जिन्हें जनता ने नकारा, वे मंत्री क्यों?

18 साल की उम्र होने से कुछ पहले से हम आने वाली पुश्त को यह समझाने की हर मुमकिन कोशिश करते हैं कि हम एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का हिस्सा हैं. हमारे देश की मजबूत लोकतांत्रिक परंपराएं ही हमें औरों से अलग बनाती हैं. पिछले सात दशकों से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का ताज […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 13, 2014 6:55 AM

18 साल की उम्र होने से कुछ पहले से हम आने वाली पुश्त को यह समझाने की हर मुमकिन कोशिश करते हैं कि हम एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का हिस्सा हैं. हमारे देश की मजबूत लोकतांत्रिक परंपराएं ही हमें औरों से अलग बनाती हैं. पिछले सात दशकों से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का ताज हमारे नाम है. इसमें कोई संदेह नहीं कि हम कई बार बिना किसी संघर्ष के देश में बड़े राजनैतिक बदलाव होते देख चुके हैं.

इस विरासत को जब हम अपनी अगली पीढ़ी को सौंपते हैं तो यह उपदेश देना नहीं भूलते कि संविधान ने हमें मौलिक अािकार के रूप में एक बड़ी शक्ति दी है. इसी ताकत के बदौलत हम अपने लोकतंत्र की दिशा और दशा तय करते हैं. इस ताकत और विवेक के बल पर हम अपने राजनीतिक भविष्य के लिए जन प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं.

बेशक इसके लिए हमारी उम्र के 18 साल की परिपक्व मानसिक योग्यता का होना आवश्यक है. संविधान की नजरों में हमारी योग्यता महत्वपूर्ण है, चाहे प्रतिनिधियों में योग्यता हो या ना हो.

वैसे तो जनप्रतिनिधियों की योग्यता जानने का न तो हमें हक है न ही राजनीतिक शिष्टाचार के अनुरूप. पिछले दिनों इस बात पर बहस चली तो इससे मिलता-जुलता एक सवाल तो खड़ा होता ही है. आधी सदी से ज्यादा पुरानी परंपरा चली आ रही है, राज्यसभा के रास्ते आये प्रतिनिधि भी मंत्री बन जाते हैं. मगर जिनको देश की जनता नकार देती है उनका भी मंत्री बन जाना कितना उचित है? हमारा विश्वास हासिल करने में असफल व्यक्ति को मंत्री पद देना मजबूत लोकतंत्र का मिसाल कैसे बन सकता है? नयी पीढ़ी यह जानना चाहती है कि क्या ‘राजनीतिक सूली’ की कीमत ही लोकतंत्र है?

एमके मिश्र, रातू, रांची

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