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विपक्षी एकता के नाविक नायडू

नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com हमारे देश में राजनीतिक दलों का पलटी मारना कोई नयी बात नहीं है. मुलायम सिंह यादव से लेकर नीतीश कुमार तक और ममता बनर्जी से लेकर जयललिता तक कई बार आश्चर्यजनक रूप से पैंतरे बदलते रहे हैं. बिल्कुल हाल में चंद्रबाबू नायडू का कांग्रेस से तालमेल करना कुछ ज्यादा ही […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 13, 2018 6:49 AM
नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
हमारे देश में राजनीतिक दलों का पलटी मारना कोई नयी बात नहीं है. मुलायम सिंह यादव से लेकर नीतीश कुमार तक और ममता बनर्जी से लेकर जयललिता तक कई बार आश्चर्यजनक रूप से पैंतरे बदलते रहे हैं.
बिल्कुल हाल में चंद्रबाबू नायडू का कांग्रेस से तालमेल करना कुछ ज्यादा ही चौंका गया. वर्ष 1982 में जब ‘तेलुगु देशम पार्टी’ (टीडीपी) बनाकर लोकप्रिय अभिनेता से राजनेता बने एनटी रामाराव ने राजनीति में कदम रखा था, तो तेलुगू-स्वाभिमान को कुचलने और आंध्र प्रदेश के साथ लगातार अन्याय करने के लिए कांग्रेस को सबसे बड़ा शत्रु घोषित किया था. बाद में उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू ने बगावत करके टीडीपी पर अपना कब्जा जमाया, तब भी तेलुगू-स्वाभिमान और आंध्र-गौरव की अलख जगाये रखते हुए कांग्रेस और सोनिया गांधी पर कड़े प्रहार करना जारी रखा. उनका पूरा अस्तित्व कांग्रेस-विरोध पर टिका हुआ था.
आज वही नायडू न केवल तेलंगाना का चुनाव कांग्रेस के साथ गठबंधन करके लड़ रहे हैं, बल्कि 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस को केंद्र में रखकर विपक्षी एकता की मुहिम छेड़े हुए हैं. याद रहे कि टीडीपी पिछले चार साल तक एनडीए की सहयोगी और मोदी सरकार में भागीदार रही. इससे स्पष्ट है कि भाजपा से उनकी बड़ी नाराजगी है.
उनका आरोप है कि आंध्र प्रदेश के साथ जो छल-कपट पहले कभी कांग्रेस करती थी, वही अब भाजपा कर रही है. कांग्रेस को हमने सजा दे दी, पिछले लोकसभा चुनाव में उसे एक सीट नहीं मिली. अब भाजपा को सजा देने का समय आ गया है.
नायडू ने पिछले दिनों कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, बसपा प्रमुख मायावती, सपा-बुजुर्ग मुलायम सिंह यादव, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, द्रमुक नेता स्टालिन, जनता दल (सेक्युलर) के देवगौड़ा और कुमारस्वामी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार, आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल और नेशनल कांफ्रेस के फारूख अब्दुल्ला से मुलाकात की है.
ममता बनर्जी से भी वे संपर्क में हैं. आनेवाले दिनों में वे दिल्ली में विपक्षी नेताओं की बैठक बुला रहे हैं. उन्होंने साफ कहा है कि 2019 में मिलकर नरेंद्र मोदी को हराने के लिए विपक्षी एकता जरूरी है. कांग्रेस के बारे में वे कह रहे हैं कि विपक्षी एकता के जहाज का लंगर वही बन सकती है, भले ही हमारे उससे मतभेद रहे हों. यह भी उन्होंने साफ कर दिया है कि वे गठबंधन के नेता होने के दावेदार नहीं, बल्कि भाजपा विरोधी दलों को एक करने में सहायक होना चाहते हैं.
तो, क्या चंद्रबाबू नायडू विपक्षी एकता के वह नाविक बन सकते हैं, जो तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद भाजपा-विरोधी दलों को एक साथ खे सके? जब-जब केंद्र में सत्तारूढ़ मजबूत दल एवं नेता को हराने की जरूरत पड़ी, विरोधी दलों को एकजुट करने के लिए एक मध्यस्थ की भूमिका महत्वपूर्ण हुई. कभी यह काम जेपी ने किया, तो कभी हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे मंजे नेता ने. साल 2019 में यह भूमिका निभाने के लिए नायडू की राह आसान नहीं होगी, हालांकि उन्हें गठबंधनों को बनवाने-चलवाने का अनुभव है.
