14.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

जरूरी है चुनावी जागरूकता

चक्षु रॉय लेजिस्लेटिव और सिविक इंगेजमेंट इनीशिएटिव्स के प्रमुख पीआरएस इंडिया chakshu@prsindia.org आपराधिक मामलों में फंसे नेताओं के चुनाव लड़ने पर फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसे संसद के विवेक पर छोड़ दिया है. अब समस्या यह है कि क्या संसद खुद कोई ऐसा कानून बनायेगी, जिससे कि संसद को दागदार छवि वाले नेताओं […]

चक्षु रॉय

लेजिस्लेटिव और सिविक इंगेजमेंट इनीशिएटिव्स के प्रमुख पीआरएस इंडिया

chakshu@prsindia.org

आपराधिक मामलों में फंसे नेताओं के चुनाव लड़ने पर फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसे संसद के विवेक पर छोड़ दिया है. अब समस्या यह है कि क्या संसद खुद कोई ऐसा कानून बनायेगी, जिससे कि संसद को दागदार छवि वाले नेताओं से मुक्त बनाया जा सके? क्योंकि, आज एक भी ऐसी पार्टी नहीं है, जिसमें ऐसे नेता न हों, जिनके खिलाफ कोई गंभीर आपराधिक मामले न हो. इस फैसले के मद्देनजर कुछ बातें अहम हैं, जिन्हें समझना जरूरी है. पहली बात तो यह है कि ‘पीपुल्स रिप्रजेंटेशन एक्ट’ में चुनाव लड़ने के लिए क्वालिफिकेशन और डिसक्वालिफिकेशन, दोनों से संबंधित प्रावधान हैं.

लिली थामस के एक फैसले में यह बात कही गयी थी कि जब किसी व्यक्ति पर आरोप साबित हो जाये, तो वह चुनाव नहीं लड़ सकेगा. यह अरसा पहले की बात है. यही वजह है कि चारा मामले में फंसे लालू प्रसाद यादव को चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया गया था.

अब सुप्रीम कोर्ट का यह कहना है कि संसद को कानून बनाना चाहिए, ताकि राजनीति में अपराधी व्यक्तियों का आगमन न होने पाये. लेकिन, अगर कानून बना देने से राजनीतिक या चुनावी प्रक्रिया साफ हो जाती, तो यह राजनीति बहुत पहले स्वच्छ हो गयी होती.

एक कानून तो है ही कि संसदीय चुनाव में एक प्रत्याशी 75 लाख रुपये खर्च कर सकता है, लेकिन इससे कहीं ज्यादा ही खर्च होता है. इससे यह बात साफ है कि सिर्फ कानून बना देने से किसी समस्या का हल नहीं हो सकता है. कानून तो यह भी कहता है कि आदमी तब तक निर्दोष होता है, जब तक उस पर अपराध सिद्ध न हो जाये और जब तक वह निर्दोष है, तब तक तो वह चुनाव लड़ ही सकता है.

ऐसे में यही लगता है कि अगर संसद कोई ऐसा कानून बनाती भी है, जिसमें किसी पर कोई आरोप होने पर वह चुनाव लड़ने से वंचित हो सकता है, तो इससे होगा यह कि चुनाव से पहले ही दूसरी पार्टियों के प्रत्याशियों पर कोई नेता केस करके उसे फंसा सकता है, ताकि वे चुनाव न लड़ सकें. यही बुनियादी दिक्कत है, जिसे समझने की जरूरत है.

अगर हमें अपनी राजनीति में अच्छे लोगों को लाना है, तो सिर्फ कानून बनाना ही काफी नहीं है. ऐसी बहुत-सी बुनियादी बातें हैं, जिन्हें समझने की जरूरत है. सबसे पहले हमें चुनाव सुधार के बारे में सोचना होगा और देखना होगा कि हम किस तरह से चुनावी सुधार करें, जिससे कि उसमें कोई लूप होल न नजर आये.

