।।कविता विकास।।
(स्वतंत्र टिप्पणीकार)
प्रख्यात गीतकार-शायर शकील बदायूंनी का शहर बदायूं अपने नामकरण की पृष्ठभूमि में जो संवेदनशीलता का भान कराता है, उसके तार-तार होकर बिखरने की दशा भला कौन सोच सकता है. प्रकृति की हरीतिमा और काले मेघ का नर्तन, जो एक कवि दिल को प्रेम के तरंग में डूब जाने को बाध्य कर दे और उससे उमड़ती उष्मा में जनसाधारण खो जाये, उसी सुंदर शहर में दो नाबालिग लड़कियों के साथ बलात्कार और फिर उनका कत्ल कर पेड़ पर लटका देना कितना बड़ा विरोधाभास पैदा करता है. लोहिया के विचारों को आत्मसात करनेवाले नेता कह रहे हैं, ‘लड़के हैं, गलती हो जाती है.’ पर, सवाल यह है कि क्या लड़कियों पर कहर ढानेवाली ऐसी गलती क्षम्य है?
मई महीना बड़ा चर्चित रहा. पहला सप्ताह चुनावी सरगर्मियों का रहा. दूसरा हफ्ता ‘मदर्स डे’ के नाम रहा. तीसरा हफ्ता चुनावी परिणाम का केंद्र-बिंदु रहा. फिर बदायूं-बरेली की मानवता को शर्मसार करनेवाली वीभत्स घटनाएं. बलात्कार की घटना चाहे दिल्ली की निर्भया की हो या बदायूं की हो, इसके पीछे हमारे समाज की वह सामंतवादी सोच है, जिसमें ‘जेंडर बायसनेस’ साफ झलकता है. भाई-बहन एक साथ खेल कर लौटें, तो भाई आराम से बैठ कर जूते उतारता है, जबकि उतनी ही थकी हुई बहन उसके लिए पानी का गिलास लेकर खड़ी हो जाती है. पितृसत्तात्मक समाज आज भी बच्चे को स्कूल में दाखिला कराते समय उसके पिता का नाम लिखवाता है. क्या ऐसा नहीं लगता कि समाज के सभी कानून महिलाओं पर थोपे हुए हैं? विधवा विवाह, तलाक के बाद पुनर्विवाह या अपनी मर्जी से विवाह करना आज भी औरतों को बदचलन साबित करता है. समझ में नहीं आता कि यह कैसी विडंबना है!
देश के आंतरिक हिस्से में सूचना का अधिकार पहुंचा ही नहीं. सूचना का अधिकार अगर है भी तो, अपने हर निर्णय के लिए पुरुषों पर आश्रित महिलाएं भला उसका उपयोग कर पायेंगी? इन क्षेत्रों में स्त्रियां सबसे ज्यादा कुपोषण का शिकार हैं, फिर भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम करती हैं. बच्चे को पीठ पर लाद कर ईंट ढोने का काम कोई मर्द क्यों नहीं करता? क्या ही अच्छा होता, हर-एक कॉरपोरेट घराना गांवों में स्त्री शिक्षा और जागरूकता लाने की जिम्मेवारी ले लेता! फिर तो भारत की आर्थिक-सामाजिक संरचना ही बदल जाती.
निर्भया कांड के बाद स्त्रियों की सुरक्षा से जुड़े अहम पहलुओं पर नये कानूनों का बनना एक दिखावा भर है. उनसे जुड़े कानूनों में हुए संशोधनों के बारे में तो देश की आधी आबादी को पता ही नहीं है. छेड़छाड़, फब्तियां कसना और जबरन स्पर्श आदि अपराध की किस श्रेणी में आते हैं, ये तो कानून जाननेवाले भी नहीं बता पाते हैं. महिला पुलिस को नये संशोधनों के हिसाब से ट्रेनिंग देना तो दूर, उनके अपने अधिकार क्षेत्र की जानकारी भी उन्हें नहीं होती.
स्वयंसेवी संस्थानों के दायित्व और महिला आयोग के गठन पर पुनमरुल्यांकन का वक्त अब आ गया है. इन्हें नौकरशाही और सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त होना होगा. स्कूल-कॉलेजों में सेमिनार आयोजित कर लड़कियों को सुरक्षा-नियमों की जानकारी देनी होगी, ताकि वे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो पायें. शिक्षित होना और जागरूक होने में फर्क है. मजबूत संकल्पों वाली स्त्रियां कम पढ़ी-लिखी होने के बाद भी सजग होती हैं. बलात्कार पीड़िता को रिपोर्ट लिखाने से लेकर डॉक्टरी जांच तक की जटिल और अपमानित प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है. कई बार तो इस शर्मिदगी की वजह से पुलिस तक यह बात पहुंचती ही नहीं. सरकार को इस प्रक्रिया में लचीलापन लाना होगा और कार्रवाई में तीव्रता लानी होगी, ताकि अपराधियों में खौफ पैदा हो सके. यही समय है जब महिला आयोग का गठन काम आयेगा. अपराधियों के लिए सख्त सजा को अमल में लाना, कुछ हद तक ऐसे दुष्कर्मो को रोक सकता है.
माता-पिता का भी दायित्व है कि वे लड़कों को संस्कारी बनायें. उनमें लड़कियों-औरतों के प्रति आदर-भाव विकसित करायें. आज जो हाथ पराई लड़कियों पर घर के बाहर उठ रहे हैं, वे कल अपने घर की चारदीवारी में बंद झीने रिश्तों की बलि चढ़ाने पर भी उतारू हो सकते हैं, और होते भी हैं. आपने सुना होगा, मांएं अकसर लड़कियों को कहती हैं कि लड़कों की तरह बहादुर बनो, क्या वे लड़कों से नहीं कह सकतीं कि थोड़ा लड़कियों की तरह कोमल और संवेदनशील हो जाओ.
नारी को भोग्या समझ उसकी कोमल भावनाओं को कुलचना, सिर्फ संतान उत्पत्ति की देह समझ लेना और घर में भी हिंसा आदि पुरुषों की वर्चस्वता दिखलाते हैं. इसे बदलना होगा, बलात्कार कानूनी समस्या नहीं, यह एक मानसिक-सामाजिक समस्या है, जिसका निदान स्त्रियों को भी पुरुषों के समक्ष बराबरी का दर्जा देने में है. हालात जब बदलेंगे, तभी बदायूंनी का शहर फिर से दूसरा बदायूंनी पैदा कर पायेगा.