आश्रय गृहों का हाल खराब

अंजलि सिन्हा सामाजिक कार्यकर्ता anjali.sinha1@gmail.com पिछले दिनों राष्ट्रीय महिला आयोग की तीन सदस्यीय जांच टीम ने चार राज्यों के 26 महिला आश्रय गृहों का दौरा किया, जिनमें से 25 में अनियमितता पायी गयी. ये चार राज्य थे- उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और ओड़िशा. ज्ञात हो कि इन आश्रय गृहों में वे महिलाएं होती हैं, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 26, 2018 6:47 AM
अंजलि सिन्हा
सामाजिक कार्यकर्ता
anjali.sinha1@gmail.com
पिछले दिनों राष्ट्रीय महिला आयोग की तीन सदस्यीय जांच टीम ने चार राज्यों के 26 महिला आश्रय गृहों का दौरा किया, जिनमें से 25 में अनियमितता पायी गयी. ये चार राज्य थे- उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और ओड़िशा. ज्ञात हो कि इन आश्रय गृहों में वे महिलाएं होती हैं, जो यौन हिंसा के शिकार हों या छोड़ दी गयीं या अन्य प्रकार की पीड़िता. महिलाओं की बदतर स्थिति तथा दयनीय हालत पर जांच टीम ने बताया कि वहां न रहने की, न ठीक से खाने की और न ही इलाज की व्यवस्था है.
शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग तथा चुनौतीपूर्ण स्थितियों वालों के लिए भी अलग से कोई मेडिकल सुविधा नहीं है, न ही काउंसेलर हैं, जबकि इन गृहों को सरकारी धन मुहैया होता है. केंद्र सरकार 60 फीसदी धन देती है तथा राज्य सरकार 40 फीसदी देती है. पहाड़ी क्षेत्रों में यह अनुपात 90ः10 का है तथा केंद्र शासित प्रदेशों में 100 फीसदी केंद्र सरकार देती है.
ये अल्पावधि आश्रय गृह हैं, लेकिन कई जगह कामकाजी महिला हॉस्टल की तरह चल रहे हैं. इन आश्रय गृहों में अधिक से अधिक पांच साल तक ही कोई पीड़िता रह सकती है. उम्मीद होती है कि तब तक इन पीड़िताओं को विभिन्न प्रशिक्षणों के जरिये स्वावलंबी बना दिया जायेगा. आयोग ने कहा है कि वह जल्दी ही देशभर में 500 आश्रय गृहों की जांच करेगा. जब तक जांच टीम उन तक पहुंचेगी, तब तक संभव है कि कई संस्थाएं खुद को दिखाने के लिए ‘दुरुस्त’ कर लेंगी.
विभिन्न मुसीबतों की मारी तथा कई आपदाएं झेल चुकीं मजबूर महिलाएं यहां आती हैं, ऐसे में वे अपने मानवीय हक के लिए आवाज कैसे उठाएं? आपस में उनका संगठित होना तथा प्रतिरोध करना लगभग असंभव है. ऐसे में उन्हें आश्रय गृहों के सहारे की जरूरत होती है.
सरकारों ने आश्रय गृहों को चलाने की जिम्मेदारी विभिन्न गैरसरकारी संस्थाओं को दे रखी है, जो इसे व्यवसाय के रूप में चलाते हैं. उन पर निगरानी भी ठीक से नहीं हो पाती है और जवाबदेही सुनिश्चित करने की प्रणाली लचर है. यह एक बड़ी समस्या है. सरकार ऐसी प्रणाली विकसित नहीं करती, जिसमें पारदर्शिता हो तथा अनियमितता पाये जाने पर कर्मचारी को सजा के साथ सरकारी नौकरी से हाथ धोना पड़े.
जो हाल महिला आश्रय गृहों का है, वही हाल गरीब पिछड़े वर्ग की लड़कियों के लिए बने आवासीय विद्यालयों का भी है. खबरें आ चुकी हैं कि कैसे वहां से लड़कियां गायब हो जाती हैं या तस्करों के चंगुल में फंस जाती हैं.
मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड के खुलासे के बाद जब जांच टीम ने अन्य बालिका गृहों का मुआयना किया, तो स्थिति संदिग्ध मिली. देशभर में ऐसे अनेक मामले मौजूद हैं. ये सभी मामले राजनीतिक पार्टियों के लिए तथा पक्ष-विपक्ष से परे जाकर विचार करने लायक हैं. विडंबना है कि आश्रम, स्कूलों या आवासीय विद्यालयों से ऐसी खबरें आती रहती हैं, मगर इन्हें लेकर कोई व्यापक आक्रोश नहीं बन पाता.
दो साल पहले झारखंड के सभी 203 कस्तूरबा स्कूल सूर्खियों में थे, जिसकी फौरी वजह इन स्कूलों में सुरक्षा की अक्षम्य लापरवाही की घटनाओं का उजागर होना बताया गया था. सबसे विचलित करनेवाली खबर थी गोड्डा जिले के कस्तूरबा स्कूल परिसर में ग्यारहवीं की एक छात्रा द्वारा गर्भपात कराने के लिए गोलियों के सेवन की घटना. जाहिर है, मासूम बच्ची के साथ यह यौन हिंसा का मामला है.
यौन हिंसा के बढ़ते आंकड़ों की बात फिलहाल छोड़ दें और ऐसी घटनाओं पर नजर डालें, जहां घिनौने विचार वाले कुंठित पुरुष एक योजनाबद्ध ढंग से आवास गृहों को निशाना बनाते हैं. वे या तो खुद संचालक समूह में होते हैं या संचालकों से संपर्क साधते हैं, जहां अबोध बच्चियां उनका शिकार बनती हैं.
इन बच्चियों का बचाव करनेवाला उनका अपना कोई नहीं होता. आखिर इनकी मानसिकता का क्या इलाज है? कुछ पकड़े जाएं, सजा भी हो जाये, तो भी इनकी मौजूदगी दूसरों के लिए खतरा पैदा करती रहती है. घूरती निगाहें और कुंठित यौनिक हावभाव भी यौन हिंसा से कहीं भी कम नहीं है.
अगर इन मामलों पर समग्रता में नजर डालें, तो साफ दिखता है कि एक मामला तो ढीला एवं अनैतिक तथा आपराधिक, प्रशासनिक व्यवस्था का है, जो कभी अपनी चुस्ती के अभाव में, तो कभी जान-बूझकर और कभी स्वयं उसमें शामिल होकर इन अमानवीय कृत्यों या अपराधों को होने देता है. दूसरा मामला समाज में कुंठित मानसिकता वाले लोगों का है, जो मासूमों का यौन शोषण करते हैं.
ऐसी संस्थाओं पर भी नियंत्रण रखने की जरूरत है, जो कल्याण, चैरिटी तथा दया के नाम पर अपना धंधा चलाती हैं. ये संस्थाएं दानदाताओं सहित सरकार से भी धन लेती हैं. जो काम सरकार को स्वयं करना चाहिए, वह काम इन संस्थाओं से करवाती हैं तथा अपनी जिम्मेदारी इन्हें सौंपकर सरकारें खुद ही मुक्त हो जाती हैं.
इस दिशा में कुछ प्रयास करने की जरूरत यह है कि पूरा समाज सही मायने में सभ्य होने के लिए आगे कैसे बढ़ेगा. और ऐसे सभी व्यवहारों से चिंतित या गलत माननेवालों की अपनी भूमिका कैसे सुनिश्चित हो पायेगी.
सिर्फ अकेले-अकेले प्रयास काफी नहीं है, बल्कि कई और लगातार चलनेवाली मुहिमों की जरूरत पड़ेगी. ऐसे समूहों की जरूरत है, जो प्रशासन पर दबाव बना सकें कि वह अपनी नाक के नीचे यह सब न होने दे और चुस्ती तथा सतर्कता बरते.

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