जब तक चुनाव में मनी-मसल (पैसा और पावर) का मसला बना रहेगा, तब तक चुनाव सुधार हो ही नहीं सकता. जिस दिन मनी-मसल का मसला खत्म हो जायेगा, उस दिन एक ईमानदार व्यक्ति भी चुनाव लड़ सकेगा और वह दिन हमारे लोकतंत्र के लिए बहुत ही शुभ होगा.

देश की जनता अपने नेताओं को इसलिए वोट देती है, ताकि वे नेता उनके लिए काम कर सकें. यानी सड़क-बिजली-पानी से लेकर तमाम जमीनी कामों और जरूरतों को जनता तक मुहैया करा सकें. यही सबसे बड़ी समस्या है जागरूकता न होने की. हमें यह बात समझनी होगी कि हमारे जनप्रतिनिधियों का काम जनता का प्रतिनिधित्व करना तो है, लेकिन अच्छे कानून लाकर और संसद एवं विधानसभाओं में बजट पास करके ही प्रतिनिधित्व करना है.

संसद सदस्यों या विधानसभा सदस्यों का काम जमीनी काम करवाना नहीं है, बल्कि यह काम सरकार का है. हां, उस सरकार में भले कुछ जनप्रतिनिधि हो सकते हैं. जनता जिस दिन यह बात समझ जायेगी, उस दिन वह वोट बैंक नहीं बनेगी और न ही वह किसी बाहुबली को वोट देगी. इस जागरूकता से ही जनता द्वारा विधायकों या सांसदों के चुनाव में बदलाव आयेगा.

फिलहाल जो चुनावी प्रक्रिया है, उसमें सिर्फ क्वालिफिकेशन या डिसक्वालिफिकेशन से काम नहीं चलेगा. इस प्रक्रिया को इको-कैंपेन बनाना होगा.

मसलन कि प्रचार-प्रसार का तरीका ठीक करना होगा. दूसरी बात यह कि लोगों को यह बताया जाना चाहिए कि वे लोगों को चुनते ही क्यों हैं? वहीं, पार्टियों पर भी यह दबाव होना चाहिए कि वे खराब छवि के लोगों को टिकट ही न दें.हमारी शिक्षा प्रणाली यह नहीं सिखाती है कि हम संसद और विधानसभा सदस्यों को क्यों चुनते हैं. यह जागरूकता का विषय है. सिर्फ यही प्रचार किया जाता है कि वोट देना जनता का अधिकार है और जनता को लगता है कि उसका अधिकार यही है कि वह पांच साल में सिर्फ एक दिन या एक बार वोट दे दे.

इसलिए उस वक्त उसे जो ठीक लगता है, उसे वोट देकर पांच साल के लिए चुप हो जाती है. जनता को यह सोचना चाहिए कि वह उन लोगों को चुनकर भेजे, जो उनका नेतृत्व कर सकें. जनता को हमेशा यह सोचना चाहिए कि वह अपने प्रतिनिधि से पूछे कि वह देश का नेतृत्व कैसे कर रहा है. सिर्फ अपना काम कराने के लिए जनता को अपने प्रतिनिधि के पास नहीं जाना चाहिए.

बीते दो दशक में हमारी चुनावी प्रक्रिया में काफी सारे बदलाव आये हैं. साल 2000 के शुरू में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि चुनाव लड़ने जानेवाले प्रत्याशियों को यह बताना होगा कि उस पर कोई केस तो नहीं चल रहा है, अगर चल रहा है, तो उस पर कार्रवाई हो रही है या नहीं. अब हमें यह देखना है कि इस प्रक्रिया को हम आगे कैसे सुधार के तौर पर ले आते हैं. यानी चुनाव के पूरे इको-सिस्टम को सुधारना होगा, ताकि जनप्रतिनिधियों की गुणवत्ता बेहतर हो सके.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें