मोदी सरकार के सामने यक्ष प्रश्न
नरेंद्र मोदी ने कई बार कहा है कि चुनाव के समय की बातों को भुला कर समस्याओं के समाधान की कोशिश करनी है और देश का गौरव बढ़ाना है, पर उनके ऐसे सकारात्मक बयानों का असर शायद हिंदुत्ववादी संगठनों पर नहीं पड़ रहा है. संसद के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में दिये राष्ट्रपति प्रणब […]
नरेंद्र मोदी ने कई बार कहा है कि चुनाव के समय की बातों को भुला कर समस्याओं के समाधान की कोशिश करनी है और देश का गौरव बढ़ाना है, पर उनके ऐसे सकारात्मक बयानों का असर शायद हिंदुत्ववादी संगठनों पर नहीं पड़ रहा है.
संसद के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में दिये राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के अभिभाषण में नयी सरकार के संचालकों की पसंद के कुछ खास ‘राजनीतिक-सांस्कृतिक मुद्दे’ शामिल नहीं हैं. अभिभाषण में अनेक बड़े दावे और वायदे हैं, परंतु उनको अमलीजामा पहनाये जाने की रणनीति की व्याख्या नहीं है. हालांकि यह मानना होगा कि अभिभाषण संतुलित व लोगों में आशा जगानेवाला रहा.
लोकसभा चुनाव के बाद संसद में राष्ट्रपति का पहला अभिभाषण आमतौर पर केंद्र की नवगठित सरकार का महत्वपूर्ण नीतिगत वक्तव्य माना जाता है. लेकिन कोई जरूरी नहीं कि सरकार राष्ट्रपति के अभिभाषण में अपने हर उस मुद्दे या एजेंडे को शामिल करे, जो चुनाव के घोषणापत्र या उसके प्रचार-अभियान का अहम हिस्सा रहे हों. ऐसे में बहुमुखी विकास, रोजगार-सृजन, दक्षता-विस्तार और भ्रष्टाचार पर अंकुश और ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ जैसे नारों को अपने गवर्नेस का बुनियादी आधार बनाने का दावा करनेवाली मोदी सरकार से आम लोग, खासकर वे लोग जो विवादास्पद मुद्दों से असहमत रहे हैं, एक ठोस आश्वासन जरूर चाहेंगे. यानी सरकार भाजपा-संघ के उन विवादास्पद-वैचारिक-सांप्रदायिक मुद्दों को शासकीय कामकाज से परे रखेगी, जो वस्तुत: हमारे जैसे राष्ट्र-राज्य को बांटने, ध्रुवीकृत और लहूलुहान करनेवाले रहे हैं. यह तीन मुद्दे हैं- मंदिर-मसजिद विवाद में एकतरफा फैसला लेना, समान नागरिक संहिता और अनुच्छेद-370 को खत्म करना.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने नजीर भी है. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने संघ-प्रेरित इन तीनों विवादास्पद मुद्दों को अपनी सरकार के एजेंडे में शामिल नहीं किया था. पार्टी के एजेंडे में वे बने रहे. इसका मतलब यह नहीं कि उनकी सरकार कोई आदर्श सरकार थी. नयी सरकार और नये नेतृत्ववाली भाजपा की तरफ से कोई भी यह दलील दे सकता है कि तब (वाजपेयी) और अब (मोदी) में एक बड़ा फर्क है.
वाजपेयी की सरकार बहुमत-प्राप्त भाजपा सरकार नहीं थी. वह गैर-भगवा धारा के कई दलों-संगठनों के समर्थन पर निर्भर थी, लेकिन नरेंद्र मोदी की सरकार बहुमत के लिए किसी अन्य दल के समर्थन पर निर्भर नहीं है. ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनके गृह मंत्री व भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत किसी अन्य दल की परवाह किये बगैर इन तीन विवादास्पद संघ-प्रेरित मुद्दों को सरकार के गवर्नेस का एजेंडा बनाने की बात सोच सकते हैं. वे यह भी दावा कर सकते हैं कि देश की जनता का जनादेश उनके पास है. ऐसे में किसी के विरोध या असहमति का क्या मतलब है? लेकिन मोदी, सिंह, भागवत या उनके समर्थकों को ऐसी गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि देश की जनता ने उन्हें विवादास्पद और कट्टरपंथी मुद्दों को अमलीजामा पहनाने का जनादेश दिया है. वस्तुत: जनता ने यह जनादेश महंगाई और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने, रोजगार और विकास का ज्यादा सुसंगत रास्ता तैयार करने के लिए दिया है. जनादेश का यह पहला पहलू है. दूसरा पहलू है- यह कांग्रेस-नीत यूपीए-2 के खिलाफ जनता के राष्ट्रव्यापी आक्रोश की अभिव्यक्ति भी है. केंद्र सरकार और भाजपा के नेतृत्व को जनादेश के इन दो खास पहलुओं को हमेशा याद रखना चाहिए. कोई भी गलतफहमी भाजपा और उसकी अगुवाई वाली सरकार के लिए मुश्किलों का रास्ता तैयार करेगी. ज्याद वक्त नहीं बीता, देश ने इससे भी ज्यादा प्रचंड बहुमत से आयी सरकारों का हश्र देखा है. 1984 के संसदीय चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को लोकसभा में 414 सीटें मिली थीं. पर उस प्रचंड बहुमत का क्या हुआ? गलत नीतियों पर अंदरूनी विरोध और बाहर उठे विद्रोह की आंधी में राजीव गांधी की कांग्रेस की कमर ही टूट गयी.
