मीटू बनाम यूटू

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार drsureshkant@gmail.com ‘मीटू’ अब स्टेटस-सिंबल बन गया है. पहले भी स्टेटस-सिंबल ही था, इस अंतर के साथ कि तब स्टेटस घटने का सिंबल था, अब बढ़ने का सिंबल है. मेरे एक पत्रकार-मित्र को अब तक चौबीस महिलाएं ‘मीटू’ से नवाज चुकी हैं. वह 25वें की आतुरता से प्रतीक्षा कर रहा है, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 9, 2018 6:45 AM
डॉ सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
drsureshkant@gmail.com
‘मीटू’ अब स्टेटस-सिंबल बन गया है. पहले भी स्टेटस-सिंबल ही था, इस अंतर के साथ कि तब स्टेटस घटने का सिंबल था, अब बढ़ने का सिंबल है. मेरे एक पत्रकार-मित्र को अब तक चौबीस महिलाएं ‘मीटू’ से नवाज चुकी हैं.
वह 25वें की आतुरता से प्रतीक्षा कर रहा है, जिसके होते ही वह धूमधाम से रजत जयंती मनायेगा. अस्पताल में दाखिल किसी सिलेब्रिटी मरीज के स्वास्थ्य-बुलेटिन की तरह वह समय-समय पर अपना मीटू-बुलेटिन जारी करता रहा है कि कल इतने थे, आज इतने हो गये और कल इतने हो जाने की उम्मीद है. उम्मीद पर दुनिया जो कायम बतायी जाती है, वह ऐसे लोगों को देखकर ही बतायी जाती लगती है.
उन्हें न केवल अपने सतत वर्धमान मीटूज पर गर्व होता है, बल्कि मुझ जैसे लोगों के मीटू-विहीन होने पर तरस भी आता है. मीटू के बिना ‘हीरा-जनम अमोल है, कौड़ी बदले जाय’ की-सी हिकारत भरी नजर से देखते हुए एक दिन उन्होंने मुझसे कहा भी कि कहो तो मैं तुम्हारी कुछ मदद करूं? आखिर मित्र ही मित्र के काम आता है! मैंने कहा, क्यों, क्या तुम मेरे लिए मीटू कहोगे?
वह तो किसी महिला के मीटू कहने से भी ज्यादा अपमानजनक होगा! उसने कहा, नहीं, किसी परिचित महिला से कहलवाने की बात कह रहा हूं. मैंने उसे सख्ती से मना किया है, पर कह नहीं सकता कि कब वह ‘परोपकाराय साधूनाम्’ वाली मुद्रा धारण कर मुझ पर मीटू का कीचड़ उछलवा दे. आखिर ऐसी विभूतियां ‘जियें तो अपने बगीचे में मीटू के तले, मरें तो गैर के बगीचे में मीटू के लिए’ के ‘मोटो’ के साथ जीती हैं.
पुरुष ही क्या, कुछ महिलाएं भी अब तो इसे फख्र के साथ बता रही हैं और अपनी उन सहेलियों को हेय दृष्टि से देख रही हैं, जिन्होंने अभी तक किसी पर मीटू का आरोप नहीं मढ़ा. उनका मानना है कि संसार की ऐसी कोई सुंदर महिला नहीं होगी, जिसके साथ कभी मीटू न हुआ. जिसके साथ नहीं हुआ, वह इस लायक ही नहीं समझी गयी होगी और इसलिए उसका जनम अकारथ गया समझो! वे जो ब्यूटी-पार्लरों में समय व धन खर्चती हैं, तो क्या इसलिए कि सब-कुछ ‘अन-नोटिस्ड’ चला जाये?
पुराने जमाने में भी कन्याओं का अपहरण उनके सुदर्शन होने का प्रमाण था. आज भी शादी-ब्याह में बारात के ‘स्वागत’ में गायी जानेवाली गालियां और पीठ पर मारे जानेवाले हल्दी के छापे उसी घटना के अवशेष हैं. बारात खुद लड़की के अपहरण के लिए वर के साथ जानेवाली सेना का लघु रूप है.
बहुत-सी महिलाएं अपनी साथी महिलाओं के दबाव में आकर भी मीटू कह रही हों, तो कोई ताज्जुब नहीं. अब तो हालत यह है कि किसी-किसी मीटू-भाषिणी को पलटकर ‘यूटू?’
कहने की इच्छा होती है. ‘यूटू?’ कभी शेक्सपियर ने जूलियस सीजर से कहलवाया था ब्रूटस को एक भिन्न संदर्भ में. कल तो एक मित्र की पत्नी ने ही उसे धमकी दे दी कि लाते हो साड़ी या कहूं ‘मीटू?’ अब यह कहने की आवश्यकता नहीं कि बिना गलती के भी बंदे को साड़ी लाकर देनी पड़ी.

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