पानी, बिजली, सड़क किसी भी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं. किसी भी व्यवस्था में इन्हें लेकर अगंभीरता से विकास के प्रति उसके रुख को समझा जा सकता है. रुग्ण औद्योगिक माहौल और अराजकता की ओर बढ़ रहा झारखंड फिलहाल घोर बिजली संकट से दोचार हो रहा है. बिजली के लिए राज्य भर में उभर रहा असंतोष सड़कों पर जनाक्रोश का रूप ले रहा है.
इसके बावजूद राज्य सरकार का रुख बिजली को लेकर बहुत गंभीर नहीं दिखता. 4500 मेगावाट बिजली की जरूरत वाले इस प्रदेश को सिर्फ 850 मेगावाट की आपूर्ति हो रही है. ऐसे में स्थिति की गंभीरता की कल्पना ही की जा सकती है. बिजली खरीद के लिए, डीवीसी को प्रति माह 130 करोड़ रुपये दिये जा रहे हैं. टीवीएनएल को 1500 करोड़ का भुगतान करना है, जबकि निजी कंपनी से खरीदी जा रही बिजली के एवज में भुगतान नहीं हो रहा है.
हालांकि बोर्ड का गठन कर फिलहाल जेएसइबी के विखंडन से उपजे संकट का निस्तार मिल गया. बोर्ड के गठन से लैप्स होनेवाली 5710 करोड़ की रकम बच तो सकती है, पर यह बिजली संकट का निदान नहीं. यही नहीं, प्रदेश के ऊर्जा मंत्री का कबूलनामा है कि मार्च से न तो बिजली के उपकरण खरीदे जा सके हैं और न ही ठेकेदारों को काम के एवज में भुगतान हो पाया है. राज्य में कहीं ट्रांसफॉर्मर जल जाये तो इसे बदलने के लिए स्टॉक में एक भी ट्रांसफॉर्मर नहीं है. ऐसे में किस बिना पर बिजली व्यवस्था को दुरुस्त करने का दावा किया जा सकता है.
छोटा सा राज्य हिमाचल प्रदेश है, जिसके पास 700 मेगावाट फाजिल बिजली है, पर वह घोर बिजली संकट ङोल रहे उत्तर प्रदेश को बिजली नहीं देने पर अड़ा है तो सिर्फ इसलिए कि उसके पास दो सौ करोड़ रुपये का बकाया है. झारखंड सरकार का दावा है कि राज्य में कोडरमा- 1000 मेगावाट, चंद्रपुरा- 500 मेगावाट, टोरी- 600 मेगावाट, तिलैया- 600 मेगावाट, मैथन- 1025 मेगावाट की लंबित परियोजनाएं पूरी हो गयीं तो राज्य बिजली के लिए किसी पर मोहताज नहीं रहेगा. इनमें से अधिकतर संयुक्त या निजी उपक्रम की परियोजनाएं हैं. संसाधनों की मौजूदा कमियों को पूरा करने के बाद भी हिमाचल सरकार जैसे दृढ़ संकल्प के बिना वांछित लक्ष्य को नहीं पाया जा सकता है.