बोझमुक्त बस्ता एक अच्छा कदम
अंबरीश राय राष्ट्रीय संयोजक, राइट टू एजुकेशन फोरम केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एचआरडी) ने बच्चों के कक्षा-वर्ग के हिसाब से उनके बस्ते के वजन का जो मानक जारी किया है, यह एक अच्छा कदम तो है, लेकिन काफी देर से उठाया गया कदम है. बहुत पहले से ही इस कदम की प्रतीक्षा हो रही […]
अंबरीश राय
राष्ट्रीय संयोजक,
राइट टू एजुकेशन फोरम
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एचआरडी) ने बच्चों के कक्षा-वर्ग के हिसाब से उनके बस्ते के वजन का जो मानक जारी किया है, यह एक अच्छा कदम तो है, लेकिन काफी देर से उठाया गया कदम है. बहुत पहले से ही इस कदम की प्रतीक्षा हो रही थी. साल 1993 में ही प्रो यशपाल की देख-रेख में बनी यशपाल कमेटी ने यह सिफारिश की थी कि बच्चों की पीठ उनके बस्ते के बोझ से दबती जा रही है, जो उनके स्वास्थ्य और सीखने, दोनों के ऐतबार से बहुत नुकसानदायक है.
बीते ढाई दशक से ही इस बात का इंतजार हो रहा था कि ऐसा कोई निर्णय एचआरडी जारी करे, ताकि बच्चों की पीठ से गैर-जरूरी बोझ को हटाया जा सके. अब यह कदम बहुत ही स्वागतयोग्य है और इस कदम से न सिर्फ बच्चों की शारीरिक, बल्कि मानसिक दशा पर भी सकारात्मक असर देखने को मिलेगा.
बच्चों की पीठ पर किताबों को निजी स्कूलों ने लादा है. अरसा पहले निजी स्कूलों ने ही यह बोझ-भरी व्यवस्था शुरू की थी, जो पूरे देश में बहुत बड़े पैमाने पर फैलती चली गयी थी. मुझे समझ में यह नहीं आता कि जब इस बोझ से बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्थितियों पर असर पड़ता है, तो स्कूलों के टीचर इस व्यवस्था को क्यों जारी रखते हैं?
क्या उन्हें इतनी सी बात भी समझ नहीं आती? यह बड़ी विडंबना ही है. यह एक गलतफहमी है कि ज्यादा किताब-कॉपी से बच्चे ज्यादा सीखेंगे. क्या यह बात स्कूली टीचरों को समझ में नहीं आती? पहली-दूसरी क्लास के बच्चों की पीठ पर पांच से आठ किलो किताबों का बोझ क्या टीचरों को नहीं दिखता कि मासूम बच्चे इतने बड़े बोझ को कैसे ढोते-सहते होंगे? यह नासमझी एक बड़ी विडंबना ही कही जायेगी. एचआरडी ने मानक तय करके अब अच्छा ही किया है. अब उम्मीद है कि इससे बच्चों के स्वास्थ्य ठीक रहेगा.
इस कदम के साथ ही सरकार को और शिक्षा व्यवस्था संभाल रहे महकमे को अन्य महत्वपूर्ण कदम उठाने की भी जरूरत है. बहुत सारे स्कूलों में आज भी इन्फ्रास्ट्रक्चर का बड़ा अभाव है, वहां पीने को पानी नहीं है और बाथरूम आदि का अभाव है. अगर कहीं बाथरूम है भी, तो उसमें पानी ही नहीं आता है. ऐसे अन्य कई अभावों को लेकर ही एक कानून बना था- राइट टू एजुकेशन एक्ट 2009 यानी आरटीइ कानून.
इस कानून ने यह बताया था कि स्कूल कैसा होना चाहिए. बच्चों और टीचर का अनुपात क्या होना चाहिए. बच्चों के लिए क्या-क्या सुविधाएं होनी चाहिए. इन सारी बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए और आरटीइ कानून के सारे प्रावधानों को लागू किया जाना चाहिए. लेकिन विडंबना है कि कहीं-कहीं ही इस कानून का ख्याल रखा जा रहा है.
