विपक्ष की राह कठिन, असंभव नहीं

अनुराग चतुर्वेदी वरिष्ठ पत्रकार delhi@prabhatkhabar.in लोकसभा चुनाव में अब साढ़े चार माह से भी कम समय बचा है, ऐसे में तीन महत्वपूर्ण हिंदी प्रदेशों में प्रमुख विपक्षी दल की विधानसभा चुनावों में विजय ने 2019 के चुनावों को एकतरफा बनने से रोक दिया है. साल 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में दस वर्षों से सत्ता […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 17, 2018 11:59 PM
अनुराग चतुर्वेदी
वरिष्ठ पत्रकार
delhi@prabhatkhabar.in
लोकसभा चुनाव में अब साढ़े चार माह से भी कम समय बचा है, ऐसे में तीन महत्वपूर्ण हिंदी प्रदेशों में प्रमुख विपक्षी दल की विधानसभा चुनावों में विजय ने 2019 के चुनावों को एकतरफा बनने से रोक दिया है.
साल 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में दस वर्षों से सत्ता में रही कांग्रेस पार्टी की हार के कई कारण हैं, पर सबसे बड़ा कारण यह था कि कांग्रेस के भीतर सत्ता संघर्ष इतना तेज हो गया था कि पूरा प्रशासन पंगु और भ्रष्ट हो गया था.
आज देश में यूं भी सत्तारूढ़ दल राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से जुड़ा है और विपक्षी दल संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का प्रमुख सदस्य है, यदि विपक्षी दल उत्तर प्रदेश में एकजुट होकर विधानसभा का चुनाव लड़े होते, तो वहां का राजनीतिक तकाजा भी अलग होता.
अब विधानसभा के नतीजे कांग्रेस के पक्ष में आने के बाद पुन: गठजोड़ के लिए कोई केंद्र ही नहीं बन पाया. राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष बनने के ठीक एक वर्ष बाद जिस दिन तीनों विधानसभाओं के नतीजे आये, उस दिन ही कांग्रेस को अन्य सहयोगी विपक्षी दलों ने गठजोड़ का प्रमुख केंद्र बिंदु स्वीकार किया.
इससे पूर्व उत्तर प्रदेश से लोकसभा के लिए हुए गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस काे अपने गठबंधन का हिस्सा नहीं बनाया. कैराना में भी राष्ट्रीय लोकदल के उम्मीदवार को कांग्रेस ने समर्थन तो दिया था, पर गठबंधन के असली खिलाड़ी बसपा-सपा ही थे.
राहुल गांधी की कैलाश मानसरोवर यात्रा के बाद 10 सितंबर, 2018 को कांग्रेस ने जब राष्ट्रव्यापी भारत बंद कराने का निर्णय लिया और पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम, रुपये के कमजोर होने को मुद्दा बनाया, तो वह पहला कदम था, जो कांग्रेस को गठजोड़ का नेतृत्व लेने के लिए उठाया.
जब छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश में 7-8 प्रतिशत मत की हिस्सेदारी करनेवाली बसपा ने सीटों के बंटवारे को लेकर अलग चुनाव लड़ने का निर्णय लिया, तो कांग्रेस की असली परीक्षा शुरू हुई. क्या राहुल गांधी नेतृत्व क्षमता दिखा पायेंगे? क्या वे गैर-भाजपाई दलों के दबाव में समर्पण कर देंगे?
आज जो परिणाम मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में आये हैं, यदि ये परिणाम बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन के बाद आते, तो सारा श्रेय मायावती और बसपा को मिलता़ राहुल गांधी चुनाव जिता सकते हैं, यह धारणा कभी पुष्ट नहीं होती.
