रणनीतिक स्पष्टता का अभाव
पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक pavankvarma1953@gmail.com मैं सुषमा स्वराजजी का बहुत व्यक्तिगत सम्मान करता हूं. और यही वजह है कि पाकिस्तान के साथ हमारी नीति को लेकर क्या हो रहा है, मैं उसे बिल्कुल ही नहीं समझ पा रहा. इस मामले की तनिक भी जानकारी रखनेवाले व्यक्ति के लिए यह तो साफ है […]
पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
pavankvarma1953@gmail.com
मैं सुषमा स्वराजजी का बहुत व्यक्तिगत सम्मान करता हूं. और यही वजह है कि पाकिस्तान के साथ हमारी नीति को लेकर क्या हो रहा है, मैं उसे बिल्कुल ही नहीं समझ पा रहा.
इस मामले की तनिक भी जानकारी रखनेवाले व्यक्ति के लिए यह तो साफ है कि भारत से निपटने को लेकर पाकिस्तान एकदम स्पष्ट है. जैसा मैं कई मौकों पर कहता आया हूं, पाकिस्तान की नीति विस्फोटक आक्रमण करने तथा उसके बाद रणनीतिक तुष्टीकरण की रही है.
इमरान खान के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उसकी इस नीति में कोई बदलाव नहीं हुआ है. पाकिस्तान का कोई भी असैनिक प्रधानमंत्री उसकी सियासत में आइएसआइ तथा पाकिस्तानी फौज के अंदरूनी गठजोड़ का कठपुतली भर ही होता है. प्रधानमंत्री आते-जाते रहते हैं, पर इस गठजोड़ की यह नीति सदा अपरिवर्तित रहती है और किसी भी प्रधानमंत्री के सामने उसका पालन करने के सिवाय कोई चारा नहीं होता.
यही स्थिति यह साफ करती है कि प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बाद क्यों इमरान खान ने भारत के साथ शांति प्रस्ताव किया, जबकि पाकिस्तानी सेना ने भारत के खिलाफ दहशतगर्दी का संरक्षण एवं समर्थन लगातार जारी रखा है. युद्धविराम उल्लंघन की घटनाएं बढ़ीं, पाकिस्तानी सेना ने सीमा पार से गोलाबारी में तेजी लाकर हमारे नागरिकों की हत्या तथा उनका विस्थापन जारी रखा, उसके द्वारा संरक्षित दहशतगर्द हमारे वीर जवानों के जीवन से खिलवाड़ करते रहे.
और इसके प्रति हमारी प्रतिक्रिया क्या रही? मुझे तो लगता है कि हमारी नीति में न तो सातत्य है, न कोई तैयारी और न ही हम अपनी कोई रणनीतिक प्रतिक्रिया निर्धारित कर सके हैं. हम सार्वजनिक रूप से यह कहते रहे हैं कि दहशतगर्दी की छाया में पाकिस्तान से कोई वार्ता नहीं हो सकती. यही वजह थी कि पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने औपचारिक व्यापक वार्ता निलंबित रख छोड़ी थी.
हालांकि, प्रधानमंत्री मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आमंत्रित किया और बाद में उनके जन्मदिन की शुभकामना देने वे लाहौर भी जा पहुंचे, मगर ये वार्ताएं चालू नहीं की गयीं. कारण वही रहा कि उरी तथा पठानकोट के हमलों की तरह पाकिस्तान की उपर्युक्त हरकतें खुल्लमखुल्ला जारी रहीं.
समन्वित वार्ता प्रक्रिया बहाल करने के प्रति सहमत न होने के अलावा हमने ऐसे अनगिनत बयान भी दिये कि जब तक पाकिस्तान दहशतगर्दी के साथ अपने संपुष्ट गठजोड़ की समाप्ति नहीं करता, उसके साथ कोई वार्ता न करने की हमारी नीति जारी रहेगी.
सुषमा स्वराजजी ने स्वयं भी यह कहा कि जब तक मुंबई हमले के आरोपियों को सजा नहीं मिलती, पाकिस्तान के साथ किसी वार्ता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता. पर उनके बयान के कुछ ही सप्ताह बाद उफा शीर्ष सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री मोदी तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से न केवल मिले, बल्कि तत्पश्चात एक विरोधाभासी एवं आपत्तिजनक संयुक्त बयान भी जारी किया.
वार्ता के लिए इमरान खान का प्रस्ताव एक ऐसी चीज थी, हमें जिसकी अपेक्षा करते हुए उसके प्रति तैयार रहना था. होना तो यह चाहिए था कि हम सक्रियता दिखाते हुए पाकिस्तान की चाल को पहले ही नाकाम कर देते.
