पूंजी का पलायन

हालांकि हमारे देश की आर्थिक वृद्धि की गति बेहतर है, पर अर्थव्यवस्था पर घरेलू और अंतरराष्ट्रीय हलचलों के नकारात्मक असर की आशंकाएं लगातार बनी हुई हैं. बीते नौ माह में भारतीय पूंजी बाजार से विदेशी निवेशकों ने पचास हजार करोड़ रुपये की निकासी की है. इसका प्रमुख कारण डॉलर के बरक्स रुपये की कीमत में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 22, 2018 1:03 AM

हालांकि हमारे देश की आर्थिक वृद्धि की गति बेहतर है, पर अर्थव्यवस्था पर घरेलू और अंतरराष्ट्रीय हलचलों के नकारात्मक असर की आशंकाएं लगातार बनी हुई हैं.

बीते नौ माह में भारतीय पूंजी बाजार से विदेशी निवेशकों ने पचास हजार करोड़ रुपये की निकासी की है. इसका प्रमुख कारण डॉलर के बरक्स रुपये की कीमत में कमी है. अर्थव्यवस्था के विकास में विभिन्न रूपों में विदेशी पूंजी निवेश का अहम योगदान होता है. ऐसे में पूंजी का यह पलायन चिंताजनक है. इसका सीधा असर शेयर बाजार पर होता है.

जानकारों का मानना है कि अगर निकासी का यह दौर जारी रहता है, तो शेयर बाजार में नरमी आ सकती है. स्टॉक एक्सचेंजों के आकलन के मुताबिक एक अक्तूबर से अब तक सिर्फ 13 कारोबारी दिनों में विदेशी निवेशकों ने करीब 19.5 हजार करोड़ की बिकवाली की है. यह बीते बारह महीनों में सबसे ज्यादा है.

उल्लेखनीय है कि एक दशक में महज चार ही महीने ऐसे गुजरे हैं, जब विदेशी निवेशकों की बिकवाली ने 19 हजार करोड़ का आंकड़ा पार किया है. इसका एक संकेत यह है कि निवेशक उभरती अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में अमेरिका जैसे स्थिर बाजारों का रुख कर रहे हैं. पलायन का एक कारक अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा इस साल ब्याज दरों में लगातार तीसरी बढ़ोतरी है.

चुनावी साल में शेयर बाजार में विदेशी पूंजी निवेश घटने के रुझान भी रहे हैं. गहराता अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध तथा पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या से पैदा हुए असंतोष के जवाब में सऊदी अरब द्वारा तेल महंगा करने की धमकी से भी निवेशक चिंतित हैं.

भारत के लिए दूसरी चिंता विदेशी मुद्रा भंडार में कमी है. साल 2011 के बाद पहली बार ऐसा हुआ है, जब यह 400 अरब डॉलर से नीचे चला गया है. रुपये की कीमत को बढ़ाने के इरादे से रिजर्व बैंक द्वारा डॉलर की बिक्री से ऐसा हुआ है. निजी निवेश का अपेक्षित स्तर पर नहीं होना भी परेशानी की बात है. इससे लंबित परियोजनाओं पर खराब असर हो सकता है, जिनकी संख्या भी बढ़ रही है.

निवेश की कमी के कारण नयी परियोजनाओं की घोषणा भी बाधित हुई है. रिपोर्टों की मानें, तो जुलाई-सितंबर की तिमाही में चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही से 41 फीसदी और पिछले साल इसी अवधि से 12 फीसदी कम नयी परियोजनाएं घोषित हुई हैं. सरकार ने विभिन्न कानूनों और कार्यक्रमों के माध्यम से संरचनात्मक सुधार की दिशा में अनेक जरूरी पहल की हैं, जिनके कारण अर्थव्यवस्था को एक ठोस आधार मिला है तथा आर्थिक विकास की गति बरकरार है, लेकिन इतनेभर से संतोष कर लेना सही नहीं होगा क्योंकि कमजोर रुपया तथा घटता निवेश और निर्यात इसे झटका दे सकते हैं.

साथ ही, व्यापार युद्ध और महंगे तेल के मसले भी हैं. हालांकि सरकार के पास विकल्प सीमित हैं, पर बाजार को स्थिर रखने और महंगाई को नियंत्रित करने की महती चुनौती से निबटने की पूरी तैयारी की जानी चाहिए.

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