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दोराहे पर कश्मीर में लोकतंत्र

अशोक कुमार पांडेय लेखक-िटप्पणीकार ashokk34@gmail.com घाटी में शहरी निकाय चुनावों में बेहद कम मतदान के बाद पंचायतों से संतोषजनक वोटिंग की खबरें अभी आ ही रही थीं कि राज्यपाल द्वारा विधानसभा भंग करने की खबर ने उन्हें धुंधला कर दिया. राज्यपाल शासन की अवधि खत्म होने के महीनेभर से भी कम समय पहले घाटी में […]

अशोक कुमार पांडेय
लेखक-िटप्पणीकार
ashokk34@gmail.com
घाटी में शहरी निकाय चुनावों में बेहद कम मतदान के बाद पंचायतों से संतोषजनक वोटिंग की खबरें अभी आ ही रही थीं कि राज्यपाल द्वारा विधानसभा भंग करने की खबर ने उन्हें धुंधला कर दिया. राज्यपाल शासन की अवधि खत्म होने के महीनेभर से भी कम समय पहले घाटी में दिनभर चले राजनीतिक नाटक के इस त्रासद अंत के बाद से ही यह अटकलें शुरू हो गयी हैं कि वहां नये चुनावों की घोषणा होगी या राज्यपाल शासन को ही और बढ़ाया जायेगा.
ताजा घटनाक्रम की शुरुआत महबूबा सरकार में नंबर दो की हैसियत रखने वाले मुजफ्फर हुसैन बेग के बयान से हुई. बेग के पिता मिर्जा अफजल बेग शेख अब्दुल्ला के सबसे करीबी लोगों में से थे, लेकिन फारूक अब्दुल्ला को उत्तराधिकारी घोषित कर दिये जाने के बाद वह अलग-थलग पड़ गये और पार्टी से उन्हें निकाल दिया गया. हार्वर्ड से कानून की पढ़ाई करने के बाद मुजफ्फर बेग राजनीति में आने से पहले, दिल्ली में कुछ बड़ी लॉ फर्म्स में काम कर चुके हैं.
वह पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से हैं और इसलिए जब उन्होंने सज्जाद लोन के समर्थन की बात की, तो कश्मीर की राजनीति में उबाल आना स्वाभाविक था. सज्जाद के पिता अब्दुल गनी लोन के करीबी रहे बेग के समर्थन की घोषणा का अर्थ पीडीपी में एक और टूट है.
घाटी के प्रतिष्ठित शिया नेता और पीडीपी विधायक इमरान अंसारी पहले ही लोन के समर्थन में आ चुके हैं. बेग के इस कदम को घाटी में पीडीपी, कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस द्वारा मिलजुलकर सरकार बनाने की कवायद की जड़ में मट्ठा डालने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है. भाजपा से गठबंधन टूटने के बाद से ही नाराज चल रहे बेग पीडीपी द्वारा स्थानीय निकाय के चुनावों के बहिष्कार से भी सहमत नहीं थे, लेकिन अपने पिता के अपमान के लिए जिम्मेदार नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के साथ जाना उन्हें मंजूर नहीं है.
बेग के बयान का महत्व इससे समझा जा सकता है कि इसके तुरंत बाद लंबे समय से चल रही तीनों पार्टियों के गठबंधन की चर्चा अचानक से सतह पर आ गयी और मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार माने जा रहे पीडीपी सरकार के पूर्व वित्तमंत्री तथा जम्मू-कश्मीर विधानसभा के सबसे अमीर विधायक अल्ताफ बुखारी ने साढ़े तीन बजे के आसपास बयान जारी किया कि तीनों पार्टियों के बीच समझौता हो गया है और एक-दो दिन में सरकार बनाने की घोषणा की जायेगी. गुलाम नबी आजाद ने इसकी पुष्टि की तो अटकलें लगनी तेज हो गयीं कि नेशनल कांफ्रेंस बाहर से समर्थन देगी. शाम होते-होते महबूबा मुफ्ती का ट्वीट आया कि उन्होंने सरकार बनाने का दावा फैक्स करने की कोशिश की, लेकिन राज्यपाल भवन की फैक्स मशीन खराब होने के कारण यह ई-मेल से भेजा गया. वहीं, सज्जाद लोन ने ट्विटर पर ही राज्यपाल के निजी सहायक जीवन लाल को व्हाट्सएप पर भेजे गये अपने दावे का स्क्रीनशॉट साझा किया.
