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कश्मीर और मीडिया

बीते तीन दशकों से कश्मीर घाटी हिंसा, अलगाववाद और आतंकवाद की चपेट में है. पाकिस्तान से घुसपैठ और गोलाबारी की घटनाएं भी लगातार होती रहती हैं. ऐसे में वहां के समाचारों का राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रहना स्वाभाविक है, लेकिन यह सवाल भी है कि क्या हमारे अखबार और खबरिया चैनल राज्य के बारे […]

बीते तीन दशकों से कश्मीर घाटी हिंसा, अलगाववाद और आतंकवाद की चपेट में है. पाकिस्तान से घुसपैठ और गोलाबारी की घटनाएं भी लगातार होती रहती हैं.

ऐसे में वहां के समाचारों का राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रहना स्वाभाविक है, लेकिन यह सवाल भी है कि क्या हमारे अखबार और खबरिया चैनल राज्य के बारे में केवल नकारात्मक खबरें छापते और दिखाते हैं या वे घाटी में अमन-चैन की बहाली की प्रक्रिया में सकारात्मक सहयोग करते हैं. जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने क्षुब्ध होकर कहा है कि मीडिया ने जान-बूझकर देश में कश्मीर की खराब छवि बनायी है.

अनुभवी राजनेता रहे मलिक अपनी साफगोई के लिए जाने जाते हैं. राज्य में राष्ट्रपति शासन होने के कारण वह शासन प्रमुख भी हैं. इस नाते उनकी बात पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए. कश्मीर को लेकर देश के सामने अनेक चुनौतियां हैं. शांति का वातावरण बनाकर विकास योजनाओं को साकार करना है ताकि घाटी समेत पूरे राज्य की उम्मीदों को पूरा किया जा सके. अलगाववाद और आतंकवाद पर नियंत्रण करने के साथ गुमराह युवकों को मुख्यधारा में लाना है. अस्थिरता बनाये रखने के पाकिस्तान के इरादों पर नकेल लगाना है.

इसके लिए सबसे जरूरी है कि कश्मीर की आबादी के बड़े हिस्से, खासकर युवा वर्ग, को भरोसे में लिया जाए. राज्यपाल मलिक ने बिल्कुल सही कहा है कि कश्मीर समस्या का समाधान युवा पीढ़ी के हाथ में है, जो प्रतिभाशाली भी है और भविष्य की ओर उन्मुख भी. यह पीढ़ी अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी मौजूदगी भी दर्ज कर रही है.

हाल के वर्षों में प्रशासनिक सेवा, पढ़ाई, कला और खेलकूद में अनेक कश्मीरियों ने नाम कमाया है, लेकिन मीडिया में उनका उल्लेख न के बराबर है. अखबार घाटी में हिंसा या उग्र जुलूस की साधारण खबरों को भी पहले पन्ने पर जगह देता है, तो टेलीविजन चैनलों पर उन पर शोर-गुल से भरी बहसें होती हैं. जो मसले मुख्यधारा की मीडिया में चर्चा में होते हैं, आम तौर पर सोशल मीडिया में भी उन्हीं पर बतकही होती है. इस रवैये से कश्मीर के लोगों के मन में बैठा अविश्वास का भाव पुख्ता ही होता है. भारत के अन्य इलाकों में भी उनके प्रति गलत धारणा बनती है.

इसी का एक नतीजा यह है कि अनेक शहरों में कश्मीरी छात्रों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएं होती हैं. इन घटनाओं के बारे में सामान्य समाचार देकर मीडिया चुप्पी साध लेता है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अनेक कश्मीरी पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों और सेना में हैं तथा आतंकवाद से लोहा ले रहे हैं और शहीद हो रहे हैं. युवाओं का एक हिस्सा आतंकियों का मुखर विरोधी है.

हालिया पंचायत चुनावों में भागीदारी का भी संज्ञान लिया जाना चाहिए. कश्मीरियों को अलग-थलग कर हम आतंकवाद और अलगाववाद के विरुद्ध लड़ाई को नहीं जीत सकते हैं. उम्मीद है कि राज्यपाल की चिंता पर मीडिया आत्मचिंतन करेगा और जम्मू-कश्मीर के सकारात्मक समाचारों को देश के सामने लाने का प्रयास करेगा.

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