अपराध के बाद दुख का न होना

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार kshamasharma1@gmail.com दिल्ली में एक डिजाइनर की हत्या उसी के यहां काम करने वाले दर्जियों ने कर दी. एक किशोर ने अपने पिता को दोस्तों से मिलने से मना करने पर खत्म कर दिया. एक लड़की ने अपने मित्र से मिलने पर आपत्ति करने पर अपने माता-पिता और अन्य परिवार के लोगों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 21, 2018 7:26 AM

क्षमा शर्मा

वरिष्ठ पत्रकार

kshamasharma1@gmail.com

दिल्ली में एक डिजाइनर की हत्या उसी के यहां काम करने वाले दर्जियों ने कर दी. एक किशोर ने अपने पिता को दोस्तों से मिलने से मना करने पर खत्म कर दिया. एक लड़की ने अपने मित्र से मिलने पर आपत्ति करने पर अपने माता-पिता और अन्य परिवार के लोगों को दूध में मिला कर जहर दे दिया, सबकी मृत्यु हो गयी.

मामूली बातों पर अपनों द्वारा या परिचित मित्रों द्वारा जान लेना, जैसे रोज की बातें बनती जा रही हैं. थोड़ी सी डांट, मन की न करने देना, रोक-टोक , समय पर वेतन न देना, या किसी और बात पर इतना अधिक गुस्सा जो विवेक को खत्म कर दे, अच्छे और बुरे का फर्क मिटा देता है. अक्सर जब भी अपराधों के बारे में हम सोचते हैं, तब बाहर वालों का खयाल आता है.

इसलिए तमाम किस्म की सावधानियां बाहर के लिए ही बतायी जाती हैं कि बाहर निकलो, तो संभल कर निकलो. किसी का दिया कुछ न खाओ. किसी से ज्यादा बातें मत करो. लड़ो-झगड़ो मत. रात में देर से लौट रहे हो और आॅटो या टैक्सी की सवारी कर रहे हो, तो नंबर घर पर मैसेज कर दो. पुलिस हेल्पलाइन का नंबर हमेशा अपने पास रखो.

जब भी अपनों या आसपास के लोगों द्वारा अपराध किये जाते हैं, तो डर के मुकाबले अविश्वास पहले होता है कि भला ऐसा कैसे हो सकता है. कोई बेटा अपने पिता को कैसे मार सकता है! कोई बेटी बाहर के मित्र के लिए अपने परिवार को कैसे खत्म कर सकती है! जिस डिजाइनर का ऊपर जिक्र है, उसे जिस दर्जी ने अपने साथियों के साथ मारा, वह महिला उस लड़के की बहुत मदद करती थी. उसे एक बाइक भी खरीदकर दी थी.

उसके घर में ही यह लड़का रहता था. फिर समय पर वेतन न मिलने या डांटने पर उसे इतना गुस्सा कैसे आया कि वह उसकी हत्या कर दे. लेकिन जिस बदले की भावना से दूर रहने की नसीहतें अक्सर दी जाती हैं, वह भावना बढ़ रही है. इससे सिर्फ युवा ही नहीं, बच्चे भी प्रभावित हो रहे हैं. हत्या जैसे अपराधों में बच्चों के लिप्त होने की खबरें भी आती रहती हैं. अपराध करने के बाद, न जाने क्यों सब यह भी सोचने लगते हैं कि वे बच जायेंगे.

क्या इसे टीवी पर आने वाले अपराधों से जुड़े कार्यक्रमों या हिंदी फिल्मों से जोड़ा जा सकता है? फिल्मों में जब कोई नायक बीस-बीस गुंडों को मौत के घाट उतारता है, तो लोग इन दृश्यों को देखकर तालियां बजाते हैं. बीस को मारने वाला यह नायक जनता की अदालत से तारीफ पाकर विजेता की तरह निकलता है और फिल्म खत्म हो जाती है. बीस लोग चाहे वे बदमाश ही सही, उन्हें मारने के बाद नायक के खिलाफ भी कोई कार्रवाई हुई, फिल्में इसे कभी नहीं दिखातीं.

जब भी अपराधियों को पकड़ा जाता है, तो उनमें बहुत से ऐसा कहते हैं कि उन्हें कोई दुख या पछतावा नहीं. इनमें से बहुतों का कोई आपराधिक रिकाॅर्ड भी नहीं होता. दुख या पछतावे की भावना का न होना हमारे समाज के लिए अच्छा तो नहीं है.

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