गेंद अब राहुल के पाले में!
कुमार प्रशांत गांधीवादी विचारक k.prashantji@gmail.com वैसे तो यह पांच राज्यों में विधानसभा का चुनावभर ही था, लेकिन 2014 में दिल्ली पहुंचने की नरेंद्र मोदी की जिद अौर जल्दी की सफलता के बाद अालम ऐसा बनाया गया, मानो मोदी सारे तार्किक विश्लेषणों से ऊपर हैं. मानो वे किसी पार्टी के अवसरवादी नेता नहीं, कोई अवतार हैं. […]
कुमार प्रशांत
गांधीवादी विचारक
k.prashantji@gmail.com
वैसे तो यह पांच राज्यों में विधानसभा का चुनावभर ही था, लेकिन 2014 में दिल्ली पहुंचने की नरेंद्र मोदी की जिद अौर जल्दी की सफलता के बाद अालम ऐसा बनाया गया, मानो मोदी सारे तार्किक विश्लेषणों से ऊपर हैं. मानो वे किसी पार्टी के अवसरवादी नेता नहीं, कोई अवतार हैं.
यह बात इस तरह फैलायी गयी कि दूसरे तो दूसरे, खुद मोदी भी इसे सही मानने लगे. कांग्रेस अौर उसका नेतृत्व कर रहे नेहरू-परिवार पर उनकी क्षुद्र छींटाकशी पर वे खुद मुदित होते रहे, लेकिन वे अौर उनके दरबारी पहचान नहीं पाये कि इन सब कारणों से देश का अाम अादमी उनसे विमुख होता गया. इसलिए नहीं कि आम आदमी नेहरू या उनके परिवार का भक्त है.
इसलिए कि अापसे वह अाख्यान नहीं, सच्चाई सुनना चाहता था कि अाप क्या हैं, क्या करते हैं अौर क्या कर सकते हैं. साल 2014 से अब तक इसका जवाब नहीं मिला. अापका सीना 56 इंच का है कि नहीं, यह अापका निजी मामला है, पर उस सीने में क्या है, यह सबका मामला है. अाम अादमी वही देखना-महसूस करना चाहता था. लेकिन उसे वहां केवल हवा मिली.
कांग्रेस अौर राहुल गांधी ने उस हवा को पकड़ने की कोशिश की. उन्हें इस बात का श्रेय देना ही पड़ेगा कि 2014 की चुनावी लड़ाई में बुरी तरह पिटने के बाद भी वे मैदान से हटे नहीं.
धीरे-धीरे देश में एक नया राजनीतिक विमर्श खड़ा होता गया, जो चकाचौंध करने की तमाम चालों के बावजूद जड़ पकड़ता गया. नरेंद्र मोदी अौर उनकी सरकार की फूहड़ कार्रवाइयों ने लगातार इस विमर्श को मजबूत किया. विपक्ष की तमाम ताकतें, जो नवसिखुए राहुल को कमान देने या उनके साथ काम करने से हिचक रही थीं, धीरे-धीरे पर्दे के पीछे चली गयीं.
वे मतदाताअों को साथ लेने की कोशिश के बिना ही वोटों की राजनीित करते रहे, इधर राहुल ने लड़ाई को जनता के बीच पहुंचाया. अाज राहुल ही विपक्ष का चेहरा बन गये हैं- एकमात्र विश्वसनीय चेहरा! राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में बनी कांग्रेस की सरकारें दरअसल राहुल की निजी जीत हैं; ठीक वैसे ही जैसे 2014 की जीत एकमात्र नरेंद्र मोदी की जीत करार दी गयी थी.राहुल गांधी ने देश में जो विमर्श खड़ा किया अौर उसे चुनावी जीत तक पहुंचाया, सर्वोच्च न्यायालय ने तुरंत ही उन दोनों की हवा निकाल दी.
