14.5 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

सुशासन ही नीतीश की यूएसपी

केसी त्यागी राष्ट्रीय प्रवक्ता, जदयू kctyagimprs@gmail.com पहले एनडीए के साथ गठबंधन को लेकर, फिर सीटों के तालमेल और अब 2019 लोकसभा चुनावों में जनता दल (यू) और नीतीश कुमार की भूमिका पर राजनीतिक स्तंभकारों के एक धड़े का पक्षपातपूर्ण रुख रहा है. विगत महीनों में कयास तेज हो गये थे कि जदयू को लोकसभा चुनावों […]

केसी त्यागी
राष्ट्रीय प्रवक्ता, जदयू
kctyagimprs@gmail.com
पहले एनडीए के साथ गठबंधन को लेकर, फिर सीटों के तालमेल और अब 2019 लोकसभा चुनावों में जनता दल (यू) और नीतीश कुमार की भूमिका पर राजनीतिक स्तंभकारों के एक धड़े का पक्षपातपूर्ण रुख रहा है.
विगत महीनों में कयास तेज हो गये थे कि जदयू को लोकसभा चुनावों में न्यूनतम सीटों पर ही समझौता करना पड़ेगा. कुछ विश्लेषकों द्वारा यह टिप्पणी भी कर दी गयी थी कि मौजूदा दो लोकसभा सीटों वाली पार्टी के लिए 8-10 सीटें पर्याप्त से ज्यादा होंगी. लेकिन, इस आकलन पर विराम लग गया, जब 26 अक्तूबर को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और नीतीश कुमार द्वारा एक साझा वक्तव्य में बराबर भागीदारी की घोषणा कर दी गयी. इस निर्णय से जहां एनडीए के संतुलित तालमेल और सूझबूझ का संदेश गया, तो वहीं आलोचकों को झटका भी लगा.
चुनावी सर्वे और विश्लेषकों द्वारा निरंतर जदयू और नीतीश कुमार की प्रसंगिकता का उल्लेख हो रहा है. एक नवंबर के एबीपी-सी वोटर के ताजा सर्वे ने बिहार में 40 में से 34 सीटें एनडीए के खाते में बताकर बची-खुची कसर पूरी करने का काम कर दिया. प्रसिद्ध स्तंभकार शेखर गुप्ता द्वारा नीतीश कुमार को सबसे मजबूत, कर्तव्यनिष्ठ व ईमानदार राजनेता बताया जाना चर्चा के केंद्र में रहा है.
अगस्त में इंडिया टुडे द्वारा भी नीतीश कुमार को एनडीए के अन्य मुख्यमंत्रियों में सर्वाधिक लोकप्रिय मुख्यमंत्री बताया जा चुका है. गत माह पूर्व भी सीएसडीएस-एबीपी के सर्वे के अनुसार बिहार अकेला राज्य बताया गया था, जहां एनडीए गठबंधन सबसे सुदृढ़ स्थिति में है. इससे इतर यदि 2014 के एनडीए और जदयू के मतों को देखें, तो आज यह गठबंधन 40 में से 38 लोकसभा सीटों पर बढ़त बनाये हुए है.
अन्य दलों से अलग जदयू की राजनीति विकास, सुशासन और न्याय की धुरी पर रही है और यही कारण है कि बिहार में नीतीश कुमार का नाम अपर्याय बन चुका है. दिलचस्प भी है कि नीतीश जिस भी गठबंधन का चेहरा होते हैं, बहुमत उसी के साथ होता है. मौजूदा विपक्षी दलों को भी यह गणित समझना चाहिए कि नीतीश नाम के साथ ही उनका संख्या बल 22 से 80 (आरजेडी) और 3 से 27 (कांग्रेस) तक पहुंच पाया.
इससे पूर्व नीतीश नेतृत्व में ही भाजपा 37 से 55 और फिर 2010 में 91 सीटों का सफर तय कर पायी थी. साल 2014 के चुनावी आंकड़ों के अनुसार भाजपा 178 सीटों पर बढ़त में रही, लेकिन एक वर्ष बाद ही 2015 के विधानसभा चुनाव में यह आंकड़ा 55 पर रुक गया. स्पष्ट है कि जदयू के साथ गठबंधन वाले दल को नीतीश ब्रांड का फायदा निरंतर मिलता रहा है. इसके अलावा बिहार में स्थापित आधुनिक सभी कीर्तिमान नीतीश शासन की ही देन है.
सड़क निर्माण से लेकर हर गांव बिजली और अब पक्की गली-नली की योजना वर्षों से पिछड़े बिहार को मुख्यधारा में लेकर आया है. सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए 35 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था से यहां की महिलाएं सशक्त हुई हैं. हाल के मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना के अंतर्गत प्रत्येक छात्रा को ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई हेतु 54,100 रुपये की सरकारी व्यवस्था अन्य राज्यों के लिए मार्गदर्शक भी है.