आंध्र के नवाचारी और विकास-धर्मी मुख्यमंत्री के रूप में नायडू की देशव्यापी पहचान है. सूचना प्रोद्योगिकी के विकास और शासन-प्रशासन में उसके सार्थक उपयोग शुरू करने का श्रेय भी उन्हें है. वर्ष 1996 और 1997 में केंद्र में संयुक्त मोर्चा की तथा 1999 में एनडीए की सरकार बनवाने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही. उन दिनों उन्हें ‘किंगमेकर’ नाम से जाना गया था. क्या एक बार फिर वे उस भूमिका को सफलतापूर्वक निभा पायेंगे?
बीते 27 अक्तूबर को मायावती से मिलकर ही नायडू को अनुभव हो गया होगा कि इस बार की राह बहुत कठिन होनेवाली है. ममता बनर्जी से मिलकर भी उन्हें ऐसा ही लगे, तो आश्चर्य नहीं. हालांकि, दोनों ही नेत्री अभी मोदी सरकार के बहुत खिलाफ हैं, लेकिन उनकी अपनी शर्तें हैं और महत्वाकांक्षाएं भी.
मायावती ने नायडू को किसी तरह का आश्वासन नहीं दिया. उल्टे, अजित जोगी ने मायावती को प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन घोषित कर नायडू की मुश्किलें बढ़ा दी हैं. मायावती और अजित जोगी छत्तीसगढ़ में मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं. उधर, ममता बनर्जी ने बहुत पहले से जनवरी 2019 में कोलकाता में भाजपा-विरोधी दलों की बड़ी रैली करने का ऐलान कर रखा है. इसमें वे कांग्रेस से लेकर बसपा तक को बुला रही हैं. जाहिर है, उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं.
नायडू की पहली बड़ी बाधा यही है कि नेता का नाम पहले तय करके कोई मोर्चा बनाना लगभग असंभव होगा. दूसरी बड़ी समस्या नायडू का कांग्रेस को विपक्षी एकता का लंगर घोषित करना बनेगी. भाजपा-विरोधी कई दल और नेता हैं, जो कांग्रेस को साथ लेने पर भले राजी हो जायें, उसे एकता की धुरी बनाने के नाम पर बिदक जायेंगे.
नायडू का एक फॉर्मूला काम कर सकता है. दिल्ली में राहुल समेत कुछ बड़े नेताओं से मिलने के बाद उन्होंने जो कहा, उससे इस फॉर्मूले के संकेत मिलते हैं. उनका कहना है कि ममता बनर्जी बंगाल में, स्टालिन तमिलनाडु में, देवगौड़ा कर्नाटक में, मायावती-अखिलेश उत्तर प्रदेश में, शरद पवार महाराष्ट्र में, अब्दुल्ला कश्मीर में और वे खुद आंध्र एवं तेलंगाना में मजबूत हैं.
इसमें बिहार में लालू यादव की पार्टी को जोड़ा जा सकता है. यानी क्षेत्रीय स्तर पर मजबूत भाजपा-विरोधी दलों को अपने-अपने राज्यों में मिलकर लड़ाया जाये. और जहां भाजपा से कांग्रेस की सीधी टक्कर है, वहां कांग्रेस का साथ दिया जाये. इस तरह राज्यवार अलग-अलग रणनीति से ही भाजपा को हराया जा सकता है. गठबंधन के नेता का सवाल चुनाव बाद के लिए छोड़ दिया जाये.
नायडू शायद इसी सूत्र पर काम कर रहे हैं. वे भाजपा-विरोध को एकता की डोर बना रहे हैं. उन्होंने साफ कर दिया है कि देश में इस समय दो ही प्लेटफॉर्म हैं. एक, भाजपा और दूसरा, भाजपा-विरोधी. जो हमारे साथ नहीं है, वह भाजपा के साथ माना जायेगा. भाजपा को हराने को नायडू ‘देश को बचाना’ मान रहे हैं.
आम चुनाव में भाजपा को हराने की अनिवार्यता अनुभव करने के बाद भी कई क्षेत्रीय क्षत्रपों की दूसरी भी प्राथमिकताएं हैं. गठबंधन के सहारे कांग्रेस पुनर्जीवित हुई, तो कई क्षेत्रीय दल उसे अपने लिए खतरा मानते हैं. इसलिए अपना राजनीतिक मैदान बचाये रखना भी उनकी प्राथमिकता है. चूंकि तत्काल बड़ा खतरा भाजपा दिख रही है, इसलिए नायडू की मुहिम आगे बढ़ सकती है.

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