वादे व्यावहारिक हों

लोकतंत्र का एक पहलू यह भी है कि चुनावी मौसम में राजनीतिक पार्टियां मतदाताओं को लुभाने के लिए अपने भाषणों और घोषणा-पत्रों में वादों की भरमार कर देती हैं. लेकिन उन्हें पूरा करने के तौर-तरीकों का न तो पूरा ब्योरा होता है और न ही पार्टियां उन पर ठोस चर्चा करती हैं. इस संदर्भ में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 28, 2018 12:34 AM
लोकतंत्र का एक पहलू यह भी है कि चुनावी मौसम में राजनीतिक पार्टियां मतदाताओं को लुभाने के लिए अपने भाषणों और घोषणा-पत्रों में वादों की भरमार कर देती हैं. लेकिन उन्हें पूरा करने के तौर-तरीकों का न तो पूरा ब्योरा होता है और न ही पार्टियां उन पर ठोस चर्चा करती हैं.
इस संदर्भ में किसानों के फायदे की बात जोर-शोर से कही जाती है. विधानसभाओं के मौजूदा चुनाव में भी यही हो रहा है और पिछले आम चुनाव की तर्ज पर आगामी लोकसभा चुनाव में भी यही परिपाटी जारी रह सकती है.
कोई दल या गठबंधन सब सत्ता में नहीं होता है, तो लोकलुभावन वादे करना उसके लिए बहुत आसान होता है, परंतु सरकार की जिम्मेदारी संभालने के बाद न्यूनतम समर्थन मूल्य, खरीद की क्षमता और कर्ज माफी जैसे वादे पूरा करना सीमित बजट में बेहद मुश्किल हो जाता है.
लेकिन पक्ष और विपक्ष द्वारा वादे करने और वादे करते जाने का सिलसिला थमता नहीं है. अगर चुनावी लड़ाई कांटे की हुई, तो वादे भी बड़े-बड़े होते हैं. ऐसे में किसानों में क्षोभ और निराशा का भाव आना स्वाभाविक है.
संभवतः यह भी एक कारण है कि जहां किसी चुनाव में घोषणा पत्र एक अहम दस्तावेज होना चाहिए, वहीं उसे बस रस्म-अदायगी के रूप में जारी कर दिया जाता है. मीडिया और मतदाताओं में भी उनकी बहुत चर्चा नहीं होती है और पूरी बहस कुछ बड़ी चुनावी घोषणाओं के इर्द-गिर्द घूमती रहती है.
यह बहुत संभव है कि लोकसभा चुनाव से पहले सत्ताधारी दल किसानों का असंतोष कम करने के लिए लोकलुभावन वादे करे और उस असंतोष को अपने समर्थन में लाने की कवायद में विपक्ष भी घोषणाओं की झड़ी लगा दे.
यह सही है कि किसान के सामने उपज को उचित दाम पर बेचने और कर्ज चुकाने की गंभीर चुनौतियां हैं जिनसे राहत पाने के लिए तात्कालिक उपाय भी जरूरी हैं, पर मौजूदा कृषि संकट के अनेक आयाम हैं और इसके समाधान के लिए भी दीर्घकालिक पहलों की आवश्यकता है.
समर्थन मूल्यों में की गयी हालिया बढ़ोतरी भी किसानों के लिए फायदेमंद नहीं हो सकी है क्योंकि एक तो सरकारी खरीद कम है और जहां खरीद है, वहां भुगतान में देरी हो रही है. उधर ज्यादा उपज के कारण खुले बाजार में फसलों की खरीद की दरें समर्थन मूल्य से कम हैं.
ऐसे में 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने का केंद्र सरकार का वादा अधूरा रह जाने की पूरी आशंका है. विपक्षी पार्टियों के वादों की भी आखिरकार यही दशा होनी है. यदि सरकार और विपक्ष किसानों को दीर्घकालिक राहत देने का इरादा रखते हैं, तो उन्हें संरचनात्मक सुधारों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए.
तकनीक, वित्त प्रबंधन और बाजार के स्तर पर नीतियां तय की जानी चाहिए तथा यह भी समझा जाना चाहिए कि इनके परिणाम आने में कुछ समय लगेगा. वादे वही किये जाएं, जो व्यावहारिक हों, पर क्या राजनीतिक पार्टियों में इतना धैर्य है कि वे जीत-हार के गणित से परे दूरदर्शिता का दामन थामें?

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