मंदी के मुहाने पर विश्व
दुनिया के ‘केंद्रीय बैंकों का केंद्रीय बैंक’ कहलानेवाले बीआइएस की वैश्विक अर्थव्यवस्था की दशा-दिशा पर रिपोर्ट के मुताबिक, विश्व एक बार फिर आर्थिक महामंदी के मुहाने पर खड़ा है. रिपोर्ट का मूल तर्क है कि 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी बैंकों के फंसे कर्ज की देन थी और दस साल बाद स्थिति फिर से विस्फोटक […]
दुनिया के ‘केंद्रीय बैंकों का केंद्रीय बैंक’ कहलानेवाले बीआइएस की वैश्विक अर्थव्यवस्था की दशा-दिशा पर रिपोर्ट के मुताबिक, विश्व एक बार फिर आर्थिक महामंदी के मुहाने पर खड़ा है. रिपोर्ट का मूल तर्क है कि 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी बैंकों के फंसे कर्ज की देन थी और दस साल बाद स्थिति फिर से विस्फोटक हो सकती है, क्योंकि वैश्विक स्तर पर वित्तीय संस्थाओं के फंसे कर्जे 2008 की तुलना में आज बहुत ज्यादा हैं.
तेजी से बढ़नेवाली अर्थव्यवस्थाओं (भारत, ब्राजील, द अफ्रीका) की मुद्रा की तुलना में अमेरिकी डॉलर की कीमत बढ़ने से इन देशों को अपने ऊपर चढ़े वैश्विक वित्तीय संस्थाओं के कर्जे का सूद चुकाना बहुत महंगा पड़ रहा है. साथ ही, अमेरिका में सूद की दरों के चढ़ने के कारण भारतीय अर्थव्यवस्थाओं में निवेश की गयी वैश्विक पूंजी बड़ी मात्रा में अमेरिका का रुख कर रही है. ऐसे में विकासशील देशों में घरेलू मोर्चे पर कीमतों को थामे रखने और साथ ही आर्थिक वृद्धि दर को बढ़ाये-बनाये रखने के मकसद से कम लागत पर व्यवसाय जगत के लिए कार्यशील पूंजी जुटाने की दोहरी मगर विरोधाभासी जरूरत पैदा हो गयी है.
जिन देशों में चालू खाते का घाटा बड़ा है और विदेशी मुद्रा का भंडार कम, वहां स्थिति और भी डांवाडोल है. ऐसे देशों में बाजार धराशायी हो रहा है. बहरहाल, बीआइएस की तिमाही रिपोर्ट का आकलन है कि राष्ट्रपति ट्रंप के शासन काल में हुई टैक्स-कटौती सरकारी खर्चे में बढ़ोतरी के कारण अमेरिकी सरकार पर कर्ज का बोझ 2008 की तुलना में आज कहीं ज्यादा है.
रिपोर्ट में चेतावनी है कि आर्थिक महामंदी के बाद वित्तीय संस्थाओं ने सस्ती दर पर बड़ी मात्रा में कर्जे दिये और इनकी वसूली को लंबी अवधि तक छोड़ दिया गया. ऐसे में वैश्विक स्तर पर डूबे और फंसे कर्जे की समस्या इतनी विकराल हो चुकी है कि दुनिया के केंद्रीय बैंकों के लिए उसको संभाल पाना बहुत कठिन साबित होगा. भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति बीआइएस की रिपोर्ट की चेतावनी को गंभीरता को समझने में मददगार हो सकती है. हालांकि, कुछ वैश्विक रेटिंग एजेंसियों का आकलन है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार 2018-19 में 7.8 प्रतिशत रहेगी, लेकिन मौजूदा हालत इससे अलग संकेत करती है, क्योंकि कर्ज अदायगी का संकट झेल रही 78 बड़ी कंपनियां दिवालिया करार दिये जाने को हैं.
इनमें से 20 कंपनियों को दिवालिया करार देकर कार्रवाई के लिए नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल में भी भेजा जा चुका है. ऊर्जा क्षेत्र की कुल 30 कंपनियाें पर इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले की तलवार लटकी हुई है. इन कंपनियों पर ही अकेले 1 लाख 40 हजार करोड़ रुपये का कर्ज है.
बाजार आधारित अर्थव्यवस्था का बड़ा दोष है ‘आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया’ यानी भविष्य में होनेवाली कमाई के आधार पर वर्तमान में ज्यादा कर्ज लेकर काम चलाना. बीआइएस ने इसी बुनियादी संकट की तरफ इशारा किया है. विकासशील देशों के लिए अब चेतने की बारी है.