मैं पल दो पल का शायर हूं

शफक महजबीन टिप्पणीकार mahjabeenshafaq@gmail.com गुरुदत्त की फिल्म प्यासा में एक नग्मा है- ‘ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया/ ये इंसां के दुश्मन समाजों की दुनिया/ ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया/ ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है.’ इसे लिखनेवाले अजीम शायर साहिर लुधियानवी काे इस दुनिया-ए-फानी से कूच किये […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 25, 2018 12:33 AM
शफक महजबीन
टिप्पणीकार
mahjabeenshafaq@gmail.com
गुरुदत्त की फिल्म प्यासा में एक नग्मा है- ‘ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया/ ये इंसां के दुश्मन समाजों की दुनिया/ ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया/ ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है.’ इसे लिखनेवाले अजीम शायर साहिर लुधियानवी काे इस दुनिया-ए-फानी से कूच किये एक अरसा गुजर चुका है, मगर आज भी उनके कलाम उतने ही जिंदादिल लगते हैं, जितने तब के वक्त में थे.
साहिर लुधियानवी की पैदाइश 8 मार्च, 1921 को पंजाब के लुधियाना में हुई थी. इनके बचपन का नाम ‘अब्दुल हयी’ था, लेकिन अदब की दुनिया में वे साहिर लुधियानवी के नाम से जाने गये. शायर और गीतकार साहिर ने बहुत सी नज्में और गजलें लिखीं, जो उनकी किताबें- ‘तल्खियां’ और ‘परछाइयां’ में दर्ज हैं.
बचपन में ही मां-बाप के अलगाव की वजह से इन्हें काफी मुश्किलें उठानी पड़ीं. यही वजह है कि इनकी किताब ‘तल्खियां’ में दर्द से भरी शायरी नजर आती है. साल 1948 तक वे लाहौर में रहते हुए चार उर्दू रिसालों के एडिटर रहे. फिर 1949 में उन्होंने मुंबई को अपना ठिकाना बनाया और अनेक फिल्मों के लिए एक से बढ़कर एक बेहतरीन नग्मे लिखे.
इकबाल, फैज और फिराक की तरह साहिर भी तरक्कीपसंद शायरों में शुमार किये जाते हैं. वे जमाने की बदहाली के लिए फिक्रमंद रहते थे- ‘ये कारखानों में लोहे का शोरोगुल, जिसमें है दफ्न लाखों गरीबों की रूह का नग्मा.’ साहिर हमेशा भ्रष्ट सिस्टम के खिलाफ लिखते जरूर रहे, लेकिन उनके मुहब्बत के नग्मे कहीं ज्यादा शिद्दत से भरे नजर आते हैं- ‘छू लेने दो नाजुक होठों को, कुछ और नहीं हैं जाम हैं ये.’ नजरियात और नफ्सियात, दोनों तरह की शायरी में उनका दखल था.
जहां लोगों को कटता-मरता और उनके घरों को जलता देखकर उनसे रहा नहीं जाता था- ‘गुजिश्ता जंग में घर ही जले मगर इस बार/ अजब नहीं कि ये तन्हाइयां भी जल जायें’, वहीं मुहब्बत के लिए वे कयामत तक इंतजार करने के लिए भी तैयार थे- ‘हम इंतजार करेंगे तेरा कयामत तक.’
साहिर लुधियानवी के गीतों से फिल्मों की रौनक बढ़ जाती थी. ऐसा माना जाता है कि ‘प्यासा’ और ‘कभी-कभी’ इनकी जिंदगी से ही मुतासिर फिल्में हैं.
‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों’, इस गाने में एक ऐसी सीख है कि झगड़े की सूरत में भी प्यार और दोस्ती को बरकरार रखने के लिए अजनबी बन जाना ही बेहतर है, न कि हमेशा के लिए रिश्ता खत्म कर देना. उनका यह रूमानी ख्याल जमाने में मुहब्बत को हमेशा जिंदा रखने के लिए एक बेहतरीन तोहफा है.
अमृता प्रीतम से अपने इश्क को साहिर ने दुनिया से छुपाये रखा, पर अमृता ने इसे अपनी किताब ‘रसीदी टिकट’ में जाहिर कर दिया. दोनों का इश्क परवान तो चढ़ा, पर शायद इनका साथ खुदा को मंजूर नहीं था.
शायद इसलिए वे कहते हैं- ‘जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला.’ खुद को पल दो पल का शायर माननेवाले साहिर लुधियानवी ने आज ही के दिन यानी 25 अक्तूबर, 1980 को मुंबई में जिंदगी को अलविदा कह दिया.

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