जेपी : सतत नवजागरण के प्रवर्तक
वेंकैया नायडू उपराष्ट्रपति delhi@prabhatkhabar.in आदर्श पुरुषों की जन्म-जयंती वर्तमान राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में उनके आदर्शों की प्रासंगिकता सुनिश्चित करने का अवसर होती है. समाज वर्तमान संदर्भों में उनका आकलन कर उनके प्रति संकल्पबद्ध होता है. आज लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) की जयंती पर राष्ट्र उनके द्वारा स्थापित आदर्शों को पुनर्स्थापित करने का संकल्प ले. […]
वेंकैया नायडू
उपराष्ट्रपति
delhi@prabhatkhabar.in
आदर्श पुरुषों की जन्म-जयंती वर्तमान राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में उनके आदर्शों की प्रासंगिकता सुनिश्चित करने का अवसर होती है. समाज वर्तमान संदर्भों में उनका आकलन कर उनके प्रति संकल्पबद्ध होता है. आज लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) की जयंती पर राष्ट्र उनके द्वारा स्थापित आदर्शों को पुनर्स्थापित करने का संकल्प ले.
वर्तमान बिहार के सारण जिले के सिताबदियारा गांव में 11 अक्तूबर, 1902 को जन्मे जेपी के प्रारंभिक राजनीतिक संस्कार, राजेंद्र बाबू द्वारा गांधीवादी विचारधारा पर स्थापित बिहार विद्यापीठ में पड़े. अमेरिका में अध्ययन के दौरान, महंगी फीस जुटाने के लिए उन्हें बर्तन मांजने और बूचड़खाने में काम भी करने पड़े.
इससे उनमें कामगार वर्ग के प्रति नैसर्गिक आत्मीयभाव उत्पन्न हुआ. अमेरिका में अध्ययन के दौरान ही उनमें साम्यवादी संस्कार दृढ़ हुए. वर्ष 1917 की रूसी क्रांति की सफलता ने उन्हें विश्वास दिलाया कि भारत जैसी औपनिवेशिक व्यवस्था में पिसते कामगारों और किसानों का त्राण साम्यवाद में ही है.
भारत आकर वे स्वाधीनता आंदोलन में शामिल हो गये. साल 1932 में नासिक जेल में उनकी मुलाकात लोहियाजी, मीनू मसानी, अशोक मेहता, अच्युत पटवर्धन जैसे नेताओं से हुई.
जेल से छूटने के बाद जेपी ने इन साथियों के साथ कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनायी. यह गांधीजी के सामाजिक-राजनीतिक दर्शन को समाजवादी धारा से जोड़ने का प्रयास था. ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के दौरान जब गांधीजी के साथ सभी वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जेल में बंद कर दिये गये थे, तब आंदोलन का नेतृत्व जेपी जैसे युवा आदर्शवादी आंदोलनकारियों के हाथ में रहा.
जेपी जीवनपर्यंत युवा शक्ति के आदर्श रहे. वे युवाओं में ही भविष्य की संभावनाएं देखते थे. साल 1946 में जेल से छूटने के बाद, पटना के गांधी मैदान में रामधारी सिंह दिनकर ने इनकी प्रशस्ति में जो कविता लिखी, वह 1974 की संपूर्ण क्रांति तक गूंजती रही- है ‘जय प्रकाश’ वह, जो कि पंगु का चरण, मूक की भाषा है/ है ‘जय प्रकाश’ वह, टिकी हुई जिस पर स्वदेश की आशा है… दिनकरजी की ये पंक्तियां भारत की ओजस्वी तरुणाई को इंगित कर रही थीं. साल 1974 में उसी गांधी मैदान से जब संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया गया, तब लाखों आंदोलनकारियों के सामने उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणुजी ने स्वयं इन पंक्तियों को दोहराया था.
जेपी आजीवन राजनीतिक संत रहे. उनकी राजनीतिक चेतना सदैव सजग रही. उन्होंने कहा था, ‘मेरी रुचि सत्ता के कब्जे में नहीं, बल्कि लोगों द्वारा सत्ता के नियंत्रण में है.’
उनके लिए राजनीति सामाजिक बदलाव का माध्यम थी. वे लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता की सतत-सजग भागीदारी के हिमायती रहे. वे चुनावी या पदीय राजनीति से अलग रहे, परंतु उनके राजनीतिक सरोकार सदैव बने रहे- चाहे वह विनोबा का भूदान आंदोलन हो, 1974 में गुजरात का नवनिर्माण आंदोलन हो या फिर संपूर्ण क्रांति.
