साधुमना संपादक : नारायण दत्त

।। अनुराग चतुर्वेदी।। (वरिष्ठ पत्रकार) ना रायण दत्त जी दंभहीन और भारतीय संस्कृति के शांत प्रकोष्ठों को ढूंढ़नेवाले संपादक थे. उन्होंने ‘नवनीत’ को नैतिक पत्रिका बनाया और हिंदी पत्रकारिता के लिए उच्च आदर्श स्थापित किये. वे शांत, सादगीपूर्ण, मृदुभाषी और आश्चर्यजनक रूप से सत्ता, प्रसिद्धि और चमक-दमक से दूर रहनेवाले व्यक्ति थे. उन्होंने ‘स्क्रीन’ जैसे […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 9, 2014 6:02 AM

।। अनुराग चतुर्वेदी।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

ना रायण दत्त जी दंभहीन और भारतीय संस्कृति के शांत प्रकोष्ठों को ढूंढ़नेवाले संपादक थे. उन्होंने ‘नवनीत’ को नैतिक पत्रिका बनाया और हिंदी पत्रकारिता के लिए उच्च आदर्श स्थापित किये. वे शांत, सादगीपूर्ण, मृदुभाषी और आश्चर्यजनक रूप से सत्ता, प्रसिद्धि और चमक-दमक से दूर रहनेवाले व्यक्ति थे. उन्होंने ‘स्क्रीन’ जैसे फिल्मी साप्ताहिक से अपनी पत्रकारिता शुरू की थी, लेकिन उनकी ख्याति हुई नेवटिया जी की पत्रिका ‘नवनीत’ का संपादक बनने के बाद. ‘नवनीत’ साहित्य की पत्रिकाओं से अलग मिजाज की थी. उसमें भारतीय संस्कृति के स्नेत खोजने की कोशिश नारायण दत्त जी करते थे. गांधी, अहिंसा, सत्य, गीता, वेद-पुराण के जरिये वे अपने पाठकों का उन पक्षों से परिचय कराते थे, जो समाज में महत्वपूर्ण तो थे, लेकिन चर्चित नहीं होते थे. वे हिंदी के पाठकों को भारतीय अध्यात्म के बारे में सुरुचिपूर्ण जानकारी देने की कोशिश करते थे. वे ‘नवनीत’ को राजनीतिक और साहित्यिक बहसों से दूर रखते थे.

नारायण दत्त जी की हस्तलिपि मोती जैसी थी. गुरुकुल कांगड़ी में बिताये दिन, गुरुकुल की शिक्षा और आर्य समाज की आस्था ने उनके जीवन पर गहरी छाप छोड़ी थी, पर नारायण दत्त जी एक खूंटे से बंध कर अपने ज्ञान स्नेतों को बंद नहीं रखते थे. वे मूलत: कन्नड़भाषी थे और उन्हें संस्कृत, हिंदी और अंगरेजी भाषा पर समान अधिकार प्राप्त था. वे कुशल संपादक तो थे ही, साथ ही व्याकरण के ज्ञाता भी थे. नारायण दत्त जी मुंबई के कोलाबा इलाके के ‘इलेक्ट्रिक हाउस’ के एक पुराने घर की पहली मंजिल पर रहते थे. वहां नारायण दत्त जी की सिर्फ एक खाट थी और पूरे कमरे में तरह-तरह की पुस्तकें थीं. पुस्तकें ही उनकी मित्र थीं. पुस्तकों के अलावा समाजवादी चिंतक और ‘धर्मयुग’ के यशस्वी संपादक गणोश मंत्री भी उनके कुटुंब जन थे. नारायण दत्त जी को मंत्री जी भाई साहब कहते थे और वे मंत्री जी को गणोश कहते थे. गोरेगांव स्थित मंत्री जी का घर भाई साहब के लिए शनिवार-रविवार का पारिवारिक स्थान था. चूंकि गणोश मंत्री जी नारायण दत्त जी को भाई साहब कहते थे, इसलिए वे हम सभी के भाई साहब हो गये थे.