‘चौकीदार चोर है’ कहते हुए सारे देश में माहौल खड़ा करनेवाले राहुल गांधी को अाज अदालत ने कठघरे में खड़ा कर दिया है अौर देश उनसे पूछ रहा है कि चोर कौन है अौर कैसे है, यह तो बताइए! राहुल गांधी के पास अब कोई विकल्प नहीं है. यही वक्त है कि उनके पास चौकीदार को चोर बतानेवाला जो भी प्रमाण है, उसे देश के सामने रख दें.
उन्होंने जिस तरह बताया कि चौकीदार ने कैसे चोरी की, अौर यह भी कि चोरी का पैसा किसकी जेब में गया, वैसा विवरण बिना साक्ष्य के दिया ही नहीं जा सकता. अदालती फैसले के बाद हवा यह बनी है कि यह मामला बस हवा भर था! यह हवा यदि गाढ़ी हो गयी, तो कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए 2019 में खड़े होने की जगह नहीं बचेगी.
लोग अदालती पेचीदगियों में नहीं जाते हैं. कपिल सिब्बल कह सकते हैं कि अदालत के सामने क्या नुक्ता था अौर अदालत ने किस नुक्ते की पड़ताल नहीं की.
अदालत कह सकती है कि वह संविधान की किस धारा के तहत, किस मामले का कौन सा हिस्सा ही जांच सकती थी, अौर कौन-सा नहीं. लेकिन, मामला तो उनका है न, जो इतना ही जानते हैं, अौर जान सकते हैं कि अदालत में अाप एक चोर को लेकर गये थे अौर अदालत ने कहा- यह चोर नहीं है! साल 2019 का चुनाव इसी के इर्द-गिर्द लड़ा जायेगा.
राहुल ने ही अपने चुनाव की यह कुंडली लिखी है, अौर राहुल को ही इस ग्रह के निवारण का रास्ता खोजना है. एक सवाल अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा अौर प्रशांत भूषण से भी पूछा जाना चाहिए कि जिस मामले का पूरा तथ्यात्मक विवरण लेकर अाप सारे देश में घूम रह थे, वह कैसा था कि जिसे अदालत ने विचारयोग्य भी नहीं माना?
एक अौर सवाल अदालत से पूछना चाहिए. वह जिस भी मामले की सुनवाई करती है, उसे अधूरा सुन कैसे सकती है अौर अधूरा फैसला कैसे दे सकती है?
अगर चोरी का एक मुकदमा अापके पास लाया गया है, तो उसे सुनने या न सुनने का अधिकार आपको है, लेकिन यह अाप कैसे कह सकते हैं कि अाप सिर्फ इतना जांचेंगे कि चोर दाहिने कमरे से अाया था या नहीं? मुकदमा तो चोरी का है- अाप सारी संभावनाएं जांच कर बतायें कि चोरी हुई कि नहीं. हमने अब तक यह समझा है कि राफेल सौदे में रक्षा सौदों की मान्य प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया, उसमें सहयोगी संस्थान का चयन सरकारी दबाव से हुअा, उसकी कीमत का निर्धारण ऐसे हुअा कि अधिक कीमत देकर हमें कम जहाज मिले और इस बीच में अरबों रुपयों की हेराफेरी हुई. यह है पूरा मामला, िजसकी जांच अदालत को करनी थी.
सच्चाई तक पहुंचना ही उसका धर्म है, उसका पेशा है अौर उसके होने का मतलब है. राफेल सौदे को शक के धुंधलके में छोड़ देना इसलिए भी गलत है कि हमारा सार्वजनिक जीवन जिस कदर जहरीला हुअा है, उसमें सड़ांध लगातार फैलती रहेगी.
अदालत ने अपना काम पूरा नहीं किया. सरकार तो चाहती ही नहीं िक सच खोजा जाये. बचते हैं सिर्फ राहुल गांधी. वे अब न अदालत का इंतजार करें, न जेपीसी का. अब तक वे जिस जानकारी के अाधार पर राफेल की बातें कर रहे थे, वह सारा कुछ खोलकर देश के सामने रख दें, अन्यथा 2019 की लड़ाई वे अभी ही हार जायेंगे.