ज्ञातव्य है कि दरबार इस समय जम्मू में जा चुका है, तो राज्यपाल श्रीनगर की जगह जम्मू में ही हैं. इन दोनों दावों पर विचार करने की जगह रात साढ़े नौ बजे राज्यपाल ने जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुच्छेद 92 और 53 के तहत विधानसभा भंग करने का आदेश दे दिया, तो घाटी की राजनीति में भूचाल आ गया. महबूबा मुफ्ती, उमर अब्दुल्ला सहित घाटी के अनेक महत्वपूर्ण पत्रकारों तथा आम लोगों ने एक के बाद एक ट्वीट करके इसे लोकतंत्र पर प्रहार बताया है.
कश्मीर में राज्यपालों का हस्तक्षेप नया नहीं है. साल 1984 में, फारूक अब्दुल्ला की सरकार को अपदस्थ करने में सहयोग से मना कर देने पर इंदिरा गांधी ने उन्हें गुजरात भेजकर, जगमोहन को पहली बार श्रीनगर भेजा था और जी एम शाह ने नेशनल कॉन्फ्रेंस के तेरह विधायकों को तोड़कर सरकार बना ली थी. लेकिन, वर्ष 2005 में संशोधित हुए जम्मू-कश्मीर दलबदल विरोधी कानून के बाद यह सब संभव नहीं रहा है. बाकी देश के कानून से अलग, इस कानून के तहत अगर किसी पार्टी के सभी सदस्य भी दलबदल कर जाते हैं, तो भी उनकी सदस्यता रद्द कर दी जाती है.
इसलिए, गठबंधन टूटने के तुरंत बाद भी जो कोशिशें शुरू हुई थीं, वह पीडीपी के अनेक विधायकों द्वारा असंतोष व्यक्त किये जाने के बावजूद कामयाब नहीं हो पायीं. भंग विधानसभा में सरकार बनाने के लिए 44 विधायकों की जरूरत है.
भाजपा के पास 25 विधायक हैं, जबकि उधमपुर के विधायक पवन गुप्ता का समर्थन उसे हासिल है और लोन की पार्टी के दो विधायकों के साथ आने पर भी यह संख्या 28 ही होती है. वहीं पीडीपी के पास 29, कांग्रेस के 12 तथा नेशनल कॉन्फ्रेंस के 15 विधायकों को मिलाकर यह संख्या बहुमत के पार पहुंच जाती है.
पहले इमरान अंसारी और अब मुजफ्फर बेग के पार्टी-विरोधी रुख के बाद यह स्पष्ट था कि पीडीपी के विधायकों की एक बड़ी संख्या पार्टी के खिलाफ वोट देकर अपनी सदस्यता से अयोग्य घोषित हो सकती है या फिर मतदान के वक्त अनुपस्थित रह सकती है.
सज्जाद लोन का 18 अन्य विधायकों के समर्थन का दावा पीडीपी की भीतरी फूट से ही उपजा है. स्थिति संवैधानिक संकट की हो गयी है. राज्यपाल के फैसले के पीछे विशिष्ट दलबदल कानून की रोशनी में यह तथ्य जरूर होगा कि जहां लोन के पास बहुमत के लिए जरूरी सदस्य नहीं हैं, वहीं महबूबा मुफ्ती मजबूत दावे के बावजूद अपने विधायकों को साथ रखने में सफल नहीं हैं.
हालांकि, बेहतर होता कि यह फैसला विधानसभा के अंदर होता और वहां यह साबित होने के बाद ही कोई अंतिम निर्णय लिया जाता. इस फैसले ने महबूबा के सामने अरुणाचल की तर्ज पर उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का विकल्प खोल दिया है.
आने वाले दिन कश्मीर घाटी के लिए महत्वपूर्ण होंगे. हुर्रियत के एक नेता की हत्या के विरोध में हुर्रियत के दोनों धड़ों और जे के एल एफ को मिलाकर बनी ज्वाइंट रेसिस्टेंस लीग ने आम हड़ताल का आह्वान किया है. वहीं राज्यपाल के फैसले के खिलाफ पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के आंदोलन की हलचल है. तनावपूर्ण घाटी की फिजा को संभालने और लोकतंत्र की उम्मीद बचाये रखने के लिए जरूरी तो यही है कि जल्द से जल्द नये चुनावों का फैसला लिया जाये.

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