जुलाई 2016 में राजद उत्तराधिकारों पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों के मद्देनजर जदयू द्वारा महागठबंधन से बाहर निकलने की स्वच्छ पहल को अवसरवादिता जैसी संज्ञा तक दे दी गयी. यहां भी समझना होगा कि नीतीश कुमार के दशकों पुराने राजनीतिक जीवन में भ्रष्टाचार, संप्रदायवाद और भाई-भतीजावाद जैसा कोई कलंक नहीं है.
इस स्थिति में सिर्फ सत्ता बचाने हेतु लालू परिवार के भ्रष्टाचार को सरकारी संरक्षण देना किस प्रकार का न्याय होता? क्या गठबंधन की तठस्थता की आड़ में भ्रष्टाचार की जड़ें मजबूत करना गठबंधन धर्म हो सकता है?
लालू प्रसाद के शासन काल को समाप्त हुए लगभग 15 वर्ष हो गये हैं. इसलिए संभव है कि उनके शासन को लेकर कुछ लोगों की स्मृतियां धूमिल हो चुकी होंगी. लेकिन इतिहास पट पर लिखित तथ्यों को मिटाया नहीं जा सकता.
मंडल कमीशन की अनुशंसाओं के बाद संयुक्त जनता दल निस्संदेह अपराजेय था, जब 54 में से 53 सीटों पर जनता दल प्लस को सफलता मिली थी और भाजपा का खाता भी नहीं खुल पाया था, जबकि अयोध्या विवाद और आडवाणी की रथ यात्रा के चलते उत्तर प्रदेश में 55 के करीब सीटों पर भाजपा विजयी हुई थी.
निष्ठावान कार्यकर्ताओं की हो रही उपेक्षा, कांग्रेस की तर्ज पर पनपता परिवारवाद, सुशासन के नाम पर अपहरण, लूट, हत्या, बलात्कार, फिरौती एवं राजनीति में जुझारू कार्यकर्ताओं की जगह गुंडे-माफिया नायक बनने लगे थे उस दौर में.
नीतीश कुमार के शासन में भी कुछ अप्रिय घटनाएं घटी हैं, जिसे सरकार व पार्टी स्तर पर स्वीकार किया जाता रहा है. सृजन, मुजफ्फरपुर कांड तथा रामनवमी के अवसर पर भागलपुर की घटना को लेकर भी मीडिया के एक तबके ने नीतीश सुशासन की समाप्ति घोषित कर दी थी. ऐसी घटनाएं कष्टदायी व अप्रिय हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि बिहार में कानूनराज ढीला हुआ है.
त्वरित कार्रवाई करते हुए ये घटनाएं सीबीआइ को सौंपी गयी और उच्च न्यायालय की निगरानी में जांच जारी है. तुलनात्मक रूप से देखा जाये, तो फर्क इरादों का है, नीति निर्धारण का है और इसी अंतर से नीतीश कुमार अपने को बिहार और यूपी के अन्य लोहियावादियों से बेहतर साबित करते हैं. परिवारवाद, जातिवाद और भ्रष्टाचार, लोहिया के विचारों में इन तीनों की वर्जना थी. नीतीश सुशासन के केंद्र बिंदु बनकर अपनी राजनीतिक सार्थकता बनाये हुए हैं.
कुछ समीक्षकों को लग सकता है कि नीतीश का राजनीतिक तरीका अप्रासंगिक हो चुका है, लेकिन जब भी जनता की इच्छा अच्छे शासन के लिए प्रबल होगी, न्याय के लिए आतुर होंगे, कानून सबके लिए एक समान हो जैसे विचार उठेंगे, तब-तक नीतीश पर निर्भरता बनी रहेगी. ‘आईडेंटिटी पॉलीटिक्स’ के दिन अब लद चुके हैं.
एक जाति समूह के व्यक्ति को नायक के रूप में परिमार्जित कर नारों का ताना-बाना बुन राजनीतिक दलों का संचालन होता रहे, इसकी संभावना दिन-ब-दिन क्षीण हो रही है. ऐसे नेतृत्व को भी समाज के लिए ना सही, अपने वर्गों की संतुष्टि हेतु भी कुछ रचनात्मक कार्यक्रम अमल में लाने होंगे. यही भेद नीतीश को अन्य मंडलवादी नेताओं से भिन्न बनाते हुए चिर स्थायी भी बनाता है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें