तो तिब्बत एक आजाद देश होता

प्रो सतीश कुमार सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ हरियाणा singhsatis@gmail.com पिछले दिनों तिब्बत को लेकर अमेरिका में हवा का रुख फिर से बदलने लगा है. अमेरिका चीन को घेरे में लेने की कोशिश में है. उसका लक्ष्य तिब्बत को मदद पहुंचाने की कम, अपना लक्ष्य पूरा करने का ज्यादा है. साल 1950 के दशक में अमेरिका ने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 24, 2018 6:41 AM
प्रो सतीश कुमार
सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ हरियाणा
singhsatis@gmail.com
पिछले दिनों तिब्बत को लेकर अमेरिका में हवा का रुख फिर से बदलने लगा है. अमेरिका चीन को घेरे में लेने की कोशिश में है. उसका लक्ष्य तिब्बत को मदद पहुंचाने की कम, अपना लक्ष्य पूरा करने का ज्यादा है.
साल 1950 के दशक में अमेरिका ने पूरी योजना बनायी थी तिब्बत को चंगुल से मुक्त करने के लिए. अगर तब की भारत सरकार अमेरिकी नक्शेकदम पर चली होती, तो तिब्बत एक आजाद देश होता. और चीन के कंटीले तार जो भारत के इर्द-गिर्द चीन के द्वारा बिछाये गये हैं, वे नहीं होते. साल 1950 में अमेरिका की योजना का मुख्य केंद्र भारत था. अमेरिका की सोच चीन के साम्यवाद को दबोचने की थी. चीन के विरुद्ध युद्ध के लिए भारत को तैयार होना था.
अमेरिकी राजदूत भारत सरकार से तिब्बत के मसले पर संपर्क में थे. तिब्बत मसले पर भारत और अमेरिकी हित भी एक समान थे. खम्पा तिब्बती थे, उनकी ट्रेनिंग भारत में होनी थी. पुनः संयुक्त प्रयास से उन्हें तिब्बत भेजना था, जहां पर चीन की सेना निरंतर आगे बढ़ रही थी. लेकिन, नेहरू ने इस योजना को आगे बढ़ने से रोक दिया.
उनकी नजर में चीन एक सहयोगी और निकटवर्ती मित्र दिखायी दिया. उसके बाद नेपाल की सहायता से अमेरिका ने 1957 से 1960 के बीच 19 से ज्यादा खंपा विद्रोहियों को तिब्बत की पहाड़ियों पर भेजा, लेकिन विरोधी सेना ज्यादा ताकतवर थी. बहुत दिनों तक यह विद्रोह टिक नहीं पाया. मजबूरी में भारत ने तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग मान लिया. दलाई लामा भागकर भारत पहुंच गये. लाखों तिब्बती दुनिया के कई हिस्सों में शरणार्थी बन गये. तभी से तिब्बती आंदोलन दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मानवाधिकार का एक मुद्दा बन गया.
अमेरिकी संसद के उच्च सदन सीनेट में एक महत्वपूर्ण बिल पारित किया गया है. इसमें चीन के उन वीजा पर प्रतिबंध का प्रस्ताव है जो अमेरिकी नागरिकों, अधिकारियों और पत्रकारों को तिब्बत जाने की अनुमति नहीं देते.
अमेरिकी संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा से ‘द रेसिप्रोकल एक्सेस टू तिब्बत एक्ट’ बिल गत सितंबर में ही पास हो गया था, जिसमें अमेरिकी नागरिकों, पत्रकारों और अधिकारियों के तिब्बत में निर्बाध आवागमन की मांग की गयी है. चीन इस बिल का विरोध कर रहा है और उसने धमकी दी है कि चीन-अमेरिका संबंध बिगड़ सकते हैं. इससे अरबों का साझा व्यापार खटाई में पड़ सकता है, जिसका असर दुनियाभर के अन्य भागों में भी महसूस किया जा सकता है.
