विध्वंसक जलवायु परिवर्तन
धरती के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी परिणामों पर हाल के वर्षों में चिंताएं बढ़ी हैं, लेकिन वैश्विक स्तर पर सरकारें कोई ठोस पहल नहीं कर सकी हैं. कुछ समय पहले ही केरल को बाढ़ की विभीषिका से जूझना पड़ा था, तो अभी अमेरिका के कैलिफोर्निया में भयानक जंगली आग का तांडव जारी […]
धरती के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी परिणामों पर हाल के वर्षों में चिंताएं बढ़ी हैं, लेकिन वैश्विक स्तर पर सरकारें कोई ठोस पहल नहीं कर सकी हैं. कुछ समय पहले ही केरल को बाढ़ की विभीषिका से जूझना पड़ा था, तो अभी अमेरिका के कैलिफोर्निया में भयानक जंगली आग का तांडव जारी है
वैश्विक तापमान की बढ़त को पूर्वऔद्योगिक स्तर से दो डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देने का पेरिस जलवायु समझौते के संकल्प पर गंभीरता से काम शुरू नहीं हो सका है, लेकिन अगर इस लक्ष्य को प्राप्त भी कर लिया जाता है, तब भी संकट से छुटकारा आसान नहीं है. संयुक्त राष्ट्र के संबंधित समूह की हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि इस गर्मी के मौसम में ही आर्कटिक समुद्र के बर्फ के खत्म होने की आशंका 10 गुना है और ज्यादातर प्रवाल चट्टानें भी गायब हो सकती हैं. दुनिया की आबादी के 37 फीसदी हिस्से को बेहद गर्म लू का सामना कर पड़ सकता है तथा 41 करोड़ से ज्यादा शहरी बाशिंदे सूखे और आठ करोड़ लोग समुद्री बाढ़ की चपेट में आ सकते हैं. अगर तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस के स्तर पर रहे, तो इस भयावह हालत में कुछ सुधार हो सकता है.
ध्यान रहे, जब से तापमान का हिसाब रखा जा रहा है, तब के सबसे गर्म साल इसी सदी के बीते साल हैं. इस संदर्भ में वैज्ञानिक कैथरीन हेहोए की यह टिप्पणी अहम है कि अगर शोध यह कह रहे हैं कि हालात खराब हैं, तो इसका मतलब यह है कि हालात बेहद खराब हैं. बाढ़, समुद्री जलस्तर, ज्यादा बारिश, सूखा, गर्मी, तूफान आदि संकट इसी जलवायु परिवर्तन से संबद्ध हैं.
हालांकि यह समस्या वैश्विक है और पूरी मानवता के भविष्य से जुड़ी हुई है, पर इसका सबसे खराब असर दक्षिण एशिया और अफ्रीका जैसे गरीब इलाकों पर पड़ रहा है. पिछले कुछ सालों से भारत में प्राकृतिक आपदाओं की बारंबारता में बहुत तेजी आयी है. सूखा, बाढ़, पेयजल की कमी और प्रचंड लू से बड़ी आबादी प्रभावित है. इस साल की आर्थिक समीक्षा में बीते छह दशकों के आंकड़ों के आधार पर बताया गया है कि तापमान बढ़ रहा है तथा बारिश की मात्रा में कमी आ रही है.
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक देश के 151 जिलों में पशुओं, फसलों और पेड़-पौधों पर जलवायु परिवर्तन का असर है. मौसम में बदलाव से फसलों के बोने और पकने की अवधि भी बदलने लगी है. अगर इस पहलू पर समुचित और त्वरित ध्यान नहीं दिया गया, तो कृषि संकट से उबरना मुश्किल हो जायेगा, जो पहले से ही अन्य कुछ गंभीर मुश्किलों का सामना कर रही है.
तापमान बढ़ने की एक चुनौती आर्थिक भी है. एक तरफ आपदाओं से अर्थव्यवस्था को नुकसान हो रहा है, तो दूसरी तरफ समाधान की कोशिश में बड़े निवेश की जरूरत है. अब इस समस्या पर बहस की गुंजाइश नहीं है, ठोस पहलकदमी की दरकार है.