अहम है आरबीआइ की आजादी

अजीत रानाडे सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन editor@thebillionpress.org भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) की स्थापना भारत की आजादी से भी बारह वर्षों पूर्व हुई थी. अपने आठ दशकों के जीवन काल में इसने उच्चतम वैश्विक मानकों के अनुरूप कार्यप्रणाली से एक विशिष्ट मुकाम हासिल किया है. आज यह वैसे कुछेक राष्ट्रीय संस्थानों में एक है, जिन्हें उनकी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 30, 2018 7:16 AM
अजीत रानाडे
सीनियर फेलो,
तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
editor@thebillionpress.org
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) की स्थापना भारत की आजादी से भी बारह वर्षों पूर्व हुई थी. अपने आठ दशकों के जीवन काल में इसने उच्चतम वैश्विक मानकों के अनुरूप कार्यप्रणाली से एक विशिष्ट मुकाम हासिल किया है. आज यह वैसे कुछेक राष्ट्रीय संस्थानों में एक है, जिन्हें उनकी आदर्श निष्ठा तथा भ्रष्टाचारविहीनता के लिए जाना जाता है. यह दूसरी बात है कि इसके हिस्से भी कुछ बुरे नतीजे और नीतिगत गलतियां (जिन्हें बाद में ही महसूस किया जा सका) आयी हैं. पर कुल मिलाकर इसकी प्रतिष्ठा एक ठोस धरातल पर टिकी है, जिसे कठोर फैसलों के बल पर एक लंबे कठिन अरसे में निर्मित किया जा सका है.
अलबत्ता, नोटबंदी के तुरंत बाद यह प्रतिष्ठा तब थोड़ी धूमिल अवश्य हुई, जब यह प्रश्न उठा क्या इतना परिवर्तनकारी कदम बगैर पूरी योजना के ही उठा लिया गया? क्योंकि न तो देश के एटीएम इसके लिए तैयार थे और न ही पर्याप्त संख्या में नये नोट ही मौजूद थे. इतना ही नहीं, नोटबंदी के तुरत बाद की अवधि में आरबीआइ को पचास से भी ज्यादा अनुदेश जारी करने पड़े, जिनमें से कुछ के द्वारा तो उसने अपने ही पूर्व अनुदेश को पलट दिया.
सबसे बढ़कर, बंद किये गये नोटों की गिनती करने में ही आरबीआइ ने एक वर्ष का वक्त लगाकर फिर यह खुलासा किया कि 99 प्रतिशत से भी अधिक नोट वापस जमा कर दिये गये थे, और इस तरह जमाखोरों के पास रुके पड़े ‘काले धन’ की पहले की गयी प्रत्याशा भी असत्य ही सिद्ध हुई.
जो भी हो, नोटबंदी की इस घटना को अब हम पीछे छोड़ चुके हैं और खासकर तब के बाद, आरबीआइ एक बार पुनः देश की मौद्रिक एवं वित्तीय स्थिरता के हित कठोर फैसलों में सक्षम देश के सेंट्रल बैंक की अपनी पुरानी सक्रिय भूमिका के सफल निर्वाह में लगा है. बुरे ऋणों की चढ़ती मात्रा, कमजोर बैंक बैलेंस शीट, अस्थिर वित्तीय प्रवाह, चक्कर खाते शेयर बाजार तथा घबराहट और अफवाहों की पूरी संभावनाओं से भरे इस वक्त में यह खासतौर पर स्वागतयोग्य कदम है.
सरकारी हस्तक्षेप से रहित होना सेंट्रल बैंक द्वारा सार्वजनिक हित में प्रभावी ढंग से कार्य करने की एक पूर्व शर्त है, जिसकी मुख्य वजह सरकारी नजरिये का कभी-कभी अल्पकालिक हितों से निर्देशित होना है.
संभव है कभी सरकार निकट भविष्य में ही विकास की तेज रफ्तार हासिल करने की जरूरत के वशीभूत होकर मौद्रिक व्ययों से अपना नियंत्रण शिथिल कर ले, या ब्याज दरों को निम्न रखना चाहे अथवा कृषि ऋणों की सख्त वसूली से परहेज करे, जो सभी चुनावी राजनीति से प्रेरित हो सकते हैं.
पर मुद्रास्फीति या मंदी और वित्तीय अस्थिरता के रूप में उनकी लागतें बहुत ऊंची हो सकती हैं, जिन्हें रोकने की जिम्मेदारी सेंट्रल बैंक को दी गयी है. इस तरह, सेंट्रल बैंक को मुद्रास्फीति का थोड़ा दबाव महसूस करते ही मौद्रिक आपूर्ति पर अंकुश के लिए तैयार रहना चाहिए.
