हम बे-आधार ही सही

अंशुमाली रस्तोगी व्यंग्यकार anshurstg@gmail.com मेरे कने आधार नहीं है! आंखें फाड़ चौंकिये नहीं. न मुंह पर हाथ रख खीसें निपोरिये. नहीं है तो नहीं है. कभी जरूरत ही नहीं पड़ी. इसीलिए बनवाया भी नहीं. मैं, दरअसल, कुछ भिन्न प्रकृति का बंदा हूं. उन बातों को मानने और उन चीजों को अपनाने से अक्सर ही बाज […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 4, 2018 6:30 AM
अंशुमाली रस्तोगी
व्यंग्यकार
anshurstg@gmail.com
मेरे कने आधार नहीं है! आंखें फाड़ चौंकिये नहीं. न मुंह पर हाथ रख खीसें निपोरिये. नहीं है तो नहीं है. कभी जरूरत ही नहीं पड़ी. इसीलिए बनवाया भी नहीं.
मैं, दरअसल, कुछ भिन्न प्रकृति का बंदा हूं. उन बातों को मानने और उन चीजों को अपनाने से अक्सर ही बाज आता हूं, जिसे दुनिया या समाज अपने जीवन का अभिन्न अंग मान लेता है. मसलन- मैं बिना मग्गे और बाल्टी की सहायता से ही नहाता हूं. चाय बिना छाने ही पीता हूं.
दफ्तर में बॉस की कभी नहीं सुनता-मानता. जब शेयर बाजार गिरावट के चरम पर होता है, तब ही मैं उसमें पैसा लगाता हूं. ट्रेन को तब तक नहीं पकड़ता, जब तक वह स्पीड में न आ जाये. घर, दफ्तर या दुकान से निकलते वक्त फोन कभी साथ नहीं लेता.
बस अपनी इन्हीं फक्कड़ किस्म की आदतों के चलते मैंने आधार बनवाने का झंझट मोल ही नहीं लिया. न आधार होगा. न कोई मुझसे मांगेगा. न मैं दूंगा.
जिंदगी इतनी भी आधार-मय नहीं होनी चाहिए कि आधार-विहीनता का सुख ही न ले सको. मेरे जैसे बे-आधार प्राणी को माननीय उच्च न्यायालय के आधार पर आये फैसले से बड़ी राहत मिली है. अब मैं सीना तानकर बैंक और मोबाइल वालों से कह सकता हूं कि अब मांगों मुझसे मेरा आधार नंबर. जब देखो तब ‘अपने खाते और सिम को आधार से लिंक करवायी’ के मैसेज दिमाग का तापमान बढ़ाते रहते थे. आखिर मेरी भी कुछ निजताएं हैं. एंवई क्यों किसी के भी सामने अपना सारा चिट्ठा खोलकर रखता रहूं.
और तो और, यह पूछ-पूछकर रिश्तेदारों, पड़ोसियों ने जीना दूभर कर रखा था- क्या आपने आधार कार्ड बनवा लिया? क्या आपने अपने आधार को फलां से लिंक करवा लिया? मुझे लगता था, अगर ऐसा ही चलता रहा तो किसी दिन सब्जी-दाल खरीदने के लिए भी आधार नंबर न बताना पड़ जाये!
कुछ भी कहिये, पर जमाना पहले का ही मस्त था. इंसान इस कदर बेफिकरा था कि उसे न डिजिटल होने की तमन्ना थी, न जेब को हर वक्त टटोलते रहने की. जो पास था, उसी में खुश. तब जीवन कितना सरल और तरल था न!
मगर पैन और आधार ने जीवन का हिस्सा बनकर निजता को ही खोलकर रख दिया. आप क्या खा रहे हैं, क्या पहन रहे हैं, कहां जा रहे हैं, कहां कितना खर्च कर रहे हैं, किसे क्या दे-ले रहे हैं, यानी हर बात आयकर विभाग को पता है.
सोशल मीडिया ने आकर तो रही-सही प्राइवेसी को भी झंड कर दिया. अब तो यही जीवन है महाराज!
अभी जो मेरा बचा-खुचा आधार है, सोच रहा हूं, उसे बे-आधार ही बना रहने दूं. जब कभी जरूरत पड़ी, तब देखा जायेगा कि आधार बनवाना है कि नहीं. तब तक क्यों न मैं बे-आधार जीवन का सुख भोगता रहा हूं. क्योंकि सुख ही अंतिम सत्य है.

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