लेकिन राजनीति में पूर्ण विराम नहीं होता
।। अजय सिंह ।। एडिटर, गवर्नेस नाउ नीतीश का शासनकाल बिहार की सफलतम कहानी है, पर इसका अंत अत्यंत दारुण है. जब अपराधी सरगना, उनकी पत्नियां और दलबदलू घमंड की लहर पर सवार होकर चुनाव जीत सकते हैं और रघुवंश प्रसाद सिंह एवं जगदानंद सिंह जैसे राजनेता हार सकते हैं, तब सामूहिक बुद्धिमत्ता और व्यापक […]
।। अजय सिंह ।।
एडिटर, गवर्नेस नाउ
नीतीश का शासनकाल बिहार की सफलतम कहानी है, पर इसका अंत अत्यंत दारुण है. जब अपराधी सरगना, उनकी पत्नियां और दलबदलू घमंड की लहर पर सवार होकर चुनाव जीत सकते हैं और रघुवंश प्रसाद सिंह एवं जगदानंद सिंह जैसे राजनेता हार सकते हैं, तब सामूहिक बुद्धिमत्ता और व्यापक मतिभ्रम में अंतर करना मुश्किल हो जाता है.
पटना के गांधी मैदान पुलिस थाने से कुछ कदम दूर स्थित मेनलैंड चाइना रेस्त्रं इस शहर के महानगरीय अभिजनों का नया अड्डा है. इस रेस्त्रं का माहौल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में फैले इस वैश्विक श्रृंखला के किसी अन्य रेस्त्रं से अलग नहीं है. इसके खाने के साथ भी यही बात है कि इसमें कोई बिहारीपन नहीं है. आपको खाना परोसनेवाले दिल्ली की तरह ही अच्छी या बुरी अंगरेजी बोलते हैं.
यह बिहार की आकांक्षाओं का अकेला प्रतीक नहीं है. पटना में कुछ समय के प्रवास में ही आपको यह भरोसा हो जायेगा कि बिहार की राजधानी एक महानगर में बदलने के लिए आतुर है.
आपको मौर्या होटल में सहज ढंग से अतिथियों का सत्कार करती लड़कियां दिख जायेंगी, जो उनके आत्मविश्वास का परिचायक है. इस स्थिति की तुलना आप एक असभ्य शहर के रूप में पटना की पुरानी छवि से करें, जब किसी भोज के अवसर पर होटल के गलियारे में ही बकरे को काटा जा सकता था. 1990 के दशक के शुरू में मारुति कार या महंगी बाइक खरीदना लूट का निश्चित निमंत्रण था. पूरा राज्य ऐसी राजनीतिक संस्कृति में जकड़ा हुआ था, जिसमें कानून का नहीं, बल्कि बाहुबल का राज ही नियम था. यह भयावह अतीत अब इतने गहरे में दफन हो चुका है कि अव्यवस्था और अपराध की वे कहानियां आज काल्पनिक प्रतीत होती हैं. यह सोचना अपरिपक्वता होगी कि बिहार रातो-रात बदल गया है.
2005 में नीतीश कुमार युग के आगमन से पूर्व लालू-राबड़ी राज के 15 वर्षों के कुशासन के बाद सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता का नकाब उतर गया था, जिसने अपराधीकरण और राजनीतिक लंपटई को संरक्षण दिया था. भाजपा के शक्तिशाली सांगठनिक और प्रचार तंत्र के सहयोग से नीतीश ने ‘नया बिहार, नीतीश कुमार’ के नारे के साथ लोगों का भरोसा जीता. वास्तव में, वे उभरते नये बिहार के प्रतीक बन गये थे. पटना के रेस्त्रं या आलीशान होटलों में आज जो दिख रहे हैं, वे बिहार के समाज में गहरे सांस्कृतिक और आर्थिक परिवर्तनों के प्रतीक हैं.
लेकिन लोकसभा चुनावों ने एक बार फिर साबित किया कि परिवर्तन में अपने प्रतिनिधियों के भक्षण की प्रवृत्ति होती है. नीतीश और जदयू की पराजय के कई कारण हो सकते हैं, पर किसी ने भी उनका उतना नुकसान नहीं किया, जितना उनके द्वारा लायी गयी परिवर्तन की शक्तियों ने किया. कृषि में लगातार करीब दस फीसदी की दर से बढ़त ने अभूतपूर्व पैमाने पर धन का सृजन किया.
