डॉ शैबाल गुप्ता
सदस्य सचिव, एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीच्यूट (आद्री), पटना
shaibalgupta@yahoo.co.uk
अपने पहले ही टेस्ट में सेंचुरी लगाने के बावजूद कोई बिहारी इस बात को लेकर निश्चिंत नहीं हो सकता है कि अपने राज्य के बाहर उसका विरोध नहीं होगा. मूलतः बिहार के गया के वासी पृथ्वी पंकज शॉ, जिनका असली सरनेम गुप्ता है और जो मुंबई में रहते हैं, ने टेस्ट क्रिकेट में एंट्री से पहले ही तमाम घरेलू रिकाॅर्ड तोड़ डाले थे.
हैदराबाद में वेस्टइंडीज के खिलाफ अपने पहले ही टेस्ट में सेंचुरी लगाने के बाद जब उन्होंने राज खोला कि वे बिहारी मूल के हैं, तो महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने इस युवा क्रिकेटर को आघात पहुंचाया. वहीं, एक कंस्ट्रक्शन साइट पर बिहारी मूल के एक इंजीनियर और छह प्लंबरों की जबरदस्त पिटाई कर दी गयी. ये घटनाएं बिहार और बिहारियों को लेकर व्याप्त नकारात्मक छवि का नमूना हैं.
पश्चिमी राज्यों में तो बिहारी तिरस्कार के योग्य ही माने जाते हैं. महानगर दिल्ली की चकाचौंध, चमक-दमक और साफ-सफाई को बरकरार रखने के लिए जहांगीरपुरी के एक सीवर टैंक की सफाई करते वक्त कटिहार जिले का 32 साल का दलित युवक डोमन राय उसी सीवर में डूब गया. किसी ने भी उसकी इस शहादत को दर्ज नहीं किया, ना ही उसके लिए आंसू की एक भी बूंद बहायी.
हाल ही के दिनों में गुजरात से बिहारियों और हिंदी भाषी मजदूरों का पलायन शुरू हो गया. इसकी वजह यह है कि एक मानसिक रूप से विकृत बिहारी मजदूर ने चौदह महीने की एक बच्ची के साथ गुजरात के साबरकांठा जिले में 28 अक्तूबर को दुष्कर्म किया था. हालांकि, इस घृणित अपराध को अंजाम देने के तत्काल बाद उसे गिरफ्तार कर लिया गया.
इसके बावजूद उसके इस नीच कर्म ने क्षेत्रीय आक्रोश को जन्म दिया और बिहारियों और अन्य उत्तर भारतीय अर्ध प्रशिक्षित और अप्रशिक्षित मजदूरों के खिलाफ एक आंदोलन उठ खड़ा हुआ. इसमें कोई शक नहीं कि यह घटना पैशाचिक थी.
घटना के बाद उठी नाराजगी को गुजरात के विकास मॉडल के गंभीर कमी के रूप में देखा जा सकता है, जो इन दिनों अधिक उत्पादन के संकट से जूझ रहा है. गौरतलब है कि इस राज्य की समृद्धि और अत्यधिक मुनाफे की पूरी इमारत प्रवासी मजदूरों की मेहनत से खड़ी हुई है, जिन्हें न्यूनतम वेतन पर काम करना पड़ता है. वहां के उद्योगों में स्थानीय लोगों को 85 फीसदी नौकरी देने का नियम है, मगर इसका भी अनुपालन नहीं होता है. क्योंकि वहां वैसे ही बड़ी संख्या में सस्ते प्रवासी मजदूर उपलब्ध रहते हैं.
गुजरात में चलनेवाला ‘प्रवासी भगाओ आंदोलन’ कुछ-कुछ वैसा ही है, जैसा कि अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में बंबई में दत्ता सामंत समर्थित हड़ताल थी, जिसका मकसद अधिक उत्पादन के संकट से वस्त्र उद्योगपतियों को राहत दिलाना था. ध्यान रहे कि गुजरात की अर्थव्यवस्था के फलने-फूलने की कहानी तब तक पूर्ण नहीं होती, जब तक वहां के उद्योगपति स्थानीय कामगारों के प्रति सद्भाव न करें.
गुजरात की अर्थव्यवस्था में आये ठहराव की खबर को ढकने के लिए सूरत के उस हीरा व्यापारी की खबर को बढ़ावा दिया गया, जिसने अपने कर्मचारियों को दीवाली बोनांजा के तौर पर छह सौ कार और नौ सौ फिक्स डिपोजिट प्रमाणपत्र का उपहार दिया. जाहिर है, वहां के नियोक्ताओं का स्थानीय कर्मचारियों के प्रति व्यवहार अलग होता है और प्रवासी मजदूरों के प्रति रुख अलग रहता है.