साल 1965 में जनसेवा के लिए जेपी को मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उनका मानना था कि ‘अगर आप सचमुच स्वतंत्रता, स्वाधीनता की परवाह करते हैं, तो बिना राजनीति के कोई लोकतंत्र या उदार संस्था नहीं हो सकती.’ जेपी का यह वक्तव्य राजनीति में सतत और सक्रिय जनभागीदारी का आह्वान है.
जनभागीदारी राजनीतिक शुचिता की आवश्यक शर्त है. यदि राजनीति को भ्रष्टाचार, जातिवाद, धनबल, अपराध से मुक्त करना है, तो समाज की, विशेषकर युवाओं की अधिकाधिक सक्रिय भागीदारी आवश्यक है. लोकतंत्र का अर्थ मात्र चुनाव नहीं, बल्कि जनभागीदारी है.
जेपी की संपूर्ण क्रांति घमंडी सत्ताधारी नेतृत्व के विरुद्ध विद्रोह ही नहीं था, बल्कि जनजागरण की क्रांति थी. पटना के गांधी मैदान में लाखों लोगों ने जातिवाद और दहेज जैसी सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध अहिंसक आंदोलन खड़ा किया.
गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन के दौरान बेरोजगार युवाओं-विद्यार्थियों ने मंहगाई, बेरोजगारी और शिक्षा प्रणाली पर प्रश्न उठाये. संपूर्ण क्रांति के दौरान देश के सत्ताधारी वर्ग में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध युवाओं ने मुखर आवाज उठायी.
यथास्थितिवादी राजनीति में निहित स्वार्थों ने नौजवानों की आवाज को कुचलने के लिए आपातकाल लगाया. भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में यह घोर अंधकार का समय था. मुझे स्वयं जेपी के नेतृत्व में इस आंदोलन में भाग लेने का सौभाग्य मिला. छात्र नेता के रूप में मैंने उन्हें विशाखापट्टनम में छात्रों को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया था.
उस भाषण में गजब का सम्मोहन था. मैंने अपना सर्वस्व राजनीति के लिए त्याग दिया. जेपी को आमंत्रित करने के ‘अपराध’ में मुझे जेल हुई. जेल में कटी उस अवधि में जीवनभर के लिए जो राजनीतिक शिक्षा और संस्कार पड़े, वे मेरे लिए अब भी सार्थक हैं. इस प्रेरणा के लिए मैं जेपीजी का ऋणी रहूंगा.
जेपी अपना मत बेबाकी से रखते थे. जेपी के आंदोलन में बाद में शामिल हुए लोगों ने जब आरएसएस के भी सम्मिलित होने पर प्रश्न उठाये, तब उन्होंने कहा ‘यदि आरएसएस फासिस्ट है, तो फिर मैं भी हूं.’
आज राजनीति में बढ़ती विघटनकारी सांप्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद को देखकर जेपी की आशंकाएं सही प्रतीत होती हैं. जिस जातिवाद के विरुद्ध उन्होंने संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया था, वही आज संपूर्ण क्रांति के उद्देश्यों और आदर्शों के विरुद्ध एक नयी प्रतिक्रांति को जन्म दे रहा है.
सांप्रदायिक, जातीय, क्षेत्रीय प्रवृत्तियों पर आधारित एक नया विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग खड़ा हो रहा है. विघटन के इस दौर में जेपी की स्मृति में, उनके आदर्शों से प्रेरणा लेकर एक बार पुन: राष्ट्र की लोकतांत्रिक चेतना को जागृत करने का अवसर है.
जेपी सदैव नवजागरण के प्रवर्तक रहे. वे सदैव युवाओं के नेता रहे. यह आवश्यक है कि देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक व्यवस्थाएं विकास को लेकर इन युवाओं की अपेक्षाओं को प्रतिबिंबित करें. यह ‘संपूर्ण विकास क्रांति’ का दौर है. आज युवाओं की अपेक्षा एक नये भारत की है. वे ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत, समर्थ भारत’ का स्वप्न लेकर जीते हैं.
सरकार निमित्त मात्र है, देश और समाज का उत्थान तो देश के नवदधीचियों के पुरुषार्थ से ही संभव है. यद्यपि जेपी आजन्म सत्ता केंद्रों के विरुद्ध जनचेतना के प्रवर्तक रहे, तथापि उनके देहांत के बाद अटलजी के नेतृत्व में 1999 में उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया. एक चिरक्रांतिकारी को यह राष्ट्र की विनम्र श्रद्धांजलि थी.