इसका परिणाम उल्टे पलायन के रूप में सामने आया. जो लोग रोजगार की तलाश में राज्य से बाहर गये थे, उन्हें अब यह अपने गांव-शहरों में ही मिलने लगा था. ग्रामीण बिहार में बड़ी सफलताओं की ऐसी अनगिनत कहानियां हैं, जिन्हें एक ऐसी संस्कृति ने संभव किया है जिसमें प्रतिभा और अन्वेषण को प्रोत्साहित किया जाता है.
साक्षरता में बढ़ोतरी से, विशेष रूप से लड़कियों में, प्रजनन की दर में कमी आयी और जनसंख्या वृद्धि नियंत्रित हुई. यह एक सकारात्मक बदलाव था, क्योंकि राज्य के कुछ हिस्से दुनिया के सबसे सघन आबादी वाले क्षेत्रों में शुमार किये जाते है. स्थानीय निकायों में महिलाओं के सशक्तीकरण की नीतीश की महत्वाकांक्षी योजना उनकी इस समझदारी पर आधारित थी कि महिलाएं समाज को बनाने में पुरुषों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण को स्पष्ट करते हुए उन्होंने एक बार कहा था कि गांव में कोई औरत इस बात को स्वीकार नहीं कर सकती कि शिक्षकों के नहीं आने की वजह से उनके बच्चे शिक्षा से वंचित रह जायें.
बिहार बहुत बदला है. उत्तर प्रदेश से होकर आने पर आपको ऐसा बिहार मिलेगा, जहां आपको हिचकोले नहीं मिलेंगे (जबकि बिहार से उधर जायेंगे तो ऐसा नहीं है). बिहार अब सूर्यास्त के बाद अंधेरे में डूबा हुआ सूबा नहीं है. बिजली की आपूर्ति में सुधार के साथ ऊर्जा की खपत में चार गुना इजाफा हुआ है. बिहार अब चुटकुलों का विषय नहीं है. आठ वर्षों के भीतर क्षोभ-भरी निराशा की जगह चारों तरफ पसरे भरोसे ने ले ली. 2010 के विधानसभा चुनावों में मिली भारी जीत परिवर्तनकारी की उनकी छवि का ही जोरदार अनुमोदन था. परंतु अपनी प्रकृति से नीतीश आधिक्य के समक्ष समर्पण करनेवालों में नहीं हैं.
अपने दूसरे कार्यकाल में अक्सर उनका सामना उन्हीं तत्वों से हुआ, जो इन बदलावों की पैदाइश थे. मसलन, लखीसराय और बेगूसराय में नियमित बहाली की मांग को लेकर अनियमित शिक्षकों के विरोध उस प्रशासन से उभरते मध्य वर्ग के असंतोष के संकेत थे, जो आकाश छूती अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पा रहा था. बिहार के सुदूर इलाकों को पटना से जोड़ती अच्छी सड़कों तथा राज्य में शांतिपूर्ण वातावरण के बाद लोगों की मांगें बढ़ती रही हैं और अगर प्रशासन उन्हें पूरा करने में देर लगाता है तो उनका असंतोष बढ़ता है. अपनी स्वाभाविक कमजोरी से लाचार आलसी नौकरशाही ने नीतीश द्वारा लाये संरचनात्मक परिवर्तनों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया. जैसे, परेशान करनेवाली नौकरशाही ने स्थानीय निकायों की व्यवस्था को अप्रभावी बना दिया. ग्रामीण विकास के लिए आवंटित धन नौकरशाही और उभरते ग्रामीण राजनीतिक वर्ग के बीच खींच-तान का कारण बन गया.
