राज्यपालों पर बेमतलब राजनीति
राज्यपालों की नियुक्ति के संदर्भ में सरकारिया आयोग ने यह सुझाव दिया था कि राज्यपाल एक महत्वपूर्ण व्यक्ति होना चाहिए और राज्य की राजनीति में उसका कोई दखल नहीं होना चाहिए. एक जमाना था, जब राजभवन में राजा रहा करते थे, स्वतंत्र भारत में राजभवन उसे कहते हैं, जहां राज्यों के राज्यपाल रहते हैं. स्वतंत्र […]
राज्यपालों की नियुक्ति के संदर्भ में सरकारिया आयोग ने यह सुझाव दिया था कि राज्यपाल एक महत्वपूर्ण व्यक्ति होना चाहिए और राज्य की राजनीति में उसका कोई दखल नहीं होना चाहिए.
एक जमाना था, जब राजभवन में राजा रहा करते थे, स्वतंत्र भारत में राजभवन उसे कहते हैं, जहां राज्यों के राज्यपाल रहते हैं. स्वतंत्र भारत का अनुभव यह भी रहा है कि अक्सर राज्यपाल का पद उसे इनाम में दिया जाता है, जो केंद्र सरकार का कृपापात्र होता है. हमारे संविधान में इस पद के लिए कोई विशेष अर्हता निर्धारित नहीं है. राष्ट्रपति (पढ़िये केंद्र सरकार) ऐसे किसी भी व्यक्ति को किसी राज्य का राज्यपाल बना सकते हैं, जो कम से कम 35 वर्ष का हो और सरकार जिसे पुरस्कृत करना चाहती हो. अक्सर यह पद ऐसे व्यक्तियों को मिला है, जो केंद्र सरकार को ‘अपने’ लगे हैं. कभी-कभी यह पद उन्हें भी मिल जाता है, जिन्हें प्रधानमंत्री किसी और जगह (पढ़िये मंत्रिमंडल) फिट नहीं करना चाहता. राजभवनों में बैठे व्यक्तियों से अपेक्षा यह की जाती है कि वे केंद्र सरकार के एजेंटों की तरह काम करें.
हालांकि, यह पद पांच वर्ष का होता है, लेकिन जब सरकारें बदलती हैं, तो कभी-कभी इन्हें पद छोड़ने के संकेत दे दिये जाते हैं. वैसे राज्यपालों के काम-काज की समीक्षा करनेवाले सरकारिया आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि ‘उत्तरदायी केंद्र सरकार राज्यपाल को पद से हटाने की राष्ट्रपति से सिफारिश नहीं करेगी’, लेकिन केंद्र में सत्ता-परिवर्तन के समय राज्यपालों का परिवर्तन भी एक सहज प्रक्रिया मान ली गयी है. इसीलिए नयी सरकार ने कुछ राज्यों के राज्यपालों को पद छोड़ने के संकेत दिये हैं. चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा तो भाजपा ने दिया था, लेकिन यह मुक्ति-अभियान राज्यपालों तक भी पहुंच जायेगा, और वह भी इतनी जल्दी, इसकी उम्मीद कम थी. जिस शानदार समर्थन के साथ नयी सरकार बनी है, उसे देखते हुए यही उम्मीद की जा रही थी कि सरकार कुछ ठोस कदम उठा कर अपनी विजय का औचित्य सिद्ध करने की कोशिश करेगी. राज्यपाल जैसे अराजनीतिक पद को लेकर अनावश्यक विवाद नयी सरकार की प्राथमिकताओं के बारे में भ्रम ही खड़ा करता है.
यह पहली बार नहीं है, जब किसी सरकार ने इस तरह की कार्रवाई की है. 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी थी, तो उसने नौ राज्यों में कांग्रेस सरकारों को बर्खास्त किया था. जनता पार्टी की सरकार ने तब तर्क यह दिया था कि क्योंकि जनता ने केंद्र में कांग्रेस को नकार दिया है, इसलिए राज्यों में भी कांग्रेस सरकारों के बने रहने का नैतिक अधिकार नहीं है. वस्तुत: यह तर्क गलत था. जिस संघीय व्यवस्था में हम रह रहे हैं, उसमें केंद्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें होना एक सामान्य बात है. इसलिए केंद्र-राज्यों को शासन का संतुलन साधने की ईमानदार कोशिश करनी होगी.
राज्यपालों की नियुक्ति के संदर्भ में सरकारिया आयोग ने यह सुझाव दिया था कि राज्यपाल एक महत्वपूर्ण व्यक्ति होना चाहिए और राज्य की राजनीति में उसका दखल नहीं होना चाहिए. आयोग ने यह भी स्पष्ट कहा था कि राज्यपाल बनाया जानेवाला व्यक्ति केंद्र में सत्तारूढ़ दल से जुड़ा राजनेता नहीं होना चाहिए. इस सुझाव के पीछे की भावना संघीय संतुलन को बनाये रखने की ही थी. पर ऐसे विवेकशील सुझाव हमारी राजनीति को रास नहीं आते. केंद्र में आनेवाली सरकारों ने राज्यपाल के पद को एक इनाम की तरह ही समझा, जो अक्सर ‘अपनों’ को दिया जाता है, जिसका अर्थ केंद्र के इशारों पर काम करना होता है.
2004 में जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार बनी थी, तब कांग्रेस ने भी एनडीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को पद से हटाया था. तब भाजपा ने इसे गलत बताया था. मामला अदालत तक गया था. तब उच्चतम न्यायालय की कांस्टीटय़ूशनल बेंच ने स्पष्ट निर्णय दिया था कि केंद्र सरकार का दायित्व बनता है कि वह किसी राज्यपाल को पद से हटाने के लिए उपयुक्त कारण बताये, जो मनमाने न हों. उच्चतम न्यायालय द्वारा रेखांकित यह बातें कुल मिला कर राज्यपाल को पद की गरिमा प्रदान करनेवाली और राजनीतिक दलों को सही राह दिखानेवाली थीं. कांग्रेस-विरोधी दलों ने उस वक्त न्यायालय की इन बातों का समर्थन किया था. लेकिन आज जब भाजपा सत्ता में है, तो वह वही काम कर रही है, जिनकी वह आलोचना करती रही है.
सुना है, प्रधानमंत्री ने अपने मंत्रियों को यह भी निर्देश दिया है कि वे उन अफसरों को अपने साथ महत्वपूर्ण पदों पर न रखें, जो पूर्व सरकार के मंत्रियों के निकट थे. इसे भी राज्यपाल मुद्दे से जोड़ कर देखा जाना चाहिए. यदि राजनीति को स्वच्छ बनाना है, तो उस उदारता को भी स्वीकारना होगा, जो जनतांत्रिक मर्यादाओं को रेखांकित करती है. अच्छा होता, यदि नयी सरकार संतुलित राजनीति का परिचय देती.
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
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