अपने संस्थानों को विश्वस्तरीय बनायें
केंद्र में सरकार बदल गयी है, लेकिन सोच का बदलना शायद बाकी है. कम-से-कम फॉरेन एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन (रेग्युलेशन ऑफ एंट्री एंड ऑपरेशन) बिल के मामले में मानव संसाधन विकास मंत्रलय के रुख को देखते हुए तो यही लग रहा है. यूपीए-2 ने वैश्विक बाजार की मांग के अनुरूप मानव संसाधन गढ़ने का तर्क देकर विदेशी […]
केंद्र में सरकार बदल गयी है, लेकिन सोच का बदलना शायद बाकी है. कम-से-कम फॉरेन एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन (रेग्युलेशन ऑफ एंट्री एंड ऑपरेशन) बिल के मामले में मानव संसाधन विकास मंत्रलय के रुख को देखते हुए तो यही लग रहा है. यूपीए-2 ने वैश्विक बाजार की मांग के अनुरूप मानव संसाधन गढ़ने का तर्क देकर विदेशी शिक्षण संस्थानों के लिए भारत में अपना परिसर और पाठ्यक्रम चलाने की जमीन इस बिल के जरिये तैयार की थी.
अब खबरों के मुताबिक नयी सरकार में विभागीय मंत्री स्मृति इरानी को भी इस जमीन पर चलने में ऐतराज नहीं है. यह ठीक है कि वैश्वीकरण के युग में किसी एक देश के बाजार को दूसरे देश से अलग रखना और देखना संभव नहीं है और इसी के अनुरूप विश्वस्तरीय मानकों पर खड़ा उतर सकनेवाले कौशल संपन्न मानव संसाधन गढ़ने की चुनौती भी आन खड़ी हुई है. परंतु, इस चुनौती का सामना करने के लिए विश्वस्तरीय उच्च शिक्षण संस्थान अपने दम पर खड़ा करना एक बात है और विदेश से उच्च शिक्षा का आयात करना एकदम ही दूसरी बात. जब आप विदेशी विश्वविद्यालयों को भारतीय धरती पर परिसर बनाने, मनमाना पाठ्यक्रम चलाने और मोटी फीस वसूलने की छूट देते हैं, तो इसमें यह बात भी शामिल होती है कि आप उच्च शिक्षा को समय की मांग के अनुरूप विकसित कर पाने में दृष्टि के स्तर पर अभावग्रस्त हैं.
शिक्षा की ज्ञान मीमांसा कहती है कि पाठ्यक्रम को किसी स्थान की संस्कृति और परिवेश से अलग हट कर नहीं सोचा जा सकता, जबकि स्मृति इरानी यूपीए-2 के जिस बिल को आगे बढ़ाना चाहती हैं, उसमें विदेशी संस्थानों को अपनी मनमर्जी का पाठ्यक्रम चलाने की छूट दी गयी है. इतना ही नहीं, एक देश के भीतर दो तरह की शिक्षा प्रणाली चलाने को दो तरह के नागरिक तैयार करने की कोशिश भी कही जा सकती है. शिक्षा और चिकित्सा के मामले में निजी और सरकारी के बीच का अंतर फिलहाल देश में साधनहीन और साधनसंपन्न के बीच का अंतर भी है. अगर केंद्र सरकार ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ के मिशन को सचमुच अंतिम जन की जरूरत के हिसाब से लागू करना चाहती है, तो जरूरी है कि वह उच्च शिक्षा की कल्पना भी देश के अंतिम जन की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए करे.