ब्याज दरें उतनी ही होनी चाहिए कि वे कुल साख हेतु आपूर्ति एवं मांग के लिए पूरी तरह अनुकूल हों. यदि वे सरकारी उधारों के अनुकूल होते हुए बहुत नीची होती हैं, तो यह स्थिति उचित से कहीं अधिक साख सृजन कर सकती है.
जहां तक विनिमय दरों का सवाल है, तो सेंट्रल बैंक उसे सीधे नियंत्रित अथवा सही नहीं कर सकता, मगर यह उतार-चढ़ाव की स्थिति के नियंत्रण हेतु हस्तक्षेप कर सकता है. यही कारण है कि विदेशी विनिमय का एक भंडार रखा जाता है, ताकि वह बाहर की ओर उसके अचानक बहाव का मुकाबला कर सके.
इसी प्रकार, सरकार सेंट्रल बैंक के बैलेंस शीट को असंतुलित करने के लालच से ग्रस्त हो सकती है, पर उसका दृढ़ता से विरोध किया जाना चाहिए. ये ही कुछ ऐसी वजहें हैं कि अर्थव्यवस्था के दीर्घकालिक हित के लिए सेंट्रल बैंक की स्वतंत्रता बहुत अहम बन जाती है.
पिछले सप्ताह मुंबई में एडी श्रॉफ स्मृति व्याख्यान के अंतर्गत आरबीआइ के डिप्टी गवर्नर डॉ विरल आचार्य द्वारा दिये गये भाषण ने आरबीआइ की स्वतंत्रता की अहमियत को भलीभांति रेखांकित किया.
डॉ आचार्य ने अंतरराष्ट्रीय संदर्भों से प्रमाण पेश करते हुए यह स्पष्ट किया कि किस तरह कोई सरकार अपने देश के सेंट्रल बैंक पर अनुचित दबाव देकर अल्पावधि फायदे, मगर दीर्घावधि मुसीबतें आमंत्रित किया करती हैं. अर्जेंटीना की मिसाल देते हुए उन्होंने यह बताया कि कैसे वहां के सेंट्रल बैंक की स्वतंत्रता से छेड़छाड़ ने वित्तीय और अंततः संवैधानिक संकट को जन्म दे दिया.
उन्होंने चेतावनी के लहजे में कहा कि जो सरकारें सेंट्रल बैंक की स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करतीं, वे देर-सवेर वित्तीय बाजारों का आक्रोश झेलने, आर्थिक आग को हवा देने तथा उस दिन का मातम मनाने को अभिशप्त होती हैं, जिस दिन उन्होंने इस संस्थान की स्वायत्तता कमजोर की थी.
पिछले कुछ वर्षों के दौरान विभिन्न अवसरों पर आरबीआइ के गवर्नर ने भी सरकार को राजकोषीय फिजूलखर्ची के विरुद्ध चेताया है. एक अन्य अवसर पर उन्होंने बुरे ऋणों की सफाई की तुलना समुद्रमंथन से करते हुए यहां तक कहा कि बैंकिंग सेक्टर के स्वास्थ्य को सुधारने के लिए आरबीआइ इस समुद्रमंथन से निकले विष तक को पीने के लिए तैयार है.
इसी संदर्भ में उन्होंने इस तथ्य की चर्चा भी की कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों तथा उनके बोर्डों के नियंत्रण, पर्यवेक्षण तथा अनुशासन हेतु आरबीआइ को प्रदत्त सीमित अधिकार भी इस कार्य में उसके लिए एक गंभीर बाधा है. इसके विपरीत, निजी बैंकों पर उसका पर्यवेक्षण ज्यादा प्रभावी है.
पर इन सबसे आगे बढ़कर, बीते फरवरी माह में जारी किये गये अपने उस परिपत्र पर आरबीआइ लगातार दृढ़ रहा है, जिसने एक कठोर समयावधि में बुरे ऋणों के पुनर्गठन हेतु स्पष्ट दिशा निर्देश देते हुए उसे चूक जानेवाले ऋणियों के लिए दिवाला प्रक्रिया में चले जाने का रास्ता साफ कर दिया.
इस ढांचे को ढीला करने के लिए आरबीआइ पर विकट दबाव पड़े, पर उसने अपनी दृढ़ता बनाये रखी. कई दशकों के दौरान लिये गये ऐसे ही कठोर किंतु हितकारी निर्णयों से ही किसी संस्थान की प्रतिष्ठा परवान चढ़ती है. आरबीआइ नेतृत्व और इसके कर्मियों के कृत्यों तथा कार्रवाइयों के समग्र प्रतिफल ही इस महान प्रतिष्ठान की शक्ति सुदृढ़ करते हैं.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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