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प्यार तो करते हैं पर उसे जीते नहीं

।। रंजीत प्रसाद सिंह ।। प्रभात खबर, जमशेदपुर हम भारतीयों की एक खासियत है, जिसे चाहते हैं उसे दीवानगी की हद तक चाहते हैं. चाहे मामला इश्क का हो या खेल का. बता दें कि आज का विषय खेल है, इश्क नहीं. पूरी दुनिया में ले-दे कर जिस एक खेल के लिए हम जाने जा […]

।। रंजीत प्रसाद सिंह ।।

प्रभात खबर, जमशेदपुर

हम भारतीयों की एक खासियत है, जिसे चाहते हैं उसे दीवानगी की हद तक चाहते हैं. चाहे मामला इश्क का हो या खेल का. बता दें कि आज का विषय खेल है, इश्क नहीं. पूरी दुनिया में ले-दे कर जिस एक खेल के लिए हम जाने जा रहे हैं, वह है क्रिकेट. पर इन दिनों कोई क्रिकेट पर बात नहीं कर रहा. बहुतों को तो यह पता भी नहीं होगा कि भारतीय टीम इस समय बांग्लादेश के दौरे पर है.

इनमें क्रिकेट वे आशिक भी शुमार हैं जो आइपीएल का मैच भी इलेक्ट्रॉनिक सामान की दुकानों के कांच से झांक-झांक कर देखते हैं. दरअसल, ऐसे विकट क्रिकेटप्रेमी भी इन दिनों फुटबॉल के साथ नजरें चार कर रहे हैं. अब सवाल यह है कि ऐसे देश में जहां क्रिकेट को पागलपन की हद तक पसंद किया जाता है, जहां फुटबॉल को कोई खास तवज्जो नहीं मिलती, वहां फुटबॉल से इस मौसमी इश्क को किस परिभाषा में सेट किया जाये. क्या किसी चीज को पसंद किया जाना एक बात है और उसे अपनाना दूसरी बात? फुटबॉल लोकप्रिय होने के बावजूद हमारी रगों में क्यों नहीं बस पा रहा (बंगाल जैसे एक-दो राज्यों को छोड़कर)? क्या क्रिकेट में वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा की कमी के चलते हम इस खेल में सरताज बने हुए हैं, या फिर फुटबॉल के पास वे संसाधन नहीं है, जो हमने क्रिकेट को दे रखे हैं?

वैसे अब आइपीएल की तर्ज पर हॉकी में आइएचएल, बैडमिंटन में आइबीएल, फुटबॉल में आइएफएल जैसे प्रयोग शुरू हो गये हैं. इन प्रयोगों से संबंधित खेलों का कितना भला होगा, यह तो समय बतायेगा, लेकिन फिलहाल आइपीएल को छोड़ कर सभी को प्रायोजकों और दर्शकों का टोटा ङोलना पड़ रहा है. तो बीमारी है कहां? इसका इलाज क्या है? कौन वह डॉक्टर है जो इसे ठीक कर पायेगा? दरअसल, बीमारी पैसे में है. बीसीसीआइ ने देशभर में अपने बड़े-बड़े स्टेडियम इसलिए खड़े कर लिये क्योंकि क्रिकेट संघों के पास पैसे थे. बाकी खेल संघ क्रिकेट की तरह पेशेवर नहीं हो पाये, इसलिए उनपर पैसे नहीं बरसे.

बल्कि जो पैसे सरकार की ओर से आये भी, वे भी खेल के लिए कम और खेल संघ के सदस्यों के हितों के ज्यादा काम आये. क्रिकेट को छोड़ दें तो शायद ही देश में कोई स्टेडियम होगा जो पूरी तरह किसी खेल संघ की देन हो. खेल से प्यार करना एक बात है, और उसके लिए जीना दूसरी बात. हमने प्यार तो करना सीखा, लेकिन उसे जीना नहीं सीख पाये. जीते तो जानते कि कमी कहां है, किसमें है, क्यों है? बस सरकारी दफ्तरों के सिस्टम की तरह खेल का भी एक सिस्टम बना हुआ है, एक टेबुल से दूसरे टेबुल तक. उसी सिस्टम में सब कुछ चला आ रहा है, उसी में सब बंधे हैं. सिस्टम टूटेगा, तो खिलाड़ी पैदा होंगे, हम खेलों को जीयेंगे तो जीतेंगे. तब तक तो बस खेलों के प्रति दीवानगी, टीवी पर लाइव दर्शन और ऑफिस में उनका विश्‍लेषण. तो लगे रहिए इस बहस में कि कौन जीत रहा है इस बार वर्ल्ड कप.

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