अफीम के उपयोग की बढ़ती प्रवृत्ति
मोहन गुरुस्वामी अर्थशास्त्री कारोबार के लिहाज से अवैध ड्रग का व्यापार इस वक्त दुनिया का संभवतः अकेला सबसे बड़ा व्यवसाय है. इंटरनेशनल नारकोटिक्स कंट्रोल बोर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस समय यह व्यवसाय 500 बिलियन डाॅलर का है. अमेरिका नशीले पदार्थों का दुनिया का सबसे बड़ा आयातक देश है, जो अकेले 100 बिलियन डाॅलर […]
मोहन गुरुस्वामी
अर्थशास्त्री
कारोबार के लिहाज से अवैध ड्रग का व्यापार इस वक्त दुनिया का संभवतः अकेला सबसे बड़ा व्यवसाय है. इंटरनेशनल नारकोटिक्स कंट्रोल बोर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस समय यह व्यवसाय 500 बिलियन डाॅलर का है. अमेरिका नशीले पदार्थों का दुनिया का सबसे बड़ा आयातक देश है, जो अकेले 100 बिलियन डाॅलर से ज्यादा ड्रग्स पर खर्च करता है. चूंकि मादक पदार्थों का व्यापार ज्यादातर डाॅलर में ही होता है. इसलिए डाॅलर का साम्राज्य पूरी दुनिया में काबिज है.
कोकीन पश्चिमी उच्च वर्ग तथा विकासशील देशों के उच्च वर्ग के एक छोटे तबके की पसंदीदा मादक दवा है, जबकि हेरोइन दुनिया के आम लोगों का नशा है. पहली बार साल 1879 में जर्मनी की बेयर फार्माक्यूटिकल कंपनी ने हेरोइन बनाया था और ग्रीक शब्द ‘हेरोज’ के आधार पर हेरोइन नाम गढ़ा, जिसका अर्थ अर्धनारीश्वर था. यह नाम संभवतः इसलिए रखा गया कि इसका सेवन करनेवाले को शौर्य बोध का भ्रम होता था.
चाहे कोकीन हो, हेरोइन हो अथवा एम्फेटेमाइंस सरीखी संश्लेषित दवाएं कोक की पत्तियों और अफीम के पोस्ते जैसे पदार्थों का रूपांतरण हैं. दुर्भाग्य से इस व्यापार से पैदा होनेवाली बड़ी दौलत का बहुत छोटा हिस्सा इसके प्रारंभिक उत्पादकों तक पहुंचता है. नारकोटिक्स व्यवसाय के हर चरण में इसका मूल्यवर्द्धन होता जाता है. ये नशीले पदार्थ ही हैं जो बर्मा, अफगानिस्तान, पेरू, कोलंबिया और पाकिस्तान आदि को वित्तीय तौर पर गतिशील बनाये हुए हैं.
दुनिया के लगभग सभी बड़े कोकीन उत्पादक केंद्र दक्षिण अफ्रीका में स्थित हैं. अमेरिका की सकल सालाना खपत का तीन-चौथाई हिस्सा- लगभग 45 बिलियन डाॅलर कीमत की कोकीन कोलंबिया से आती है. ब्रिटेन की नेशनल इंटेलिजेंस सर्विसेज के मुताबिक, एक ग्राम कोकीन की खुदरा कीमत 96 अमेरिकी डाॅलर थी, जबकि हेरोइन की कीमत 100 डाॅलर थी. इसे सुखद या दुखद मानना इस बात पर निर्भर करता है कि आप इसे किस तरह देखते हैं.
समस्या यह है कि 1990 से इसकी खुदरा कीमत में गिरावट देखी जा रही है, जबकि कोकीन और हेरोइन की कीमतें मौजूदा कीमतों से 50 फीसदी अधिक थीं. यह सिर्फ यही दर्शाता है कि कहीं अधिक सक्षम और कुशल उत्पादन के जरिये इसकी अधिक उपलब्धता संभव बनायी गयी, न कि मांग में आयी किसी गिरावट के कारण. इसके उपभोग में 12 फीसद इजाफे का अनुमान किया गया है.
मादक पदार्थों के सबसे बड़े उपभोक्ता के रूप में अमेरिका का दुनिया के सबसे सक्रिय ड्रग निगरानी कर्ता होने के पीछे उसका निहित स्वार्थ है. वह दक्षिण अमेरिका में एक सक्रिय निषेध कार्यक्रम चला रहा है, जिसमें न सिर्फ सैन्य सहयोग शामिल है, बल्कि कई लातीनी-अमेरिकी सरकारों को विशाल घनराशि का सहयोग भी शामिल है.