कुछेक घटनाक्रमों को लेकर नरेंद्र मोदी की नयी सरकार को कोसना फिलहाल बेवक्त आलोचना होगी. लेकिन प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी को सतर्क जरूर रहना चाहिए. हाल के कुछेक घटनाक्रम से अच्छे संकेत नहीं मिल रहे हैं. सबसे पहले, सरकार-गठन के कुछ ही घंटे बाद प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) से संबद्ध केंद्रीय राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने जिस तरह संविधान के अनुच्छेद-370 (के खात्मे की जरूरत) पर बहस छेड़ने की कोशिश की, वह गैरजरूरी था. उसके कुछ ही घंटे बाद भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी और संघ के प्रवक्ता राम माधव सहित संघ से संबद्ध कई नेताओं ने जितेंद्र सिंह के बयान को सही ठहराया. भाजपा के कुछ नेताओं ने यहां तक कहा कि जितेंद्र सिंह ने वही कहा, जो पार्टी ने अपने चुनाव-घोषणापत्र में कहा है. मतलब यह कि अनुच्छेद-370 के खात्मे की जरूरत पर बहस चलाने के लिए जनता से जनादेश मिल चुका है! जनादेश को इस तरह व्याख्यायित करने से बड़े खतरे का संकेत मिलता है. भाजपा के भगवा-दर्शन के कुछ नये पैरोकारों ने इस बीच समान नागरिक संहिता (कॉमन सिविल कोड) के लिए भी अभियान चलाना शुरू कर दिया है.
पिछले कुछ दिनों से विचार, प्रचार और समाचार के स्तर पर जो चीजें सामने आयी हैं, उनमें कुछ आशाजनक भी हैं. मसलन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार कहा है कि चुनाव के समय की बातों-विवादों, आरोपों-प्रत्यारोपों को भुला कर मिल-जुल कर समस्याओं के समाधान की कोशिश करनी है और देश का गौरव बढ़ाना है. लेकिन उनके इस तरह के बेहद सकारात्मक बयानों का असर शायद हिंदुत्ववादी संगठनों पर नहीं पड़ रहा है. अगर ऐसा होता तो 2 जून की रात महाराष्ट्र के पुणो में जो कुछ हुआ, वह नहीं हुआ होता. उस रात मोहिसिन सादिक शेख नामक एक 27 वर्षीय निदरेष नौजवान की हिंदू सेना के सिरफिरों ने हत्या कर दी. महाराष्ट्र सरकार भले इस हादसे को कानून-व्यवस्था से जुड़ा एक मामला बता रही हो, पर सच ज्यादा खौफनाक है. महाराष्ट्र में कुछ ही महीने बाद विधानसभा चुनाव होने हैं. पुणो की घटना कहीं यूपी के मुजफ्फरनगर के नक्शेकदम पर किसी बड़े षड्यंत्र का रिहर्सल तो नहीं?
ध्रुवीकरण की राजनीति के नतीजे किसी एक दल के लिए कुछ समय के लिए मीठे लग सकते हैं, लेकिन देश व समाज के लिए बेहद जहरीले होते हैं. दुनिया के इतिहास में इसके असंख्य दृष्टांत मिल जायेंगे. तीन विवादास्पद मुद्दे भी सांप्रदायिक-ध्रुवीकरण की राजनीति का हिस्सा हैं. अतीत से सबक लेते हुए 2014 में क्या नरेंद्र मोदी इन तीन खास मुद्दों से हमेशा के लिए अलग होने के लिए अपनी पार्टी को राजी करा पायेंगे? मोदी सरकार के समक्ष सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यही है.
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
urmilesh218@gmail.com