पाखंड से इतर लोक का विचार

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया anujlugun@cub.ac.in इस माह में मगध अंचल में मनाया जानेवाला एक त्योहार है ‘जिउतिया’. इस अंचल के दाउदनगर का जिउतिया सबसे ज्यादा लोकप्रिय है. वहां इस अवसर पर लगभग सप्ताह भर से स्वांग, नकल, अभिनय और झांकियां प्रस्तुत की जाती हैं. लोक कलाकार हैरतअंगेज करतब दिखाते […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 5, 2018 7:43 AM
डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
anujlugun@cub.ac.in
इस माह में मगध अंचल में मनाया जानेवाला एक त्योहार है ‘जिउतिया’. इस अंचल के दाउदनगर का जिउतिया सबसे ज्यादा लोकप्रिय है. वहां इस अवसर पर लगभग सप्ताह भर से स्वांग, नकल, अभिनय और झांकियां प्रस्तुत की जाती हैं. लोक कलाकार हैरतअंगेज करतब दिखाते हैं. आमतौर पर हिंदी पट्टी में स्त्रियों की सार्वजनिक भागीदारी बहुत कम दिखती है. यहां तक कि प्रगतिशील संगठनों के कार्यक्रमों में भी. यह हिंदी पट्टी का सामंती और पितृसत्तात्मक लक्षण है. लेकिन, दाउदनगर के जिउतिया त्योहार में स्त्रियों की बराबर की उपस्थिति ने इस पर पुनः विचार करने को विवश किया है. त्योहार के कार्यक्रम की व्यवस्था आपसी सहयोग-सद्भाव के साथ सभी स्थानीय समुदायों के लोग मिल-जुलकर करते हैं.
लगभग डेढ़ सौ वर्षों से चले आ रहे, कई दिनों तक रातभर चलनेवाले कार्यक्रम में लाल देवता और काला देवता नामक प्रहरी के जिम्मे सुरक्षा का भार होता है और दोनों उसी भेष में घूम-घूम निगरानी करते हैं. ये प्रतीक पुलिस-प्रशासन की बजाय स्थानीय समुदाय की शांतिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण व्यवस्था के हैं. यह सामुदायिक भागीदारी के द्वारा सुरक्षा का उदाहरण है. पुरोहितवाद और कर्मकांड के पाखंड से इतर यह त्योहार अपने अंदर लोक जीवन और कलाओं का समागम तो है ही, यह अपनी भंगिमाओं में लोक का वैचारिक प्रतिनिधि भी है. इस तरह के त्योहार फिर से लोक और शास्त्र की मान्यताओं पर विचार करने के लिए विवश करते हैं.
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का मानना रहा है कि संस्कृति और साहित्य के अंदर जो द्वंद्व दिखायी देता है, वह मूलतः लोक और शास्त्र का द्वंद्व होता है. लोक श्रमिक समाज की दुनिया है, जबकि शास्त्र पोथियों की दुनिया है. जब भक्ति आंदोलन के उदय को इस्लाम के आगमन के कारण के रूप में देखा जा रहा था, तब भी द्विवेदी जी ने उससे असहमत होते हुए इसे लोक के स्वाभाविक चिंतनधारा के विकास के रूप में देखा. उन्होंने कहा कि लोक चिंता और शास्त्र चिंता के बीच हमेशा टकराव चलता रहता है.
उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि एक समय में ब्राह्मण धर्म को अवर्ण धर्म ने पराजित किया. यह लोक का पक्ष था. आगे चलकर लोक का नया दर्शन ही बना- तंत्र. यह साधनामूलक था, जिसने शूद्र और वंचितों को अधिक स्वतंत्रता दिया और उसकी मान्यताओं ने शास्त्र को चुनौती दी. भक्ति आंदोलन ने तो कबीर, रैदास, दादू, नानक, मीरा, जायसी आदि के नेतृत्व में लोक की ही पक्षधरता में अपना चिंतन प्रस्तुत किया और ब्राह्मणवादी-मौलवीवादी पुरोहिताई के नेतृत्व वाले शास्त्र का खंडन किया. यहां तक कि पुरानी मान्यताओं को माननेवाले तुलसीदास को भी लोक की जमीन पर उतरना पड़ा.
लोक अपने तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद सहज और लचीला होता है. वह समन्वय की ताकत रखता है, जबकि शास्त्र ‘श्रेष्ठता बोध’ और ‘चयन’ के विचार से चालित होता है. वह अपने ढांचे के अनुकूल ‘करेक्शन’ करता है, अनुशासन गढ़ता है और संस्थाओं के माध्यम से अपना ‘वर्चस्व’ कायम करता है.
