आगामी चुनाव में नेताओं की जाति, धर्म, गोत्र की चर्चा के बीच एकाएक रामभक्त हनुमान को हरिजन कहा गया. गोस्वामी तुलसीदास रामचरितमानस के पांचवें सोपान ‘सुंदरकांड’ में लिखा है कि ‘हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी, सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी’. हरिजन का वास्तविक अर्थ भगवान का भक्त होना है.
दूसरे शब्दों में भगवान का प्रिय होना है न कि निम्न जाति का होना. यह भी सही है की पुरातत्व काल से ही वर्ण व्यवस्था थी, जो तात्कालिक परिस्थितियों के लिए जायज था पर जैसे-जैसे हम विकसित हो रहे हैं, वैसे-वैसे हमारी संस्कृति बदल रही है. मनुवादियों के समय भी सिर्फ मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी जो अच्छे कर्म करते थे, पूजनीय हैं। क्या सुग्रीव, नल, नील, अंगद, जटायु, जामवंत आदर के पात्र नहीं हैं?
आनंद पांडेय, रोसड़ा (समस्तीपुर)