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क्या है रुपये का सही मूल्य

डॉ अश्विनी महाजन एसोसिएट प्रोफेसर, डीयू ashwanimahajan@rediffmail.com पिछले कुछ महीनों से रुपये में भारी अवमूल्यन हो रहा था और रुपये डाॅलर की विनिमय दर जो अप्रैल 2018 में लगभग 64 रुपये प्रति डाॅलर थी, 11 अक्तूबर, 2018 तक 74.48 रुपये प्रति डाॅलर पहुंच चुकी थी. एक ओर जहां कमजोर होते रुपये के चलते देश में […]

डॉ अश्विनी महाजन
एसोसिएट प्रोफेसर, डीयू
ashwanimahajan@rediffmail.com
पिछले कुछ महीनों से रुपये में भारी अवमूल्यन हो रहा था और रुपये डाॅलर की विनिमय दर जो अप्रैल 2018 में लगभग 64 रुपये प्रति डाॅलर थी, 11 अक्तूबर, 2018 तक 74.48 रुपये प्रति डाॅलर पहुंच चुकी थी. एक ओर जहां कमजोर होते रुपये के चलते देश में चिंता का माहौल व्याप्त हो रहा था, नीति निर्माण से जुड़े हुए कई महानुभाव यह कह रहे थे कि रुपये का गिरना स्वाभाविक है, क्योंकि रुपया जरूरत से ज्यादा मजबूत है. उनका तर्क था कि रुपये में मजबूती से देश को नुकसान हो रहा है, क्योंकि उसके कारण हमारे निर्यात प्रभावित होते हैं.
नीति आयोग के उपाध्यक्ष जुलाई 2018 में यह कह रहे थे कि रुपया 5 से 7 प्रतिशत अधिक मूल्यवान है और कई विशेषज्ञ तो यह भी कह रहे थे कि यह 15 प्रतिशत ज्यादा मूल्यवान है और कुछ अन्य रपटें इसे 10 प्रतिशत ज्यादा मूल्यवान बता रही थीं. यह पहली बार नहीं हुआ कि कमजोर होते रुपये के मद्देनजर ये नीति-निर्माता उसे और कमजोर करने की सलाह दे रहे थे.
पिछले लगभग छह महीनों में रुपये की कमजोरी के कई कारण रहे. पहला कारण यह था कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें काफी तेजी से बढ़ रही थीं. भारत अपनी पेट्रोलियम आवश्यकताओं का लगभग 70 प्रतिशत विदेशों से आयात करता है. यदि ईरान को छोड़ दिया जाये, शेष सभी देशों से इस कच्चे तेल के लिए डाॅलरों में भुगतान होता है, जबकि अक्तूबर 2017 में कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत मात्र 60 डाॅलर प्रति बैरल थी, वह बढ़ते हुए अक्तूबर 2018 तक आते-आते 86 डाॅलर प्रति बैरल पहुंच चुकी थी.
इसके चलते हमारा तेल का बिल बढ़ता गया और डॉलर की मांग भी. दूसरा कारण यह था कि विदेशी संस्थागत निवेशकों ने अपने निवेश को भारत से ले जाना शुरू किया. शेयर और बांड मार्केट दोनों में उन्होंने भारी बिकवाली की और विदेशी मुद्रा भारत से बाहर ले गये.
इस कारण भी देश में डाॅलरों की मांग बढ़ गयी. तीसरा कारण यह है कि अमेरिका ने कंपनी और व्यक्तिगत आयकर में भारी कमी कर दी, जिससे वैश्विक निवेशक अमेरिका की ओर आकृष्ट होने लगे. दूसरी ओर अमेरिकी फेडरल रिजर्व (अमेरिका का केंद्रीय बैंक) ने ब्याज दर में वृद्धि कर दी, यह भी वैश्विक निवेशकों के अमेरिका की ओर आकर्षित होने का कारण बना.
अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें हमेशा बढ़ती नहीं रहती हैं. कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि सामान्यतः ‘ओपेक’ देशों द्वारा आपूर्ति को सीमित कर देने के कारण बढ़ती हैं.
लेकिन अंततोगत्वा अंतरराष्ट्रीय बाजारों में आपूर्ति बढ़ने से तेल की कीमतें फिर नीचे आ जाती हैं. अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की आपूर्ति बढ़ने के कारण कच्चे तेल की कीमत में और कमी भी आ सकती है. तेल कीमत में एक डाॅलर प्रति बैरल की गिरावट हमारे वार्षिक तेल बिल को 1.5 अरब डाॅलर कम कर सकती है. पिछले एक महीने में 26-27 डाॅलर की गिरावट हमारे तेल बिल में वार्षिक 40 अरब डाॅलर से ज्यादा की कमी ला सकती है. फिलहाल रुपया अब मजबूत होने लगा है.
अत्यंत निराशाजनक बात यह है कि जब रुपया अस्थायी कारणों से इसलिए कमजोर हो रहा था, क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक ने अस्थायी रूप से कमजोर में हो रहे रुपये को नियंत्रित करने हेतु अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं किया. भारतीय रिजर्व बैंक से यह अपेक्षा स्वाभाविक ही है कि रुपये में अस्थायी कमजोरी को वह नियंत्रित करे. इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात यह थी कि नीति-निर्माण से जुड़े महानुभाव रुपये को और अधिक कमजोर करने की वकालत कर रहे थे.
सर्वविदित है कि देश में जीडीपी ग्रोथ की दर बढ़ती जा रही है, महंगाई की दर लगातार घट रही है, विभिन्न नीतिगत सुधारों के कारण देश में ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ भी लगातार सुधर रहा है, और कृषि एवं औद्योगिक उत्पादन में निरंतर वृद्धि हो रही है. ऐसे में नीति आयोग के उपाध्यक्ष, देश के आर्थिक मामलों के सचिव और देश के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार रुपये को और कमजोर करने की वकालत बेतुके तर्कों के आधार पर कर रहे थे.
रुपये में पिछले दिनों में आ रही मजबूती ने उनके तर्कों को निराधार सिद्ध कर दिया. जिस कारक के आधार पर वे रुपये के अवमूल्यन की वकालत कर रहे थे, उस पर अर्थशास्त्री एकमत नहीं हैं. वास्तविकता तो यह है कि वह यह कारक भारत जैसी अर्थव्यवस्था पर लागू ही नहीं होता.
पिछले दशकों में डब्ल्यूटीओ के समझौतों के कारण हमारे देश के आयात लगातार बढ़ते रहे और निर्यातों में अपेक्षित वृद्धि न होने के कारण हमारा व्यापार घाटा और भुगतान शेष घाटा लगातार बढ़ता गया. इसके कारण डाॅलरों की आपूर्ति कम बढ़ी और मांग ज्यादा.
वास्तविकता तो यह है कि भूमंडलीकरण के प्रति नीति निर्माताओं के जरूरत से ज्यादा आग्रह के कारण डब्ल्यूटीओ के समझौतों के अनुसार भी जितना आयात शुल्क भारत लगा सकता था, उसका एक चौथाई से लेकर आधी दर तक ही आयात शुल्क लगाये गये. इसके कारण हमारे देश के उद्योग-धंधे नष्ट होने लगे और हमारी निर्भरता आयातों पर बढ़ गयी.
इसलिए जरूरत इस बात की है कि हम अपने आयातों को यथासंभव न्यूनतम करें, ताकि रुपये में अनावश्यक कमजोरी को रोका जा सके. गौरतलब है कि डाॅलर के मुकाबले रुपये में मात्र एक रुपये की कमजोरी भी देश की आयात बिल को 12 हजार करोड़ रुपये तक बढ़ा देती है. इसलिए सरकार को आयात शुल्क बढ़ाकर रुपये को मजबूत करने हेतु कदम उठाने होंगे.

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