बेरोजगारी की चुनौती
काफी अरसे से हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की बढ़ोतरी जारी है और पिछले कुछ सालों में हुए बड़े सुधारों से उसे बुनियादी मजबूती मिली है.इस मजबूती की वजह से अंतरराष्ट्रीय बाजार की उथल-पुथल को बहुत हद तक बर्दाश्त करने की क्षमता भी पैदा हुई है तथा भविष्य में वृद्धि दर में बढ़त की संभावनाएं भी बनी […]
काफी अरसे से हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की बढ़ोतरी जारी है और पिछले कुछ सालों में हुए बड़े सुधारों से उसे बुनियादी मजबूती मिली है.इस मजबूती की वजह से अंतरराष्ट्रीय बाजार की उथल-पुथल को बहुत हद तक बर्दाश्त करने की क्षमता भी पैदा हुई है तथा भविष्य में वृद्धि दर में बढ़त की संभावनाएं भी बनी हैं, लेकिन इस विकास का एक चिंताजनक पहलू यह है कि रोजगार के मोर्चे पर अपेक्षा के अनुरूप कामयाबी नहीं मिल पा रही है. आर्थिक स्थिति का अध्ययन करनेवाली प्रतिष्ठित संस्था सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के ताजा आंकड़ों के मुताबिक अक्तूबर, 2018 में बेरोजगारी दर 6.9 फीसदी रही है.
यह दर बीते दो सालों में सबसे ज्यादा है. पिछले साल अक्तूबर में बेरोजगारी दर 6.75 रही थी. पिछले महीने रोजगार में लगे लोगों की संख्या 39.7 करोड़ आंकी गयी है, जो अक्तूबर, 2017 से 2.4 फीसदी कम है. रोजगार की तलाश कर रहे लोगों की तादाद भी बढ़ी है. बीते माह 2.95 करोड़ लोग सक्रियता से काम खोज रहे थे.
यह संख्या पिछले साल के अक्तूबर महीने की तुलना में 79 लाख अधिक है. इन आंकड़ों को हाल के कुछ अन्य रिपोर्टों के साथ देखा जाए, तो स्थिति की गंभीरता का एक अंदाजा मिलता है. पिछले माह अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के एक सर्वेक्षण में बताया गया था कि रोजगार में लगे 82 फीसदी पुरुषों और 92 फीसदी महिलाओं का मासिक वेतन 10 हजार रुपये से कम है.
इसका मतलब यह है कि बेरोजगारी के साथ ऐसे रोजगारों की भी भारी कमी है, जिनके जरिये कामगार अपने और अपने परिवार के जीवनयापन के लिए ठीक-ठाक आमदनी सुनिश्चित कर सके. अक्सर हम खबरों में देखते हैं कि निचले स्तर के कुछ हजार सरकारी पदों के लिए लाखों युवा आवेदन करते हैं और उनमें से बहुत लोगों की शैक्षणिक योग्यता विज्ञापित पद से बहुत अधिक होती है. इसका एक कारण नौकरी की जरूरत है और दूसरा कारण निर्धारित वेतन का आकर्षण है. रोजगार न सिर्फ निजी और सार्वजनिक जीवन को ठीक से जीने के लिए जरूरी होता है, बल्कि वह समाज, देश और दुनिया के लिए उपयोगी एवं उत्पादक होने का अवसर भी होता है.
रोजगार की कमी तथा कम वेतन का सीधा असर लोगों की खरीदने की ताकत पर होता है. यदि लोगों की क्रय-शक्ति घटती है, तो वस्तुओं एवं सेवाओं की मांग भी कम होती है. ऐसे में औद्योगिक उत्पादन और बाजार की वृद्धि बाधित होती है, जो अंततः अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है. अनेक शोध इंगित कर चुके हैं कि बेरोजगारी का संबंध सामाजिक हिंसा और अपराध के बढ़ने से है.
बेरोजगारी कामगार की क्षमता को भी कुंद करती है और उसे मानसिक कुंठा का शिकार भी बनाती है. मौजूदा माहौल में रोजगारविहीन विकास पर समीक्षात्मक विश्लेषण की दरकार है. इस कोशिश में उद्योग जगत और पूंजी बाजार को साथ लेकर सरकार को कारगर उपाय खोजने चाहिए.