तिब्बत का मुद्दा अमेरिका और चीन के बीच समुद्री लहर की तरह कभी ऊपर उठता है, तो कभी अचानक गुम हो जाता है. इस बात की विवेचना विगत में हुई घटनाओं की विवेचना से ही स्पष्ट हो सकती है.
दूसरा महत्वपूर्ण आयाम भारत की भूमिका और तिब्बत के सामरिक महत्व को लेकर है. जब अमेरिका और भारत के बीच द्विपक्षीय संबंध की गति में तेजी आती है, पसीना चीन को निकलता है. कारण होता है तिब्बत. चीन के क्रांतिकारी नेता माओत्से तुंग ने कहा था, ‘तिब्बत चीन के लिए दंत शृंखला है, चीन जिह्वा, जब तक दांत मजबूत है और बंद है तब तक चीन के लिए कोई खतरा नहीं है, लेकिन जैसे ही दंत शृंखला में सेंधमारी होगी, चीन की सुरक्षा खतरे में आ जायेगी.’
चीन की सामरिक सोच और अनुभव यह रहा है कि भारत या अमेरिका अपने बूते पर कोई भी सार्थक परिवर्तन नहीं कर सकते, क्योंकि अमेरिका चीन से बहुत दूर है. भारत को लेकर चीन पूरी तरह से आश्वस्त है कि भारत के पास वह दम-खम नहीं है कि भारत तिब्बत को आजाद कर सके. लेकिन, चीन के लिए तब मुश्किल का कारण बन जाता है, जब भारत और अमेरिका एक साथ खड़े दिखते हैं. तब चीन को ऐसा लगता है कि तिब्बत खतरे में है और उसकी सुरक्षा को भेदा जा सकता है.
महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि अमेरिका चीन के विरुद्ध कितनी लंबी छलांग लगाता है या यह महज दिखावटी क्रोध है. अभी तक अमेरिका चीन के विरुद्ध एक कार्ड के रूप में उपयोग करता रहा है अर्थात लक्ष्य कुछ और रहा, पर कारण तिब्बत बना.
साल 1950 से 1972 तक शीत युद्ध के बीच अमेरिकी मंशा साम्यवाद को लामबंद करने और रोकने से जुड़ी हुई थी, क्योंकि अमेरिका को डर था कि चीन तिब्बत को अपने कब्जे में लेकर साम्यवाद का प्रसार पूरे दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में करेगा.
साल 1973 में किसिंजर एंड निक्सन की जोड़ी ने चीन के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित कर विश्व राजनीति की धारा ही मोड़ दी. चीन को पूर्व सोवियत संघ के विरुद्ध प्रयोग में लाने का जोर बढ़ने लगा. पुनः तिब्बत का मसला खटाई में पड़ गया. लेकिन, तिब्बत का मुद्दा अमेरिका की सरकारी फाइलों से निकलकर पब्लिक के बीच में पहुंच गया. अमेरिकी समाज तिब्बत तथा दलाई लामा का मुरीद बन गया. अगर अमेरिका में तिब्बत मसला गरमा रहा है, तो यह भारत के लिए ठीक है.
चीन से प्रत्यक्ष संघर्ष की स्थिति में भारत नहीं है. चीन भारत को भारतीय उपमहाद्वीप में घेरने की हर संभव कोशिश में है. ऐसे में अमेरिकी तल्खी चीन को डराने का काम करेगी. इसका फायदा भारत को होगा, क्योंकि भारत-अमेरिका संबंध चीन की मुसीबत बनता रहा है. इसलिए चीन-पाकिस्तान संबंध पर भी इसका असर पड़ना तय है.
आज भी तिब्बत की वजह से भारत की सुरक्षा खतरे में है. इसलिए अब स्थिति ऐसी है कि तिब्बत के पक्ष में जब भी कोई बाहरी मुहिम बनती है, तो इसका फायदा भारत को होता है.

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