पाक को अपनी जनता की फिक्र नहीं

।। प्रो कमर आगा।। (अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार) पाकिस्तान में बीते तीन दिनों में हुई आतंकी घटनाओं (रविवार को कराची एयरपोर्ट पर हमले में आतंकियों सहित करीब ढाई दर्जन लोग मारे गये, इसी दिन बलूचिस्तान में आतंकियों ने ईरान से आये करीब दो दर्जन शिया दर्शनार्थियों को मार डाला, मंगलवार को कराची एयरपोर्ट के बाहर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 11, 2014 5:10 AM

।। प्रो कमर आगा।।

(अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार)

पाकिस्तान में बीते तीन दिनों में हुई आतंकी घटनाओं (रविवार को कराची एयरपोर्ट पर हमले में आतंकियों सहित करीब ढाई दर्जन लोग मारे गये, इसी दिन बलूचिस्तान में आतंकियों ने ईरान से आये करीब दो दर्जन शिया दर्शनार्थियों को मार डाला, मंगलवार को कराची एयरपोर्ट के बाहर सुरक्षा कर्मियों के कैंप पर फिर हमला हुआ) से यह अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है कि पाकिस्तान की आंतरिक हालत स्थिर नहीं है. ऐसी छोटी-बड़ी घटनाएं वहां हर महीने हो रही हैं. पाकिस्तान और अफगानिस्तान में तो तालिबानी हमले आम बात हो गयी लगती है. ऐसा क्यों हो रहा है, इसे समझना बहुत जरूरी है.

दरअसल, तालिबान कोई एक संस्था या संगठन नहीं है, बल्कि यह कई छोटे-बड़े आतंकी संगठनों का एक बड़ा समूह है. तमाम छोटे-बड़े ट्राइबल्स में बंटे होने के बावजूद एक समूह की शक्ल में संगठित हुए इस तालिबान की विचारधारा एक है. इनके पास हथियारों की अधिकता है, पैसों की बहुतायत है और लोगों की एक बड़ी संख्या इनके साथ है. यह सब हासिल करने के लिए उनके पास बहुत से तरीके भी हैं. कभी ये धर्म के नाम पर बरगलाते हैं, तो कभी हथियारों का डर दिखा कर लोगों को धमकाते हैं. यही नहीं, तालिबानियों को खुद पाकिस्तानी सेना ही हथियार मुहैया कराती है और ट्रेनिंग भी देती है. अक्सर वे फिरौती भी लेते हैं, जिससे उनके पास पैसों का भंडारण होता रहता है. ये सारी चीजें ऐसी हैं, जो किसी भी सूरत में अमन व शांति को जन्म नहीं दे सकतीं, इनसे आतंक ही पैदा हो सकता है, जो वहां लगातार नजर आ रहा है.

पाकिस्तान के जो मौजूदा हालात हैं, उससे सबसे ज्यादा खतरा उसके लोकतंत्र को है. हमेशा यही डर लगा रहता है कि पता नहीं कब यह राष्ट्र अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था को तितर-बितर होते हुए देख ले. अरसे से यह देखा जा रहा है कि जब भी वहां लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ कोई गतिविधि नजर आती है, तो वहां की सेना हावी होना शुरू कर देती है. ऐसी घटनाओं के पहले अकसर पाकिस्तान की आंतरिक स्थिति खराब हो जाती है- जैसे महंगाई बढ़ना, भ्रष्टाचार का बढ़ना, अनियंत्रित प्रशासनिक व्यवस्था और सरकारों का ढुलमुल रवैया आदि. मैं अभी यह नहीं कह रहा हूं कि वहां लोकतंत्र बिखरने जा रहा है, लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि उस पर खतरा मंडरा रहा है.

पाकिस्तान की सरकार कोई ‘वेलफेयर स्टेट’ नहीं है और न ही उसे अपनी जनता की फिक्र है. दरअसल, वहां दो शक्ति केंद्र हैं- एक मुल्ले-मौलवियों का और दूसरा सेना का. सेना जब भी कोई बात रखती है, मौलवी उसे जस्टिफाई करते हैं. मौलवी कहते हैं कि लोकतंत्र इसलाम की मूल भावना के खिलाफ है और यहां सख्त मिलिट्री शासन होना चाहिए. सेना भी मौलवियों के समर्थन में उतर आती है. एक-दूसरे की मिलीभगत से सेना और मौलवी दोनों गाहे-ब-गाहे लोकतंत्र की नाक में दम करते रहते हैं. वहां की आम जनता को समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर वे क्या करें, क्योंकि जनता मौलवियों की बातों को भी नहीं काट सकती और उसे सत्ता के आदेशों का भी पालन करना है. पाकिस्तान की बेचारी जनता सत्ता-सेना-धर्म के बीच इधर-उधर झूलती हुई दिग्भ्रमित रहती है. जबकि यह सच्चई सामने है कि दुनिया का कोई भी लोकतंत्र सेना और धर्म के दखल के साथ जिंदा ही नहीं रह सकता.

