रिजर्व बैंक की दिशा
सरकार और रिजर्व बैंक के बीच पिछले कुछ महीनों से जारी तनातनी का एक चरण उर्जित पटेल का गवर्नर पद से इस्तीफा और उनकी जगह शक्तिकांत दास की नियुक्ति के साथ पूरा हुआ है. लेकिन, तनातनी के कारण अब भी बने हुए हैं और नये गवर्नर के सामने उनके समाधान की महती चुनौती है. जानकारों […]
सरकार और रिजर्व बैंक के बीच पिछले कुछ महीनों से जारी तनातनी का एक चरण उर्जित पटेल का गवर्नर पद से इस्तीफा और उनकी जगह शक्तिकांत दास की नियुक्ति के साथ पूरा हुआ है. लेकिन, तनातनी के कारण अब भी बने हुए हैं और नये गवर्नर के सामने उनके समाधान की महती चुनौती है. जानकारों की मानें, तो अब सरकार के लिए नये गवर्नर को मना पाना कुछ आसान हो जायेगा.
उप गवर्नर विरल आचार्य के रुख पर भी नजर जमी रहेगी, क्योंकि वे सार्वजनिक रूप से पूर्व गवर्नर पटेल और बैंक के प्रशासनिक तंत्र के प्रवक्ता होने के साथ सरकारी रवैये की बेबाक आलोचना से भी करते रहे हैं. सरकार और बैंक के बीच तकरार के दो मुख्य बिंदु हैं. डूबे हुए कर्जों की राशि बढ़ने तथा बैंकिंग प्रणाली में अनुशासन लाने के इरादे से रिजर्व बैंक ने कमजोर बैंकों पर कड़े नियम लागू किये हैं.
सरकार चाहती है कि इसमें नरमी बरती जाये, ताकि बैंक छोटे कारोबारियों को कर्ज दे सकें. फिलहाल रिजर्व बैंक के पास 9.59 लाख करोड़ रुपये अधिशेष के रूप में हैं. यह चर्चा आम है कि सरकार इसमें से एक-तिहाई हिस्सा लेना चाहती है, ताकि धन की कमी से जूझ रहे बैंकों को राहत दी जा सके. पिछले महीने रिजर्व बैंक के निदेशकों की बैठक में केंद्रीय बैंक की जिम्मेदारियों पर विचार के लिए एक समिति बनाने का फैसला लिया गया था. अगली बैठक पहले से तय दिन शुक्रवार को हो या अगले सप्ताह हो, यह नये गवर्नर की पहली परीक्षा होगी.
उस बैठक में यह भी साफ हो जायेगा कि उप गवर्नर विरल आचार्य कुछ नरम पड़ते हैं या फिर पहले की तरह डटे रहते हैं. अभी तक रिजर्व बैंक की मुख्य चिंता मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने तथा बैंकिंग प्रणाली की खामियों को सुधारने की रही है. लेकिन, कठोर नियमों से बैंकों के हाथ बंध गये हैं और कम पूंजी के बैंक छोटी कर्ज राशि भी नहीं दे पा रहे हैं. अगले साल के मध्य में आम चुनाव होने हैं. ऐसे में मौजूदा स्थिति सरकार के लिए परेशानी पैदा कर सकती है.
आर्थिक और वित्तीय विशेषज्ञ, चाहे वे रिजर्व बैंक के पक्ष में हों या सरकार का समर्थन करते हैं, इस बात पर सहमत हैं कि सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच तनाव रचनात्मक होना चाहिए, नुकसानदेह नहीं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि नोटबंदी की मुश्किलों के लिए घोर आलोचना का निशाना रहे उर्जित पटेल ने बैंकिंग प्रणाली और मुद्रा नीति की बेहतरी में अहम भूमिका निभायी है. वित्तीय संस्थाओं के प्रमुखों के साथ प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने भी उनकी खूब प्रशंसा की है. लेकिन दोनों पक्ष बीच की राह निकाल पाने में कामयाब नहीं हो सके.
नये गवर्नर का सरकार के साथ विभिन्न स्तरों पर काम करने का लंबा अनुभव रहा है. पूर्व गवर्नर पटेल की तरह वित्तीय स्थिरता को प्रमुखता देनेवाले विरल आचार्य उनके सहयोगी के रूप में हैं. ऐसे में अर्थव्यवस्था के हित में दोनों पक्षों की विशिष्ट बातों में सामंजस्य स्थापित होने की आशा और अपेक्षा तो की ही जा सकती है.