बगैर बैसाखी के कांग्रेस अपने प्रभाव वाले इलाकों में भी नहीं जीत सकती है, यही बात बार-बार दोहरायी जाती, न कोई जीत के बाद राहुल गांधी द्वारा भाजपाशासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के प्रति दिखायी ‘शालीनता’ की चर्चा करता, न विपक्षी नेता जिनमें ताकतवर शरद पवार भी शामिल हैं.
विपक्षी दल गठबंधन करेंगे, किसानों की दुर्दशा को मुख्य मुद्दा बनायेंगे, क्योंकि ग्रामीण भारत में सरकारी योजनाओं के पहुंचने- विशेषकर आवास, ईंधन (उज्ज्वला गैस योजना), शौचालय- के बावजूद भी फसलों के दाम कम होने के कारण किसानों की आमदनी नहीं बढ़ रही है, जबकि पिछले वर्षों में सरकारी कर्मचारियों की आय 15 प्रतिशत बढ़ी.
किसानों को अपने उत्पाद पर न तो न्यूनतम मूल्य प्राप्त हो रहा है, न उसके उत्पाद पर कोई अतिरिक्त वैल्यू एडिशन हो रहा है. जैसे दूध के क्षेत्र में ‘अमूल’ ने आइसक्रीम, छाछ, दही, पनीर बनाकर अपने उत्पाद के लिए नया बाजार बनाया है, जबकि महाराष्ट्र में दूध उत्पादक सिर्फ शहरों तक दूध पहुंचाकर अपने व्यवसाय की इति कर लेते हैं.
किसान इन साढ़े चार वर्षों में सबसे ज्यादा शोषित, उपेक्षित और परेशान हुआ है. तीन राज्यों के परिणाम भारत के कृषक समाज की नाराजगी दिखाते हैं.
जिस प्रकार से छत्तीसगढ़ में आदिवासियों ने कांग्रेस को समर्थन किया है और वैसे भी कांग्रेस राजस्थान का चुनाव प्रचार डूंगरपुर के वेणेश्वर से करती है, महाराष्ट्र में नंदूरवार से करती है, ऐसे में आदिवासी एक नये समूह के रूप में अपनी आवाज मुखर कर सकते हैं.
भाजपा ने खाद्य पदार्थों के दाम नहीं बढ़ने दिये, यह नीति जनता पार्टी के समय मोरारजी देसाई ने भी लागू की थी, जिसके बाद जनता पार्टी के शासन के दौरान ही चौधरी चरण सिंह और ताऊ देवीलाल भारतीय राजनीति में छा गये थे.
इसी नीति के चलते ज्यादातर वामपंथी वैचारिक रूप से नरेंद्र मोदी से सहमत हैं, पर जिस प्रकार से शिक्षा-स्वास्थ्य क्षेत्र में महंगाई है, फसल बीमा योजना के नाम पर बीमा कंपनियां किसानों को ठग रही हैं और कर्ज में डूबे किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, ये सब राजनीतिक मुद्दे के रूप में उठेंगे.
विपक्ष के लिए वोट, जेल और निर्माण का फाॅर्मूला अब सिर्फ ‘वोट’ में ही है. जनता के सवालों में आंदोलन कर जेल जाना अब भारतीय राजनीति में बीता हुआ काल हो गया है. क्या भारतीय राजनीति फिर राम और गाय जैसे मुद्दों की तरफ जायेगी या वहां से आगे बढ़कर बेरोजगारी और युवाओं से जुड़े सवालों से जुड़ेगी?
यदि विपक्ष को मोदी के चमत्कारिक नेतृत्व और भाजपा की संगठनात्मक शक्ति को चुनौती देनी है, तो कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों का सम्मान करते हुए उन्हें हिस्सेदारी देनी होगी. देश में अब भी गठबंधन की राजनीति चलेगी.
विपक्ष को गरीबों की राजनीति करने के लिए किसानों-दलितों और आदिवासियों को केंद्र में लाना होगा. विपक्ष के लिए रास्ता कठिन है, पर 2019 असंभव नहीं है. पहली बार विपक्ष में आत्मविश्वास दिखायी दे रहा है.

Next Article

Exit mobile version