उनके निर्वाचन के तुरंत बाद हमें एक औपचारिक बयान जारी कर यह उम्मीद व्यक्त करनी चाहिए थी कि पाकिस्तान के नये प्रधानमंत्री दहशतगर्दी का रास्ता छोड़ देंगे, ताकि उसके साथ एक ऐसी व्यापक वार्ता प्रक्रिया पुनर्जीवित की जा सके, जिसके एजेंडे में शीर्ष पर दहशतगर्दी हो. तब गेंद पाकिस्तान के पाले में होती. उसे इसका उत्तर देने को बाध्य होना पड़ता और हम उस उत्तर के परिणाम तय कर पाते.
मगर चूंकि हम उतने सक्रिय न थे, ठीक उसका विपरीत हुआ. पाकिस्तान ने वार्ता का प्रस्ताव किया और हम उसके उत्तर तलाशने में लगे रहे.
हमने जो उत्तर दिया भी, वह बहुत बुरा था. पहले तो हमने कहा कि संयुक्त राष्ट्र महासभा के दौरान दोनों देशों के विदेशमंत्री मिलेंगे. फिर हमने यह स्पष्ट किया कि यह एक बैठक होगी, संवाद नहीं. इन दोनों में आखिर फर्क क्या है? जब विदेशमंत्री के स्तर पर दो व्यक्ति मिलते हैं, तो जब तक उन्होंने मौनव्रत धारण न कर रखा हो, वे एक दूसरे से जो कुछ कहते हैं वह संवाद ही तो होता है. किसे बातचीत और किसे संवाद कहते हैं, इस बाल की खाल उधेड़ना बिल्कुल व्यर्थ है.
पर हमारे चेहरे पर अभी और कालिख पुतनी थी. अगले ही दिन विदेश मंत्रालय ने यह बताया कि यह बैठक स्थगित कर दी गयी है. इसकी वजह में पाकिस्तान आधारित संगठनों द्वारा हमारे तीन सुरक्षाकर्मियों की हत्या तथा हमारे सुरक्षा बलों से मुठभेड़ में मारे गये बुरहान वानी के सम्मान में पाकिस्तान द्वारा जारी डाक टिकट का जिक्र किया गया. मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि ‘पाकिस्तान का शरारतपूर्ण एजेंडा तथा नये पाकिस्तानी प्रधानमंत्री का असली चेहरा विश्व के सामने बेनकाब हो गया है.’
यह सचमुच ही एक अबूझ पहेली है. 24 घंटे पूर्व जब हम दोनों विदेश मंत्रियों की बैठक के लिए सहमत हुए, तो क्या ये संगठन हमारे सुरक्षाकर्मियों की हत्या नहीं कर रहे थे?
क्या हम बुरहान वानी के लिए पाकिस्तानी समर्थन के प्रति अनजान थे, जो हमने उसके नाम जारी टिकट को 24 घंटे बाद ही पाकिस्तानी प्रधानमंत्री का असली चेहरा बताया? सच्चाई यह है कि हमारी प्रतिक्रिया पूरी तरह उल्टी-पुल्टी थी, क्योंकि हमारे पास पाकिस्तान से पेश आने की कोई सुविचारित रणनीति है ही नहीं. नतीजतन, हमारी प्रतिक्रिया हर बार तदर्थ बन कर रह जाती है और अंतरराष्ट्रीय मंच पर हम नौसिखिये नजर आते हैं. ऐसी स्थिति में जैसा स्वाभाविक है, फायदा पाकिस्तान को पहुंचता है.
राजनय के प्रभावी होने के लिए यह अपरिहार्य है कि वह एक रणनीतिक चौखटे में जड़ी हो. सवाल यह नहीं है कि हमें पाकिस्तान से वार्ता करनी चाहिए या नहीं. असली मुद्दा यह है कि हम जो भी करें, वह एक नपी-तुली रणनीतिक नीति के अनुरूप हो. सर्जिकल स्ट्राइक की वर्षगांठ की तैयारियां कर इस बुनियादी मुद्दे से ध्यान विलग करने का कोई लाभ नहीं होगा. सीमा पार से हमारे विरुद्ध जारी लगातार हिंसा को नजरंदाज करते हुए अकेला एक स्ट्राइक ही काफी नहीं है, न ही बल प्रयोग की कोई भंगिमा रणनीतिक स्पष्टता का विकल्प है.
(अनुवाद: विजय नंदन)