मुहब्बत और दुलार का रफू
नाजमा खान टीवी पत्रकार nazmakhan786@gmail.com पड़ोस की दीदी ने जब घर आकर बताया कि टीचर ने उनके स्वेटर के छेद में उंगली डालकर बढ़ा दिया है, तो उनके पापा को इतना गुस्सा आया कि अगले दिन हमारे स्कूल में अंकल ने ‘रौनक’ लगायी, तो कॉलोनी के हर घर में अंकल जी का चर्चा वायरल हो […]
नाजमा खान
टीवी पत्रकार
nazmakhan786@gmail.com
पड़ोस की दीदी ने जब घर आकर बताया कि टीचर ने उनके स्वेटर के छेद में उंगली डालकर बढ़ा दिया है, तो उनके पापा को इतना गुस्सा आया कि अगले दिन हमारे स्कूल में अंकल ने ‘रौनक’ लगायी, तो कॉलोनी के हर घर में अंकल जी का चर्चा वायरल हो गया.कुछ दिनों बाद छत पर सूख रहे मेरे स्वेटर के बीच से छनकर आ रही सूरज की एक लकीर को मैंने छत पर बिंदु बनाते देखा. मैं डर गयी कि टीचर मुझे भी पूरी क्लास के सामने कमतर साबित करेगी.
मैं जानती थी कि बेर तोड़ते वक्त स्वेटर मुझसे ही फटा था, इसलिए अम्मी से बोलने में दहशत हो रही थी. पर बात अम्मी तक पहुंची और सुनते ही मेरे गाल-शरीफ पर एक तमाचा चमक गया. हालांकि, अम्मी ने बेहद बारीकी से मेरा स्वेटर रफू कर दिया.
अगले दिन स्कूल निकला गयी, पर दिल में कहीं एक डर था, तो हमने छेद पर एक रूमाल पिन के साथ ऐसे टांक लिया, गोया कि वहां छेद नाम की कोई शय थी ही नहीं.
एक दिन स्कूल में पकड़म-पकड़ाई खेलते वक्त किसी ने मुझे पकड़ने से पहले मेरे रूमाल को लपक लिया. उसे रोकते-रोकते रूमाल के साथ लगा कलेजा भी निकल गया. मारे दहशत के होश फाख्ता हो गये. अब रूमाल हाथ में और सीने पर छेद, वह भी पहले से ज्यादा बड़ा. टीचर से ज्यादा अम्मी की मार का डर था.
दरवाजा खोलते ही आंखों में मोटे-मोटे आंसूओं के साथ अम्मी को स्वेटर का छेद दिखा दिया. अम्मी परेशान. क्योंकि एक दिन में तो किसी भी सूरत में वह स्वेटर बुन नहीं पातीं. उसके बाद कुछ दिनों तक हमें पढ़ाई से ज्यादा अम्मी की सलाई पर चढ़े ऊन के उल्टे-सीधे फंदों की चिंता सताने लगी. हर दिन उसे बदन से लगाकर नापा जाता और अम्मी से तकाजा किया जाता कि कब तक स्वेटर पूरा होगा.
इसी बीच अम्मी की तबीयत बिगड़ गयी. मैंने अम्मी से कहा कि मुझे बाजार से ‘अमीरों वाला’ (रेडीमेड) स्वेटर दिला दें, लेकिन कुछ असर नहीं पड़ा. दिसंबर की सर्दी में मुझे वही घिसा हुआ स्वेटर पहनकर ही स्कूल जाना पड़ा, तो अम्मी से देखा नहीं गया. एक दिन उन्होंने पापा से मेरा नया स्कूल का स्वेटर मंगवा दिया, जिसे पाकर मुझे लगा कि मेरे हाथ कोहिनूर का हीरा लग गया हो. स्कूल का अगला दिन तो बस दोस्तों के बीच स्वेटर की गर्मी बघारने में ही बीत गया.
बचपन का यह किस्सा आज तब याद आया, जब अालमारी में कपड़े सहेजते हुए मैंने देखा कि एक भी स्वेटर अम्मी के हाथ की बुनाई वाला नहीं था.
सारे बाजार के बने ‘सुंदर’ रेडीमेड थे, जिन पर लगे ब्रैंड के टैग मुझे मुंह चिढ़ा रहे थे. इन स्वेटरों में अम्मी की सलाई पर चढ़े उल्टे-सीधे फंदों में कसकर पिरोई हुई मुहब्बत नहीं थी.
मशीन पर बने स्वेटर में अम्मी की बुनाई के वक्त की गयी वह गलती नहीं, जिसे पहनने पर हर बार उनकी नजर जाती थी. आज अालमारी में कीमती स्वेटर तो हैं, पर दिल आज भी उस फटे स्वेटर को याद करता है, जिसके बार-बार फटने पर अम्मी फिर से उस पर अपनी मोहब्बत और दुलार से रफू कर दिया करती थीं.