मौजूदा परिदृश्य के उलट ऐतिहासिक तौर पर गुजरात और बिहार के बीच काफी नजदीकी संबंध रहा है. न सिर्फ महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय आंदोलन के नट-बोल्ट बिहार के चंपारण में कसे, बल्कि दोनों राज्यों के परंपरावादी राजनेताओं के बीच भी काफी नजदीकी रही थी. सरदार पटेल ने राजेंद्र प्रसाद को भारत का पहला राष्ट्रपति बनाया, जबकि जवाहरलाल नेहरू की उनके बारे में बहुत अच्छी राय नहीं थी.
बाद में, सातवें दशक में मोरारजी देसाई के पुत्र कांति देसाई की बिहार के बेगूसराय से संसदीय चुनाव लड़ने की चर्चा चली थी. गुजरात राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों बाजारों के समेकन के प्रति जागरूक रहा था. इसलिए गुजरात का हालिया ‘प्रवासी भगाओ आंदोलन’ पूरी तरह एक अराजक अभियान लगता है.
गुजरात हमेशा से भारत के केंद्रीय राष्ट्रवाद का सूत्रधार रहा है. यह राष्ट्रवाद आवश्यक रूप से लोकोपकारी ही नहीं था, इसके पीछे अपने उत्पादों के लिए एक मजबूत बाजार हासिल करने की योजना भी थी. यह हमेशा से माना जाता है कि अगर अंग्रेज भारत नहीं आये होते, तो सूरत से ही देश की औद्योगिक क्रांति शुरू हुई होती. गुजरात की बाजारवादी विरासत और भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ इसका एकीकरण आजादी के बाद के दौर में स्थापित हुआ, क्योंकि तब कई केंद्रीय वित्त मंत्री इसी राज्य से थे. अब, भारत गुजरात केंद्रित विकास के मॉडल का अनुभव कर रहा है.
राष्ट्रवाद बाजार के विकास के लिए एक आवश्यक उत्प्रेरक है. भारत दो तरह के राष्ट्रवाद का घर रहा है, एक पैन-इंडियन, दूसरा क्षेत्रीय. दोनों राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय, सामानांतर तरीके से काम करते हैं, बिना एक-दूसरे से उलझे. तमिल, तेलुगु, गुजराती, मराठी, पंजाबी या बंगाली उपराष्ट्रवाद शांतिपूर्ण तरीके से भारतीय राष्ट्रवाद के साथ जिंदा हैं. मगर विडंबना है कि हिंदी हृदयभूमि में उपराष्ट्रवाद का सूत्रधार गैरहाजिर है. इस प्रक्रिया में राज्य के स्वामित्व का बोध भी अनुपस्थित है.
बिहार में दो तरह की पहचान है- या तो जातिवादी या राष्ट्रवादी. ज्यादातर बिहार के प्रवासी अपनी उपराष्ट्रवादी पहचान का अनुभव तभी करते हैं, जब वे अपने राज्य के बाहर जाते हैं और स्थानीय गुंडों की यातना सहते हैं. यह हिंदी हृदयभूमि में खास कर बिहार के संभ्रांत तबके के लिए दुखद तथ्य है कि उन्होंने अपनी उपराष्ट्रवादी पहचान को विकसित नहीं किया. न ही अपनी संस्कृति में मूल्य वृद्धि का कोई प्रयास किया है.
भारत के ज्यादातर मजबूत उपराष्ट्रवादी राज्यों की इमारत जीवंत सांस्कृतिक उपादान की बुनियाद पर ही खड़ी हुई है. इस प्रक्रिया में, साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, प्लास्टिक कला, आदि विकसित हुए हैं. इस ‘सॉफ्ट पावर’ को विकसित किये बगैर एक प्रामाणिक क्षेत्रीय पहचान विकसित नहीं हो सकती. जब संभ्रांत तबका उपराष्ट्रवादी पहचान का उत्सव मनायेगा, तो यह प्रवासियों का सुरक्षा कवच बन जायेगा. यह केंद्र के साथ-साथ संबंधित राज्य सरकारों की भी जिम्मेदारी है कि वे सुनिश्चित करें कि प्रवासियों पर हिंसक हमले न हों. वरना भारतीय संघ सुरक्षित नहीं रह पायेगा.