हिंदी समीक्षक की मुश्किलें
क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार kshamasharma1@gmail.com हिंदी में इन दिनों बढ़िया किताबें छपती हैं, बिकती हैं, दूर-दराज के पाठकों तक पहुंचती हैं. पुस्तक मेलों में अपनी जगह बनाती हैं. किताब छपने के बाद अकसर लेखक चाहते हैं कि अखबारों के साहित्य के पृष्ठों या पत्रिकाओं में उनकी किताबों की समीक्षा छप जाये, और इस बहाने कुछ […]
क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
kshamasharma1@gmail.com
हिंदी में इन दिनों बढ़िया किताबें छपती हैं, बिकती हैं, दूर-दराज के पाठकों तक पहुंचती हैं. पुस्तक मेलों में अपनी जगह बनाती हैं. किताब छपने के बाद अकसर लेखक चाहते हैं कि अखबारों के साहित्य के पृष्ठों या पत्रिकाओं में उनकी किताबों की समीक्षा छप जाये, और इस बहाने कुछ चर्चा हो जाये. जितनी ज्यादा समीक्षाएं, उतनी ही बढ़ती प्रसिद्धि और इनाम की आशा.
पिछले दिनों साहित्य से अनुराग रखनेवाले दो मित्रों में से एक की किताब आयी. उसने अपने मित्र से कहा कि वह उसकी समीक्षा लिख दे. मित्र ने मित्र धर्म निभाते हुए समीक्षा लिख दी.
पहले तो लेखक ने अपने मित्र से आग्रह किया कि वह छपने से पहले समीक्षा दिखा दे. मगर, उसने कहा कि जब छपे तभी देखना. जब समीक्षा छपी, तो लेखक ने मित्र पर हजार तोहमतें लगाते हुए कहा कि उसने यह छोड़ दिया और वह छोड़ दिया. वह पुस्तक में लिखी बातों को समझ ही नहीं सका. वह अपने मित्र से नाराज हो गया. जबकि लिखनेवाले ने अपने दोस्त की खूब तारीफ की थी. सोचिये, अगर निंदा की होती तो क्या होता.
हिंदी में एक तरफ तो आरोप लगता है कि अच्छे समीक्षक नहीं मिलते, लेकिन जो समीक्षा लिखते भी हैं, उन्हें भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. लेखकों की चाहे जितनी तारीफ कर दो, वे अक्सर खुश नहीं होते.
और तारीफ पर पढ़नेवाले कहते हैं कि समीक्षा में भाई-भतीजावाद घुसा चला आ रहा है. साहित्य में लोग दोस्ती निभाने लगे हैं. दरअसल, पब्लिसिटी के इस युग में कोई भी अपनी रचना की कैसी भी आलोचना नहीं चाहता. यह मामला उपेंद्रनाथ अश्क के जमाने से बहुत आगे निकल गया है. अश्क जी तो बाकायदा प्रायोजित करके अपनी पुस्तक पर दो लेख तारीफ में और दो निंदा में छपवाते थे.
आजकल तो यह भी कहा जाने लगा है कि लोग मात्र फ्लैप पढ़कर समीक्षा लिख देते हैं. लेखक की अगर कोई किताब न पढ़े, तो मान लिया जाता है कि वह आदमी अनपढ़ है. जिसे अनपढ़ कहा जा रहा है, हो सकता है उसने सैकड़ों किताबें पढ़ी हों, लेकिन जो लेखक पूछ रहा है उसकी नहीं पढ़ी, तो उसे आराम से अनपढ़ बताने का रिवाज सा चल पड़ा है.
अपनी तारीफ और दूसरे की निंदा सुनने का रोग साहित्य और सोशल मीडिया में इतना बढ़ गया है कि लोग अब खुद अपनी तारीफ ही नहीं करते हैं, बल्कि अपनी किताबें खरीदने का इसरार करते भी नजर आते हैं.
ऐसे में जब यह बहस सुनायी देती है कि आलोचना का तो खात्मा ही हो गया है और अच्छे आलोचक नहीं बचे हैं, तो हंसी आती है. ऐसा लिखनेवालों में अधिकांश वे दिखते हैं, जो दूसरे की आलोचना करना अपना लोकतांत्रिक अधिकार समझते हैं, लेकिन अपनी तारीफ ही सुनना चाहते हैं. अब आखिर किस समीक्षा लिखनेवाले की हिम्मत है कि वह पूरी किताब पढ़े, मेहनत से समीक्षा भी लिखे और छपने के बाद दुश्मनी मोल ले. तारीफ भी करे तो कोई खुश न हो, हद है!