इन्हीं अर्थों में लोक का विचार बहुलतावादी है, और शास्त्र वर्चस्वकारी. शास्त्र विचार को एक रंग और एकरूपता देने की कोशिश करता है. बहुलता उसके लिए चुनौती है. इसलिए देखा गया है कि शास्त्र-सम्मत धर्म अपना दूसरा कोई प्रतिरूप नहीं चाहते हैं. शास्त्र के पंडित और पुरोहित अपना वर्चस्व बनाते हैं. वे नहीं चाहते कि उनकी सत्ता उनके हाथ से छूटे. शुरू के दिनों में बाइबिल का लैटिन के सिवाय दूसरी भाषा में होना वैसा ही अनुचित माना जाता था, जैसे भारत में संस्कृत ही शास्त्र की भाषा हो सकती थी. कुरान के साथ भी ऐसा ही रहा है.
दुनियाभर में अलग-अलग रूपों में सैकड़ों राम कथाएं हैं. लोक समाज उन्हें अपने-अपने ढंग से मानता है, लेकिन शास्त्रवादी पंडित रामकथाओं की बहुलता को नहीं स्वीकारते. यह बहुलता उनके वर्चस्व के लिए चुनौती पैदा करती है. शास्त्रीयता के विपरीत लोक समाज बहुलता को रचता है. यह उसका लोकतांत्रिक पक्ष है. मगही, भोजपुरी भाषा में अत्यंत प्रसिद्ध लोकगाथा ‘लोरिकायन’ के बारे में कहा जाता है कि ‘सात कांड रामायन, अनगिनत कांड लोरिकायन’. यह उसकी बहुलता का सूचक है. इस बहुलता के बिना लोक की रचनात्मकता संभव नहीं है.
लोक और शास्त्र के टकराव और दोनों के आपसी लेन-देन को समझे बिना संस्कृतियों का अध्ययन नहीं किया जा सकता है. भारतीय लोक की बहुलता को समझने की कोशिश होनी चाहिए. स्वाधीनता संघर्ष के दौरान और उसके कुछ समय बाद हुए कुछ प्रयासों को छोड़कर हमारा अध्ययन लोक की दिशा में नहीं हुआ. हम कथित आधुनिकता के दबाव में औपनिवेशिक मानसिकता के नियंत्रण में रहे और मध्यवर्गीय आकांक्षाओं में उलझकर लोक को उपेक्षित करते रहे.
इसलिए देवेंद्र सत्यार्थी जैसे महान लोक अध्येताओं के द्वारा प्रस्तावित लोक संस्कृतियों के जरिये भारतीय बहुलता को समझने की दिशा में हम अग्रसर नहीं हुए. लोक का स्वभाव ही है सामूहिकता और सहभागिता. बिना इसके न तो सामाजिकता संभव है और न ही सामाजिक सुरक्षा. लोक अपने समय की सत्ता के विरुद्ध प्रतिरोध भी गढ़ता है. यह प्रतिरोध समाज के वंचित-उत्पीड़ित समुदायों की कथाओं, गाथाओं और गीतों में सहज ही देखा जा सकता है.
पूंजीवादी युग में शास्त्र पूंजी के साथ गठजोड़ भी करता है. इस तरह लोक पर केवल शास्त्र का हस्तक्षेप नहीं होता, बल्कि पूंजी भी उस पर हमला करती है.
आज की वैश्विक दुनिया के दबाव में लोक की पक्षधरता जरूरी है. वैश्वीकरण वाली वैश्विक दुनिया अपने लिए श्रम की जरूरतों को लोक समाज से ही पूरा करती है. वह लोक समाज के स्वभाव को विकृत कर उसके अंदर से असंतुलित श्रमिकों को पैदा करती है, ताकि उसके लिए सस्ता श्रम उपलब्ध हो. लोक के स्वभाव का विघटन सामाजिक सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करता है.
देश में जिउतिया की तरह अनगिनत लोक त्योहार मनाये जाते हैं. आदिवासी लोक तो विलक्षण लोक है. इन त्योहारों में ही हम असल भारतीयता को देख सकते हैं.
इनमें आंतरिक अंतर्विरोध जरूर होंगे, लेकिन यहां आपसी सद्भाव है. यह श्रमिक समुदायों का उत्सव है. ऐसे दौर में जब हम सांप्रदायिकता के चंगुल में फंसते जा रहे हैं, लोक के उत्सव, राग और संघर्ष से जुड़कर, उससे बहस और संवाद करते हुए ही हम नये जनवादी समाज का निर्माण कर सकते हैं.

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