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गेहूं के मायने

मिथिलेश कु. राय युवा रचनाकार mithileshray82@gmail.com रात के यही कोई ग्यारह बज रहे होंगे. कक्का बुझ चुके घूरे को फूंक मारकर सुलगा रहे थे. जब वह सुलग गया, वे अपना हाथ-पैर सेंकने लगे. कहने लगे कि तलवे इतने ठंडे हो गये हैं कि अगर सेंक कर कंबल के भीतर न जाऊं, तो सर्दी चैन से […]

मिथिलेश कु. राय

युवा रचनाकार

mithileshray82@gmail.com

रात के यही कोई ग्यारह बज रहे होंगे. कक्का बुझ चुके घूरे को फूंक मारकर सुलगा रहे थे. जब वह सुलग गया, वे अपना हाथ-पैर सेंकने लगे. कहने लगे कि तलवे इतने ठंडे हो गये हैं कि अगर सेंक कर कंबल के भीतर न जाऊं, तो सर्दी चैन से सोने नहीं देगी! कक्का अभी गेहूं के लिए जोत करवा कर लौटे ही थे. कहने लगे कि गांव में ट्रैक्टर सिर्फ तीन हैं. इन्हीं तीनों को पूरे गांव का खेत जोतना है.

बेचारे ड्राइवर रात-रात भर लगे रहते हैं. उन्होंने जब बोलना बंद किया, तो वातावरण में सिर्फ ट्रैक्टर की आवाज ही रह गयी. दो ट्रैक्टर तो सामने पूरब नहर के उस पार के खेत जोतने में लगे हुए थे. एक शायद दक्षिण दिशा में चल रहा था. कुहासे फैले निस्तब्ध रात में दूर खेत जोत रहे ट्रैक्टर की आवाज बड़ी सुहानी लग रही थी. लग रहा था कि कोई धुन बज रही है!

कक्का पूछने लगे कि क्या तुमने गेहूं की फसल पर कभी गौर किया है? गौर करोगे तो तुम्हें एक किसान के जीवन के बारे में बहुत कुछ पता चलेगा.

फिर वे यह कहने लगे कि पूरी दुनिया में जिस रोटी के चर्चे करते लोग थकते नहीं हैं और नहीं चाहते हुए भी जिस गेहूं की रोटी का चित्र हमारी आंखों के सामने भूख लगते ही घूमने लगता है, उस गेहूं का रिश्ता शीत से होते हुए धूप तक पहुंचता है. कक्का कह रहे थे कि दिसंबर की ठंड देख लो. इसमें गेहूं की बुआई की जायेगी. फिर पूस का घना कुहासा याद करो. उन दिनों इसके नन्हें पौधों का पहला पटवन होयेगा. अब जेठ की धूप को याद करो. तब इसकी बाली पर सुनहरा रंग चढ़ेगा और यह कटकर आंगन में आयेगा.

घूरा ठंडा पड़ गया था. घूरे पर थोड़ा सा पुआल रखकर कक्का ने एक फूंक मारी और कहने लगे कि देखो, इस पुआल को भी देखो. यह भी खेतिहरों की कम मदद नहीं करता. कड़ाके की ठंड में खेती करने का संबल यह भी प्रदान करता है.

जरूरत पड़ने पर यह धधक उठता है और सांस के माध्यम से अंदर तक जमे ठंड को हर लेता है. सच में! धान का सूखा पुआल भी कम गजब की चीज नहीं होती. सर्दी के मौसम में यह गर्मी का एहसास देता है. कक्का कह रहे थे कि कम से कम तीन पटवन के बाद ही गेहूं की सेहत अच्छी हो पाती है.

दो पटवन तो भारी ठंड में करनी पड़ती है. तब हम मेड़ पर यह पुआल रखते हैं और जब शरीर सर्दी के मारे जवाब देने लगता है, उसे सुलगाकर तापने लगते हैं. शरीर जैसे ही गर्म होता है, हम फिर पौधों की जड़ों तक पानी पहुंचाने के उपक्रम में लग जाते हैं. यह सब कहते हुए कक्का को यह भी याद आ गया कि गांव में ट्रैक्टर की तरह पंप सेट भी गिने-चुने ही हैं. कभी-कभी रात को ही पटवन करने का समय मिलता है. जाड़े की रात तो तुम जानते ही हो!

और जेठ की धूप भी. जिसमें इसकी कटाई होती है. मैंने कहा तो कक्का हो-होकर हंसने लगे. बोले, गेहूं मतलब पूस की ठंड और जेठ की धूप होता है. हां, अगर इसमें भादो की बारिश भी जोड़ दूं , तो इसका अर्थ किसान हो जाता है. है न!

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