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प्रकृति की पूजा है छठ

कविता विकास लेखिका kavitavikas28@gmail.com पलभर के लिए जब बिजली चली जाती है, सघन अंधेरा और हाथ को हाथ नहीं सुझायी देता है तो, हम कैसे व्याकुल हो जाते हैं! जबकि यह अस्थायी होता है. फिर अगर सृष्टि में ऐसा बदलाव हो जाये कि सूर्य ही न उगे, तो क्या सहज जीवन संभव है? तात्पर्य है […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 13, 2018 6:46 AM
कविता विकास
लेखिका
kavitavikas28@gmail.com
पलभर के लिए जब बिजली चली जाती है, सघन अंधेरा और हाथ को हाथ नहीं सुझायी देता है तो, हम कैसे व्याकुल हो जाते हैं! जबकि यह अस्थायी होता है. फिर अगर सृष्टि में ऐसा बदलाव हो जाये कि सूर्य ही न उगे, तो क्या सहज जीवन संभव है? तात्पर्य है कि जीवन के सतत प्रवाह के लिए सूर्य का उगना अवश्यंभावी है. सूर्य है तो फसलें हैं, मेघ है, नदियां हैं, जीवन है?
इसी दिवास्पति के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए छठ पर्व मनाया जाता है. दिवाली के छह दिन बाद मनाया जानेवाला यह त्योहार बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में विशेषतः लोकप्रिय है. इस समय घर के आस-पास कोई गंदगी नहीं होनी चाहिए.
घाटों के लिए नदी-नहर, पोखर, तालाब आदि की विशेष सफाई होती है, क्योंकि पानी में खड़े होकर सूर्य देव को अर्घ्य दिया जाता है. जिस गेहूं से ठेकुआ जैसे मुख्य प्रसाद बनता है, उसे भी धोने के बाद किसी की निगरानी में सुखाया जाता है, ताकि कोई चिड़िया उस पर न बैठ जाये.
छठ में गरीब-अमीर का कोई भेदभाव नहीं रह जाता. किसी पकवान की भी जरूरत नहीं. शरद ऋतु में मिलनेवाले सभी फल और सब्जियों को प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता है, जैसे अदरक, हल्दी, गाजर, गन्ना आदि. मौसम के फल और सब्जी आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं .
इसीलिए छठ के गीतों में भी जमीन से जुड़ाव दिखाया जाता है. व्रती ढाई दिन का उपवास रखते हैं. छठ के पहले दिन अधोगामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. नदी-नहर, पोखरों और तालाबों की शोभा देखते ही बनती है. ढलते सूर्य की मद्धम रोशनी और व्रतियों का जल में खड़े होकर सूर्य देव की उपासना करना, क्या अद्भुत दृश्य होता है! जिन घरों में छठ का पर्व नहीं मनाया जा रहा होता है, उनकी भी यह उत्कट इच्छा होती है कि एक बार वे व्रती की भीगी साड़ी को ही छू लें, शायद व्रती के प्रताप से उनके भी कष्ट दूर हो जायें.
ढलता सूरज प्रतीक है कि जीवन की अवस्था सदा एक सी नहीं रहती. जो सूरज सुबह से शाम तक हमारी गतिविधियों को संचालित करता है, उसके अस्त होने पर भी हमारा अनुराग, विश्वास और आस्था उसके प्रति बना रहता है.
शाम वाले अर्घ्य के दूसरे दिन उर्ध्वगामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. अनेक असाध्य रोगों का निवारक, हमारे पंचतत्व युक्त शरीर का पालनकर्ता सूर्य के प्रति हमारी कृतज्ञता इस पूजा के माध्यम से प्रकट होती है. व्रती की कामना होती है कि उसके परिवार में सूर्य का तेज बना रहे, धन-धान्य की कमी न हो और सब नीरोग और कर्मठ बने रहें. नदियों के बहने, फसलों के पकने और मेघों के बनने का एकमात्र आधार सूर्य है.
युग आते हैं, मिट जाते हैं. सभ्यताओं के उत्थान-पतन का गवाह भी यही सूर्य है. सृष्टि के उद्गम और विनाश का मूल भी सूरज है. वह गति का प्रणेता है और हमारी सांसों के चलने का पर्याय है. इसलिए सूर्य-पूजन को किसी विशेष धर्म या संप्रदाय से जोड़कर नहीं देखना चाहिए. यह प्रकृति की पूजा है.

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