लाल्टू
हिंदी के वरिष्ठ कवि
जेलों के बिना जब दुनिया की सरकार चलायी जायेगी/ वह सुबह कभी तो आयेगी- साहिर ने लिखा था. सभ्य समाज से बहुत सारी अपेक्षाएं होती हैं. कोई भी सरकार सभी अपेक्षाओं को पूरा कर नहीं सकती, पर कई ऐसी बेवजह, ख़ामख़ाह की मान्यताएं भी सरकार के बारे में हैं, जिनके बारे में सोचना चाहिए. जैसे कि सरकारें झुकती नहीं हैं. चाहे देश में महामारी फैली हो, कोई सरकार बाहर के लोगों का यह कहना पसंद नहीं करती कि उसे इस बारे में प्रभावी कदम उठाने होंगे. इसके पीछे मानसिकता यह है कि दूसरे लोग हमें कमजोर और अयोग्य साबित करना चाहते हैं.
उत्तर प्रदेश के बदायूं की घटना पर संयुक्त राष्ट्र ने कह दिया कि हमारे देश में लगातार हो रही बलात्कार की घटनाओं को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है. तो सरकार की प्रतिक्रि या क्या है- उन्हें पता होना चाहिए कि हमारे यहां न्याय की व्यवस्था है और उस मुताबिक प्रक्रियाएं चल रही हैं. प्रक्रियाएं तो अनादि काल से चल रही हैं और स्त्रियों के प्रति हिंसा की घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं. यह बौखलाहट यही बतलाती है कि हम ऐसे जघन्य अपराधों को प्रति संवेदनशील नहीं हैं. यानी कि सचमुच हमारी अपनी सच्चाई यह है कि हम अयोग्य हैं. शायद इसीलिए हम इस बात पर ज्यादा गौर करते हैं कि दूसरे लोग हमें बोलने वाले कौन होते हैं.
हरियाणा के भगाणा की दलित बलात्कार पीड़िताओं के पक्ष में धरने पर बैठे लोगों को दिल्ली पुलिस ने जबरन हटा दिया. काश कि सरकार के प्रतिनिधि वहां आकर उनसे मिलते और घड़ियाली सही दो आंसू बहा जाते. काश कि सत्ता पर काबिज हमारे नेता पीड़ितों के साथ खड़े होकर कह पाते कि वे भी मांओं के जन्में हैं, कि उनकी भी बहन-बेटियां हैं, और वे इस ज़ुल्म के खिलाफ कदम लेंगे. क्या हम कह सकते हैं कि अपनी कमियां मानने से शर्माये बिना सरकार चलायी जायेगी, वह सुबह कभी तो आयेगी! अगर बु्द्धिजीवियों से पूछो तो वह कहेंगे कि हमारी संस्कृति में यह नहीं था, यह तो औपनिवेशिक काल की देन है. कुछ और हमें बतलायेंगे कि स्त्रियों के साथ हिंसा जैसी घटनाएं तो दीगर मुल्कों में सरेआम होती रहती हैं. उन्हें हमारी ओर उंगली उठाने की जगह अपनी ओर देखना चाहिए.
चाणक्य के श्लोकों से लेकर समकालीन साहित्य तक में स्त्री के प्रति अवहेलना के अनगिनत उदाहरणों के बावजूद हम मानने को तैयार नहीं होते कि हमारा समाज पुरुषप्रधानता की विकृति से ग्रस्त है और स्त्रियों के प्रति हिंसा भी इसी बीमारी की देन है. दीगर और मुल्कों मे भी यही बीमारी है तो उसका मतलब यह नहीं कि हमें स्वस्थ नहीं होना चाहिए. या कि उनकी कमजोरियों का फायदा हम अपनी बदहाली छिपाने के लिए करें. अव्वल तो आंकड़े यही दिखलाते हैं कि मावाधिकार के सूचकांकों में हम दुनिया के अधिकतर मुल्कों से पीछे ही हैं.
हिंसा का एक ही हल है कि हम व्यापक अभियान चलायें कि यह सही नहीं है. स्त्री को इंसान का दर्जा दिलाने के लिए देशव्यापी कार्यशालाएं हों. हर किसी को, अपने आप को भी, चाहत और हिंसा के भेद को समझाने का लंबा अभियान हो. पर जिस देश में आधी जनता अनपढ़ है, वहां कार्यशालाएं चलाना भी कौन सा आसान काम है. लिखित या मुद्रित सामग्री तो हर जगह काम आयेगी नहीं. कम से कम हमारे जैसे पढ़े लोगों के लिए ही सही, ऐसी सामग्री का भी इस्तेमाल हो. बाकी लोगों के लिए दृश्य सामग्री और बातचीत से ही काम चलाया जाए. इस देश में जल्दी ऐसी सरकार तो आने से रही जो व्यापक पैमाने पर प्रभावी साक्षरता फैलाने को प्राथमिकता माने. फिलहाल तो बस नारे और विज्ञापनों के अभियान हैं. इसलिए यह काम सरकारों पर छोड़ा नहीं जा सकता.