नौकरशाही की अक्षमता और मुख्यमंत्री के विरुद्ध चल रहे दुष्प्रचार को रोकने के लिए जदयू के पास कोई समानांतर सांगठनिक ढांचा भी नहीं था. भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी को उम्मीदवार बनाने के बाद उससे गठबंधन तोड़ने का नीतीश का निर्णय समाज के कई वर्गो को रास नहीं आया, विशेषकर शहरी और ग्रामीण बिहार में उभरते नव मध्यम वर्ग ने इसे परिवर्तन के विरुद्ध नीतीश का प्रतिरोध माना. मोदी ने सिर्फ इस वर्ग को आकर्षित ही नहीं किया, बल्कि तेजी से समृद्धि और शांति लाने का वादा करनेवाले गुजरात मॉडल के इर्द-गिर्द एक शक्तिशाली प्रचार खड़ा कर दिया. बिहार के ‘कल्पना में बने समृद्ध’ गुजरात बनने का सपना इस वर्ग के दिलो-दिमाग में पैठ गया.
मोदी की पिछड़ी जाति की पृष्ठभूमि और मर्दानगी ने भी एक वैकल्पिक राजनीतिक विमर्श खड़ा कर दिया, जिसने लोगों को धार्मिक आधार पर भी लामबंद किया. विडंबनात्मक रूप से परिवर्तन के वाहक नीतीश को उन्हीं के लक्ष्यों की राह में रोड़ा के रूप में सफलतापूर्वक प्रस्तुत कर दिया गया.
नीतीश के मोदी-विरोध को उनकी अतिरेकी महत्वाकांक्षाओं से जोड़ कर देखा गया. भारत को लेकर मोदी के विचारों के उनके द्वारा किये जा रहे निरंतर विरोध को प्रकृति से अवसरवादी और तर्क से खोखला बताया गया. अपने नैतिक मानदंडों के आधार पर विचारधारात्मक राह पर चलने की उनकी दृढ़ता को सत्ता का अहंकार बताया गया. आखिरकार, बिहार के इस अतार्किक दौर में नीतीश तर्क में कमजोर पड़ गये.
शायद, बिहार 2014 के लोकसभा चुनाव की त्रासदी से उबरेगा. इस बात के पूरे संकेत हैं कि भाजपा द्वारा चुपचाप उकसाये गये जदयू में विद्रोह से यह सरकार गिर जायेगी और अगले छह महीने में समय से पहले विधानसभा के चुनाव होंगे. यह तब और साफ हो गयी जब जदयू के बागियों ने रामविलास पासवान, राजीव प्रताप रुढ़ी और रामकृपाल यादव द्वारा खाली की गयी तीन राज्यसभा सीटों के लिए अपने उम्मीदवार खड़े कर दिये. जीतनराम मांझी की अल्पमत सरकार आगामी विधानसभा सत्र में अपना अस्तित्व नहीं बचा पायेगी.
अब, जबकि मोदी प्रधानमंत्री बन चुके हैं, भाजपा नीतीश को पूरी तरह हाशिये पर धकेलने का कोई भी मौका नहीं छोड़ेगी. नीतीश के नौ वर्षो के शासन में बदलाव से पैदा हुई ताकतें भी चालाक तर्को और चतुर मुहावरों के प्रभाव में हैं, जो अभी राजनीतिक विमर्श पर काबिज हैं. जहां तक नीतीश के अपने पक्ष का प्रश्न है, तो वे अपने पूर्व समर्थकों के निशाने पर हैं, जिनका पैंतरा, अगर शेक्सपियर से पंक्ति उधार लेकर कहें, तो कुछ इस तरह है- ‘मैं नीतीश को प्यार करता हूं, लेकिन मैं बिहार को अधिक प्यार करता हूं’. वे उन्हें राजनीतिक रूप से नीचा दिखाने की पूरी कोशिश में हैं.
नीतीश का शासनकाल आजादी के बाद बिहार की सफलतम कहानी है, लेकिन इसका अंत उतना ही दारूण है. जब अपराधी सरगना, उनकी पत्नियां और आदत से मजबूर दलबदलू घमंड की लहर पर सवार होकर चुनाव जीत सकते हैं और रघुवंश प्रसाद सिंह एवं जगदानंद सिंह जैसे राजनेता हार सकते हैं, तब सामूहिक बुद्धिमत्ता और व्यापक मति भ्रम में अंतर करना मुश्किल हो जाता है. अभी बिहार में बदलाव की गाथा कुछ देर के लिए स्थगित है, लेकिन राजनीति में कभी पूर्ण विराम नहीं होता.