सरकारी स्कूलों में तो मुफ्त शिक्षा है, लेकिन निजी स्कूलों में तरह-तरह की फीस के नाम पर बहुत सारे हिडेन चार्ज लिये जाते हैं, जिससे बच्चे और उनके माता-पिता दोनों परेशान हैं. निजी स्कूलों में फीस को लेकर कोई नियंत्रण-प्रबंधन नहीं है. महंगी फीस को नियंत्रित करने की भी सख्त जरूरत है. इसके लिए केंद्रीय स्तर पर एक फीस रेगुलेटरी कानून बनाये जाने की जरूरत है, ताकि किताबों के बोझ से मुक्त होने के साथ ही देश के बच्चे और उनके अभिभावक महंगी फीस से भी मुक्त हो सकें.
ऐसी मुक्ति हमारी शिक्षा व्यवस्था में एक सौहार्दपूर्ण माहौल पैदा करेगी, जिससे बच्चों में अध्ययन की ललक बढ़ेगी और उनका मानसिक विकास तेज हो सकेगा. टुकड़ों-टुकड़ों में अगर प्रयास होगा, तो इससे एक-न-एक खामी आती ही रहेगी. क्योंकि ये सारी चीजें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं. जब हमारे शिक्षा क्षेत्र की हर व्यवस्था एक-दूसरे के साथ कदमताल करेगी, तभी व्यापक सुधार हो सकेगा. बड़े पैमाने पर सारे बड़े प्रयास किये जाएं और अनुभवी लोगों की सिफारिशों पर अमल किया जाये, तो हमारी शिक्षा व्यवस्था की बुनियाद बहुत मजबूत हो सकती है.
बस्ते का बोझ होमवर्क से जुड़ा हुआ है. टीचर बच्चों को होमवर्क देते हैं, जिसे बच्चों को घर पर पूरा करके वापस स्कूल ले जाना पड़ता है. होमवर्क तो हो, लेकिन कॉपीज ढोने की जरूरत न हो, ऐसी व्यवस्था होनी ही चाहिए.
यही सोचकर एचआरडी ने यह तय किया है कि पहली और दूसरी कक्षा के बच्चों को होमवर्क दिया ही नहीं जायेगा. लेकिन, सवाल है कि क्या निजी स्कूल मानेंगे? यह भी सुनने में आता है कि बच्चों का बस्ता उनके वजन के बराबर वजनी है. यह कितना असहनीय होगा बच्चों के लिए, क्या हमें जरा भी अंदाजा नहीं है? हम यह क्यों नहीं समझते कि शिक्षा शास्त्र से चलती है, न कि पॉपुलर परसेप्शन से कि बच्चा ज्यादा किताबें पढ़ेगा, तो ज्यादा इंटेलीजेंट बनेगा. शिक्षा शास्त्र यह कहता है कि ज्वॉयफुल लर्निंग (हंसते-खेलते पढ़ना) होना चाहिए. यह मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है कि हंसते-खेलते बच्चे ज्यादा सीखते हैं. बोझ डालकर तो उन्हें सिर्फ मशीन बनाया जा सकता है, रचनात्मक नहीं.
कुछ समय पहले नीति बनी थी कि आठवीं तक बच्चों से परीक्षाएं नहीं ली जायेंगी. यह बहुत ही प्रगतिशील कदम था. लेकिन, इसे यह कहकर लागू नहीं किया जा सका, कि परीक्षा न होने से शिक्षा की गुणवत्ता नहीं बढ़ती.
शिक्षा की गुणवत्ता से परीक्षा का कोई संबंध नहीं है, क्योंकि रटकर प्रश्नों का उत्तर देकर नंबर लाया जा सकता है, बौद्धिक और रचनात्मक नहीं बना जा सकता. इसलिए बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए उनके ऊपर से हर तरह के बोझ और दबाव को हटाया जाये और उन्हें रचनात्मक बनने दिया जाये.