अगर हम अपने घर के बच्चों को ही इस बारे में सचेत कर सकें कि यौन हिंसा जघन्य अपराध है, तो बात आगे बढ़ेगी. अपने बच्चों से हम तभी बात कर पायेंगे जब हम स्वयं इस बात को समङों. यानी कि लड़ाई व्यक्ति के स्तर से ही शुरू होती है. अगर हम परिवारों में मौजूद हिंसा को छोड़ भी दें (जो कि जितना हम जानते हैं, उससे कहीं ज्यादा ही होती है) तो भी आज व्यापक माहौल ऐसा है कि जो स्त्री हमारे घर-परिवार-जाति की नहीं है, वह भोग्या है. जी हां, हमारी संस्कृति में स्त्री का देवी होना सिर्फ बातों में है. व्यवहार में वह महज यौन-सामग्री भर है. परिवार के अंदर भी उसे भोग्या की तरह इस्तेमाल किया जाता है.
बच्चियों के साथ यौन शोषण में अक्सर परिवार के ही लोग संलग्न होते हैं. ग्रामीण इलाकों में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जहां पिता, ससुर, भाई या कोई अन्य रिश्तेदार अपने की परिवार की स्त्री को शिकार बनाता है. इस स्थिति से उबरने के लिए हमें पहले इसे स्वीकार करना होगा. ज्यादातर लोग यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि उनके मानस में स्त्री के प्रति कैसी गलत भावनाएं हैं. हम जानें और मानें कि हम बीमार हैं, तभी इलाज संभव है.
प्रसिद्ध पंजाबी लोक नाटककार गुरशरण भ्रा (भाई) जी ने एकबार आंदोलन चलाया था कि स्त्रियों से जुड़ी गालियां इस्तेमाल करने के खिलाफ कानून बने और उस कानून में अलग-अलग श्रेणी के लोगों के लिए अलग-अलग किस्म की सजा का प्रावधान हो. अगर कोई पुलिसवाला ऐसी गाली देते पाया जाए तो उसको सबसे अधिक सजा हो, गैर-पुलिस सरकारी अधिकारियों को उससे कम और साधारण नागरिकों को सबसे कम. तात्पर्य यह था कि मां-बहन को जोड़ कर बनायी गयी गालियां निश्चित रूप से हिंसक भावनाएं प्रकट करने के लिए इस्तेमाल होती हैं. व्यक्ति से अलग बड़े स्तर की और बातें हैं जिनसे जूझना होगा. किसी ने सही कहा है कि घर में शौच का प्रबंध हो जाने से ही स्त्रियां सुरिक्षत नहीं हो जायेंगी, पर कम से कम उन्हें बाहरी खतरों से तो कुछ राहत मिलेगी. यानी फिर एक राजनैतिक सवाल उठता है – क्या ऐसा विकास इस देश में कभी होगा कि अधिकतर स्त्रियों को शौच के लिए बाहर न जाना पड़े.
सारी दुनिया में सभ्यता के न्यूनतम मानदंडों की प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष चल रहे हैं. अब हर तरह की ज्यादती को यह कह कर टाला नहीं जा सकता कि यह तो स्थानीय संस्कृति और अस्मिता का मुद्दा है. हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति हिंसा और और जातिगत भेदभाव ऐसी समस्याएं हैं जिनके खिलाफ संघर्ष में दुनिया के किसी भी कोने में आवाज़ उठती है तो उसका स्वागत होगा. कमाल यह है कि हमारी सरकारें व्यापार से जुड़े हर वैश्वीकरण को मान लेती हैं, चाहे वह जितना भी देश के हितों के खिलाफ जाता हो, पर मानव अधिकारों के मसौदे पर हस्ताक्षर करने के बावजूद अंतरराष्ट्रीय मान्यताओं को स्वीकार करने में उसकी कोई तत्परता नहीं दिखती.
स्त्री की सुरक्षा का सवाल बुनियादी तौर पर मानव अधिकार का सवाल है. चूंकि दलित और पिछड़े वर्गो की स्त्रियों के साथ जुल्म ज्यादा होते हैं, इसलिए इसमें लिंग और जाति आधारित दोनों तरह की असमानता का मसला है. हाल में शहरों में हो रही हिंसा की घटनाओं में अमानवीय स्थितियों में रह रहे लोगों में से अपराधियों का होना आर्थिक आधार पर वर्ग विभाजन के पहलू को भी सामने लाता है. यानी ये सारी बातें एक दूसरे से गड्डमड्ड हैं. न तो पुरानी वामपंथी सोच कि आर्थिक वर्गो में फर्क कम होने पर ये समस्याएं मिट जायेंगी, ठीक थी और न ही यह सोच ठीक है कि जाति या वर्गो के आधार पर गैरबराबरी रहते हुए भी स्त्रियों को पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा मिल जायेगा.
(रविवार.कॉम से साभार)