अमेरिका द्वारा अंतरराष्ट्रीय नारकोटिक्स नियंत्रण के लिए दी गयी सहयोग राशि 948 मिलियन डाॅलर में से 762 मिलियन डाॅलर दक्षिण अमेरिका के लिए निर्धारित था. इसके अतिरिक्त, पेंटागन ने 1 बिलियन डाॅलर सैन्य सहयोग पर खर्च करता है. अमेरिका मादक पदार्थ नियंत्रण पर सालाना 19 बिलियन डाॅलर खर्च करता है.
निस्संदेह अमेरिका के प्रयासों का अधिक झुकाव कोकीन निषेध तथा इसके उत्पादन पर नियंत्रण में हैं. इसके कारण भी हैं. आठ सौ कोकीन उपभोक्ताओं के बीच सर्वेक्षण में खुलासा हुआ कि औसत उपभोक्ता 31 वर्षीय, श्वेत और कॉलेज से शिक्षा प्राप्त मध्यवर्गीय पुरुष था, जिसका वेतन मध्यम श्रेणी से ऊपर था. परेशान करनेवाली प्रवृत्ति किशोरों, खासकर हाइस्कूल के छात्रों के बीच उपभोग का बढ़ना थी.
दूसरी ओर हेरोइन गरीबों का पसंदीदा नशा है. हेरोइन उपभोग करनेवालों के बीच स्टैनफोर्ड विवि के प्रोफेसर जॉन कपलन द्वारा किये गये एक अध्ययन में तथ्य सामने आये कि इनमें 75 फीसदी पुरुष थे, 55 फीसदी अश्वेत, 44 फीसदी हिस्पैनिक थे. इनमें 36 फीसदी 30 साल से नीचे, 61 फीसदी लोग कम शिक्षित थे तथा 81 फीसदी लोग बेरोजगार थे.
आज दो सबसे बड़े उत्पादन केंद्र गोल्डेन ट्रायंगल और गोल्डेन क्रेसेंट हैं. गोल्डेन ट्रायंगल अफीम का पोस्ता और हेरोइन बनानेवाने उत्तरी बर्मा, थाईलैंड और लाओस का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि गोल्डेन क्रेसेंट पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करता है.
भारत इन दोनों केंद्रों के बीच पिस रहा है. अचरज नहीं कि कुछ भारतीयों की इसमें भागीदारी है. इस वजह से भारत एक बड़ा एसेटिक एनहाइड्राइड केंद्र बन गया है, जो मार्फीन से शुद्ध हेरोइन बनाने में इस्तेमाल होनेवाला मुख्य तत्व है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गजरौला में जाकर आप जान सकते हैं कि यह व्यापार कितना बड़ा है.
एक टन हेरोइन बनाने में दस टन से ज्यादा अफीम लगती है. यूएनडीसीपी के मुताबिक एशिया में 2.65 लाख हेक्टेयर जमीन पर 4,861 टन अफीम की खेती होती है. एक हेक्टेयर की खेती से एक अफगानी को 16,000 डाॅलर का मुनाफा होता है.
वहीं, अब अफगानी किसान को अपनी फसल नष्ट करने के लिए 1,250 डाॅलर दिये जा रहे हैं- आज अफगानी बेहतर व्यवसायी हैं! अफीम की 90 फीसदी वैश्विक उपज में अस्सी फीसदी हिस्सा अफगानिस्तान और बर्मा का होता है. अमेरिकी सरकार के मुताबिक, बर्मा विश्व के 60 फीसदी हेरोइन उत्पादन के लिए जवाबदेह है, जाे अफगानिस्तान की मौजूदा उपज का दोगुना है. बड़ी विडंबना है कि साम्यवाद को रोकने के लिए सीआइए द्वारा चलाये अभियानों के परिणामस्वरूप इन दोनों क्षेत्रों में हेरोइन का उत्पादन बढ़ता रहा है.
अरबों द्वारा भारत लायी गयी अफीम और इसके उपयोग की प्रवृत्ति इस तीव्रता से फैली कि धर्म प्रचारक भी इससे ईर्ष्या करेंगे. सोलहवीं सदी में पुर्तगालियों ने जावा में चीनी श्रमिकों को अफीम से परिचित कराया.
पुर्तगालियों से ईस्ट इंडिया ने यह व्यापार चुरा लिया और 1838 तक बंगाल सालाना 2,400 टन अफीम चीन को निर्यात करने लगा था. बहरहाल, हेरोइन के इस व्यापार से पाकिस्तान को एक साल में 4 बिलियन डाॅलर की कमाई होती है. हेरोइन ने भारत में भी पैठ बनायी है. हेरोइन के उपभोक्ता भारत में तीन लाख से अधिक हैं.
हालांकि, यह संख्या बीस गुना भी हो सकती है. पंजाब और मणिपुर जैसे सीमावर्ती राज्यों में यह एक गंभीर समस्या है. और अब ऐसा लगता है कि धर्म द्वारा जनता के प्रभावित होने की बजाय अफीम ही जनता का धर्म बनती जा रही है.
(अनुवादः कुमार विजय)