्क्रैप के आयात पर 128 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और आंकड़ा अब 36.2 किलो टन तक पहुंच गया है.
कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि ट्रेड वार के नकारात्मक असर को कम करने के लिये भारत को अमेरिका से अपने संबंध और प्रगाढ़ करने चाहिए. डायरेक्टर जनरल ऑफ कमर्शियल इंटेलिजेंस एंड स्टेटिस्टिक्स के आंकड़ों के अनुसार, अप्रैल-मई 2018 में भारत द्वारा अमेरिका को किये जाने वाले निर्यात में लगातार बढ़ोतरी हुई है और आंकड़ा 58,221.46 करोड़ रुपये का हो चुका है.
चीन से तुलना करें, तो चीन ने इसी दौरान 17,614.44 करोड़ रुपये निर्यात किया अमेरिका में. हालांकि, आयात में चीन पहले नंबर पर है. वर्ष 2017-18 के आंकड़ों के अनुसार, भारत और चीन के बीच व्यापार घाटा 51 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है, जो पिछले एक दशक में तीन गुने से ज्यादा का हो गया है. ट्रेड वार की इन स्थितियों में भारत तभी व्यापारिक फायदा उठा सकता है अगर वह उन सामानों का निर्यात करता हो, जिनके चीन द्वारा निर्यात पर अमेरिका ने टैरिफ बढ़ा दिया है.
जांचने पर पता चलता है कि ऐसे उत्पाद मात्र 1-2 प्रतिशत ही हैं. पहले ही लगातार पेट्रोल और डीजल के मूल्यों में बढ़ोतरी हो रही है, रुपया डॉलर के मुकाबले कमजोर हो रहा है. ट्रेड वार इन पर फिर अपना असर दिखायेगा. ट्रेड वार के कारण हालिया भविष्य में कच्चे माल की कीमत में बढ़ोतरी होना तय है, जिसका भार भारत पर पड़ेगा ही.
विश्व के कुछ प्रमुख व्यापार युद्ध
इन दिनों भले ही अमेरिका और चीन जैसी विश्व की दो आर्थिक शक्तियों के बीच व्यापार युद्ध चरम पर हो, लेकिन इससे पहले भी अलग-अलग देशों के बीच भिन्न-भिन्न वस्तुओं को लेकर व्यापार युद्ध हो चुके हैं.
अफीम वार : ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा चीन में अफीम की तस्करी को लेकर चिंग राजवंश और ब्रिटिश साम्राज्य के बीच पहला अफीम युद्ध लड़ा गया. यह युद्ध 1839 से 1842 तक चला था. इस युद्ध के चौदह वर्षों बाद 1856 में ब्रिटेन और फ्रांस ने चिंग राजवंश के खिलाफ दूसरे अफीम युद्ध की शुरुआत की. इन दोनों यूरोपीय देशों ने विदेशी व्यापारियों के लिए चीन के द्वार खोलने और विदेशी आयात शुल्क हटाने के लिए चीन पर दबाव बनाया. यह युद्ध 1860 तक चला. इन दोनों युद्धों ने चिंग राजवंश को कमजोर कर दिया और हांगकांग पर ब्रिटेन का नियंत्रण हो गया.
स्मूट-हावले टैरिफ एक्ट, 1930 : स्टॉक मार्केट की गिरावट और घरेलू उद्योगों के संरक्षण के लिए 1930 में सिनेटर रीड स्मूट और विलिस सी हावले द्वारा अमेरिकी सदन में स्मूट-हावले टैरिफ एक्ट लाया गया, जिस पर अमेरिकी राष्ट्रपति हर्बर्ट हूवर ने हस्ताक्षर किया. इस एक्ट का मूल उद्देश्य कृषि क्षेत्र को सुरक्षा प्रदान करना था. हालांकि, राष्ट्रपति हूवर ने इसमें विस्तार देकर इसके तहत अलग-अलग क्षेत्रों के करीब 20,000 उत्पादों को शामिल कर लिया था. ऐसा करके एक आेर जहां अमेरिका ने आयात पर अपनी निर्भरता में कमी की, वहीं दूसरे देशों द्वारा प्रतिशोधात्मक कदम उठाने के कारण 1933 तक अमेरिकी निर्यात में 61 प्रतिशत की कमी आ गयी. इस कानून को 1934 के रेसिप्रोकल ट्रेड एग्रीमेंट्स ऐक्ट से रद्द कर दिया गया.
चिकेन वार : साल 1960 के आरंभ में फ्रांस और जर्मनी ने अमेरिकी चिकेन पर उच्च शुल्क लगा दिया था ताकि यूरोपीय चिकेन की मांग बढ़ सके. इसके प्रतिरोधस्वरूप अमेरिका ने फ्रेंच ब्रैंडी व वोक्सवैगन बसों समेत अनेक उत्पादों पर उच्च शुल्क लगा दिया था. इतना ही नहीं, उसने यूरोप में नाटो सैनिकों के कटौती की भी धमकी दी थी, हालांकि फ्रांस और जर्मनी पर अमेरिकी धमकी का कोई असर नहीं हुआ, लेकिन अटलांटिक महासागर के दोनों तरफ के उपभोक्ताओं को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा.
पास्ता वार : अमेरिकी साइट्रस उत्पादों के खिलाफ भेदभावपूर्ण रवैये को देखते हुए 1985 में रोनाल्ड रीगन प्रशासन ने यूरोपीय पास्ता पर शुल्क बढ़ा दिया था. प्रतिक्रियास्वरूप यूरोप ने अमेरिकी नींबू और अखरोट पर उच्च शुल्क लगा दिया. हालांकि, अगस्त 1986 में दोनों देशों ने साइट्रस विवाद समाप्त करने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किया, जिसके पश्चात अक्तूबर 1987 में पास्ता विवाद खत्म हो गया.
बनाना वार : अफ्रीका और कैरिबियाई उपनिवेशों में केले के आयात को प्रतिबंधित करने के लिए वर्ष 1993 में यूरोप ने लैटिन अमेरिकी केलों के आयात पर भारी शुल्क लगा दिया था. चूंकि लैटिन अमेरिका के अधिकांश केले के खेतों को अमेरिका ने खरीद लिया था, इसलिए इसे लेकर उसने विश्व व्यापार संगठन में आठ अलग-अलग शिकायतें दर्ज करायी. वर्ष 2009 में यूरोप इस बात पर सहमत हुआ कि वह धीरे-धीर लैटिन अमेरिकी केलों पर लगे शुल्क में कटौती करेगा. इसके बाद विश्व व्यापार संगठन में दर्ज आठ मामलों को खत्म करने के लिए साल 2012 में यूरोपीय यूनियन और 10 लैटिन अमेरिकी देशों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किया. इस प्रकार 20 साल पुराना बनाना वार खत्म हुआ.