अमेरिका के साथ आर्थिक रिश्ते

अमेरिका लोन लेकर जीवनयापन कर रहा है, तो चीन बचत करके लोन दे रहा है. अमेरिकी केंद्रीय बैंक द्वारा बेचे जानेवाले बांड का सबसे बड़ा खरीदार चीन है. इसलिए हमें अमेरिका और चीन की अलग-अलग ताकत को समझना होगा. अमेरिकी विदेश उपमंत्री निशा बिसवाल भारत के दौरे पर आने को हैं. उन्हीं दिनों चीन के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 10, 2014 1:01 AM

अमेरिका लोन लेकर जीवनयापन कर रहा है, तो चीन बचत करके लोन दे रहा है. अमेरिकी केंद्रीय बैंक द्वारा बेचे जानेवाले बांड का सबसे बड़ा खरीदार चीन है. इसलिए हमें अमेरिका और चीन की अलग-अलग ताकत को समझना होगा.

अमेरिकी विदेश उपमंत्री निशा बिसवाल भारत के दौरे पर आने को हैं. उन्हीं दिनों चीन के विदेश मंत्री भी भारत यात्र पर आ रहे हैं. अमेरिका और चीन भारत को अपनी तरफ खींचने का प्रयास कर रहे हैं. हम अमेरिका को साथी और चीन को विरोधी मानते आये हैं. विश्व की प्रमुख अर्थशक्ति होने के कारण हमारा झुकाव उस देश की ओर रहा है. दूसरी तरफ 1962 के युद्घ के बाद हम चीन को संदेह से देखते रहे हैं. इस दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करने की जरूरत है. कारण, अमेरिका के प्रमुख विश्व शक्ति बने रहने में संदेह हो रहा है. इसे ऐसे समझते हैं. मान लीजिए एक कंपनी घाटे में चल रही है. कर्मचारियों के वेतन ऊंचे हैं और कार्यकुशलता न्यून है. माल घटिया और महंगा तैयार होता है. घाटे के कारण कंपनी बड़ा लोन लेती है. इसका उपयोग दो तरह से हो सकता है. पहला, नयी हाइटेक मशीनों में निवेश किया जाये. इससे कंपनी अगले चक्र में मुनाफा कमायेगी और लिये गये लोन को भरने में भी कामयाब होगी. दूसरा, गोदाम में पड़े घटिया माल को डिस्काउंट पर बेच दिया जाये या प्राइम लोकेलिटी में नया ऑफिस लिया जाये. ऐसे में कंपनी अंदर से बदहाल होती जायेगी, क्योंकि ऊंचे वेतन व घटिया माल पूर्ववत् बनते रहेंगे. कुछ समय बाद लोन की रकम समाप्त हो जायेगी और कंपनी का दीवाला निकल जायेगा, जैसा किंगफिशर का हुआ.

2008 में अमेरिकी अर्थव्यवस्था की स्थिति घाटे में चल रही कंपनी जैसी थी. राष्ट्रपति ओबामा बार-बार कह रहे हैं कि भारत और चीन के सामने अमेरिकी युवा पिछड़ रहे हैं. कंपनियों ने अपने कारखाने चीन में स्थानांतरित कर दिये थे. सेवा क्षेत्र का भारत को स्थानांतरण चल रहा था. अमेरिकी नागरिकों के रोजगार और वेतन दबाव में आ गये थे और वे होम लोन की अदायगी नहीं कर सके. यही 2008 के संकट का मूल कारण था. संकट आने के बाद अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व बोर्ड ने स्टिमुलस जारी किया. भारी मात्र में नोट छाप कर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में फैला दिये गये. फलस्वरूप अमेरिकियों ने बड़ी मात्र में लोन लिये, जैसे घाटे में चल रही बड़ी कंपनी लोन लेती है.

नागरिकों द्वारा लोन का उपयोग मकान बनाने के लिये किया गया. मकान बनाने में रोजगार तथा सीमेंट सरिया की मांग बनी. इससे अर्थव्यवस्था में चौतरफा उत्साह बना. लेकिन यह घाटे में चल रही कंपनी के नये दफ्तर बनाने जैसा रहा. अमेरिकी सरकार घाटे में चल रही थी. इसलिए सरकार ने लोन की रकम का उपयोग बुनियादी संरचना या शोध कार्यो के लिए कम ही किया गया था. अधिकतर रकम का उपयोग सरकार के भारी भरकम ढांचे को जिंदा रखने के लिए किया गया था.

स्टिमुलस लोन के उपयोग का तीसरा रास्ता कॉरपोरेट जगत रहा. यहां एक हिस्से का सकारात्मक निवेश किया गया. कंपनियों द्वारा अमेरिका मे शून्य ब्याज दर पर लोन लेकर भारत जैसे विकासशील देशों में निवेश किया गया. इससे अमेरिकी कंपनियों ने अच्छा लाभ कमाया. यही अमेरिका के शेयर बाजार में आ रहे उछाल का रहस्य है. स्टिमुलस से मिले लोन का उपयोग मकान बनाने में, सरकारी खर्च को पोषित करने में और कंपनियों द्वारा निवेश में किया गया. इनमें से केवल कंपनियों द्वारा किया गया घरेलू निवेश ही उत्पादक है. इससे होनेवाली आय पर्याप्त हुई, तो अमेरिका की वर्तमान विकास दर टिकाऊ हो जायेगी. अन्यथा घाटे में चल रही कंपनी के आलीशान दफ्तर की तरह उसकी अर्थव्यवस्था टूट जायेगी और नया वैश्विक संकट पैदा हो जायेगा. वर्तमान में अमेरिका में बेरोजगारी घट रही है और उद्यमियों में उत्साह है. इस बात की पड़ताल नहीं की जाती है कि जो बेरोजगारी घटती दिख रही है, वह आलीशान ऑफिस बनाने के कारण है या हाइटेक मशीनों में निवेश के कारण है.

चीन की स्थिति बिल्कुल भिन्न है. अमेरिका लोन लेकर जीवनयापन कर रहा है, तो चीन बचत करके लोन दे रहा है. अमेरिकी केंद्रीय बैंक द्वारा बेचे जानेवाले बांड का सबसे बड़ा खरीदार चीन है. कम्युनिस्ट शासन के चार दशक में चीन तकनीकी दृष्टि से पिछड़ गया था. उद्यमिता का भी सफाया हो गया था. पिछले तीन दशक में चीन ने सीधे विदेशी निवेश को आकर्षित करके अपनी तकनीकी जमीन सुदृढ़ कर ली. जनता को व्यापार की छूट देकर उद्यमिता का भी पुनर्विकास किया है. अत: अब चीन का दूसरे देशों पर परावलंबन समाप्त हो गया है.

अमेरिका और चीन की अलग-अलग ताकत को हमें समझना होगा. अमेरिका की ताकत तकनीकी अविष्कार है, जबकि चीन की ताकत घरेलू बचत है. भारत में घरेलू अर्थव्यवस्था का वातावरण सुधर जाये, तो हमारा जो धन बाहर जा रहा है, वह देश में रह जायेगा. भारत और चीन को तकनीकों की जरूरत है. अत: हमें चीन के साथ याराना बना कर अमेरिका पर तकनीकों के हस्तांतरण का दबाव बनाना चाहिए. मसलन, इसमें डब्ल्यूटीओ से पेटेंट को हटाने का मुद्दा भी जोड़ा जा सकता है.

डॉ भरत झुनझुनवाला

अर्थशास्त्री

bharatjj@gmail.com

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