वर्ष 1980 ही रहा होगा. नारायण दत्त जी अपने किसी परिचित के घर से कोलाबा लौट रहे थे. फागुन का महीना था. होली का त्योहार एक-दो दिन बाद था. नारायण दत्त जी सार्वजनिक परिवहन का ही प्रयोग करते थे. अक्सर तो वे पैदल ही चलते थे. वे बस से लौट रहे थे, तभी कहीं से पानी से भरा गुब्बारा आकर सीधा नारायण दत्त जी की आंख पर लगा और उन्हें काफी पीड़ा होने लगी. अगले दिन उन्हें ‘बोंबे हॉस्पिटल’ में भरती कराया गया. वे कई दिनों तक अस्पताल में रहे. मुङो रात्रि में उनकी सेवा की जिम्मेवारी दी गयी, तब मालूम पड़ा कि नारायण दत्त जी पहली बार कोई सुई लगवा रहे हैं और दवा खा रहे हैं.

वे सुदर्शन थे. दुबले-पतले, भले से दिखनेवाले. उन्होंने जीवनभर खादी ही पहनी. कुर्ता-पजामा और कंधे पर झोला. बाद के दिनों में वे मुंबई छोड़ कर अपनी बहन के नजदीक के घर में बंगलूर रहने चले गये. अविवाहित नारायण दत्त जी पारिवारिकता को बखूबी पहचानते थे. वे अतीत के कई किस्सों को प्रासंगिक बना कर सुनाने में दक्ष थे. वे ज्ञान की कई परंपराओं को मानते थे, इसमें श्रुति ज्ञान भी प्रमुख था. उन्हें अपने ज्ञान का दंभ बिल्कुल नहीं था. वे सहज थे और हिंदी की दुनिया ही उनकी सब कुछ थी. उन्होंने पीटीआइ जैसी अंगरेजीदां माहौलवाली संस्था में हिंदी फीचर सर्विस शुरू की, उन्होंने ‘काल निर्णय’ जैसे बड़ी संख्या में वितरित होनेवाले कैलेंडर के पीछे साहित्य-संस्कृति का वजन रख उसे महत्वपूर्ण बनाया. उन्होंने ‘धर्मयुग’ में कुछ समय के लिए कार्य किया, पर उन्हें हिंदी पत्रकारिता में ‘नवनीत’ के कालजयी संपादक के रूप में याद रखा जायेगा.

नारायण दत्त जैसे संपादक, उन जैसे व्यक्ति कैसे बनते हैं? उन्हें सत्ता का मोह बिल्कुल नहीं था. वे आपातकाल के विरोधी थे. वे गांधी-लोहिया और जयप्रकाश की परंपरा के वाहक थे. उनके सभी भाई शिखरों पर थे, पर उन्हें कभी यह अफसोस नहीं हुआ होगा कि वे हिंदी पत्रकारिता से क्यों जुड़ गये. बनारसी दास चतुर्वेदी नारायण दत्त जी के आदरणीय थे. उन्होंने उनके पत्रों पर एक पुस्तक भी प्रकाशित की थी.

नारायण दत्त जी मृदुभाषी थे. बहुत धीमे और स्नेह से बोलते थे. उन्हें महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ने तीन वर्ष पूर्व सर्वोच्च पुरस्कार दिया था. इसके बाद अगले वर्ष वे मुंबई आये थे. उनकी महानता और उदारता देखिये, वे फिर हमारे कार्यक्रम में बेंगलुरु से आये और पुरस्कार विजेताओं को बधाई दी. क ई अभिप्रायों में नारायण दत्त जी भारतीय ऋषि परंपरा का हिस्सा थे. लेकिन, यह ऋषि हमारे तो भाई साहब ही थे.

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