कोई भी आतंकी संगठन किसी सरकार के नियंत्रण में कभी नहीं रह सकता. लेकिन, चूंकि पाकिस्तान सरकार में सेना का दखल है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि कहीं-न-कहीं तालिबान पर सेना का नियंत्रण हो सकता है, क्योंकि ट्रेनिंग और हथियार तो वही मुहैया कराती है. दूसरी चीज यह कि अफगानिस्तान से नाटो सेनाओं की वापसी हो रही है. वहां तालिबान की सक्रियता ज्यादा रही है. ऐसे में मुमकिन है कि अफगानी तालिबान और पाकिस्तानी तालिबान का आपस में कोई कनेक्शन हो. हमेशा यही देखा गया है कि जब भी पड़ोसी अफगानिस्तान में कोई बड़ा काम होता है- जैसे नाटो की वापसी, भारत का मजबूत विकासात्मक दखल- तो पाकिस्तान की सेना सत्ता को अपने हाथ में लेने की कोशिश करती है, ताकि वह अपनी मनमानी कर सके. पाकिस्तान की सेना का इस वक्त मुख्य मकसद है कि किसी भी सूरत में अफगानिस्तान में स्थिरता न आने पाये. वहां एक ऐसी हुकूमत बने, जिस पर पाकिस्तान का नियंत्रण हो और अफगान की स्थिरता में भारत की कोई बड़ी भूमिका न हो. दूसरी बात यह है कि पाकिस्तान के पास न तो इतना पैसा है और न टेक्नोलॉजी है, कि वह किसी पर नियंत्रण रख सके. इसलिए वह धर्म को अपना हथियार बनाता है, जिसके तहत वह तालिबान का इस्तेमाल करता है. इसीलिए नाटो सेनाओं की वापसी के साथ अफगानिस्तान और पाकिस्तान, दोनों जगहों पर आतंकी घटनाएं बढ़ने लगी हैं.

पैसों की तंगी के कारण पाकिस्तान की यह कोशिश हो सकती है कि वह अफगानिस्तान पर दखल रखते हुए सेंट्रल एशिया तक अपनी पहुंच बढ़ाये, जहां तेल के बड़े भंडार हैं. इसके लिए अफगानिस्तान ही एक ऐसी जगह है, जहां से सेंट्रल एशिया तक पहुंचने के लिए बेहतर और सुरक्षित रास्ता बन सकता है. साथ ही अफगानिस्तान में तेल, गैस, आयरन, कॉपर के अपने भंडार तो मौजूद हैं ही, उसका भी फायदा उठाने के लिए पाकिस्तान वहां मजबूत दखल रखना चाहेगा.

इस बीच खबर यह भी आयी है कि रूस अब भारत की चिंताओं को दरकिनार कर पाकिस्तान को हथियार दे रहा है. लेकिन, सच्चई यह है कि पाकिस्तान के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह रूस से हथियारों का कोई बड़ा सौदा कर सके. रूस पाकिस्तान को हथियार देने की बात करता तो है, लेकिन सप्लाई नहीं करता है. चूंकि रूस यह चाहता है कि वह भारत के लिए नंबर एक सप्लायर बना रहे, इसलिए बारगेनिंग के लिए पाकिस्तान को हथियार देने की बात कह देता है, मगर देता नहीं है.

पाकिस्तान या अफगानिस्तान में आतंकी घटनाएं भारत के लिए बड़ी चिंता की बात है. भारत चाहता है कि आतंकी संगठन खत्म हों, लेकिन पाकिस्तानी सेना इन संगठनों का हमेशा इस्तेमाल करती रही है. कभी वह अफगानिस्तान में मुजाहिदीन की शक्ल में इस्तेमाल करती है, तो कभी कश्मीर को लेने के लिए किसी और शक्ल में. और अब तालिबान का इस्तेमाल कर रही है. अब तक अमेरिका कराची के रास्ते अफगानिस्तान में चीजों की सप्लाई करता रहा है, इसलिए वह थोड़ा चुप था. लेकिन अब, नाटो के चले जाने के बाद उम्मीद है कि वह पाकिस्तान पर कुछ सख्ती अपनाये और संयुक्त राष्ट्र भी इस पर कोई ठोस कदम उठाये, ताकि पाकिस्तान और अफगानिस्तान को तालिबान के चंगुल से बचा कर आतंकी घटनाओं पर लगाम लगायी जा सके.

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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