कंप्यूटर पर निगरानी या चुनावी दखल

विराग गुप्ता एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट viraggupta@hotmail.com डेटा की सुरक्षा और प्राइवेसी के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के नौ जजों ने सामूहिक सहमति से अगस्त 2017 में एक बड़ा फैसला दिया था. इसके बाद जस्टिस श्रीकृष्णा समिति की विस्तृत सिफारिशों पर कानून में समग्र बदलाव की बजाय टुकड़ों में किये जा रहे […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 26, 2018 6:50 AM
विराग गुप्ता
एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
viraggupta@hotmail.com
डेटा की सुरक्षा और प्राइवेसी के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के नौ जजों ने सामूहिक सहमति से अगस्त 2017 में एक बड़ा फैसला दिया था. इसके बाद जस्टिस श्रीकृष्णा समिति की विस्तृत सिफारिशों पर कानून में समग्र बदलाव की बजाय टुकड़ों में किये जा रहे सरकारी प्रयास, आलोचना के शिकार हो रहे हैं.
भीड़ की हिंसा को रोकने के नाम पर सरकार द्वारा सोशल मीडिया हब के प्रस्ताव को कुछ महीने पहले आगे बढ़ाया गया, जिसे निगरानी तंत्र बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया. उसके बाद आतंकी गतिविधियों को रोकने के नाम पर कंप्यूटर और मोबाइल में सेंधमारी के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा 10 एजेंसियों को अधिकृत करने के आदेश पर मचा बवाल कम नहीं हुआ कि फेक न्यूज रोकने के नाम पर अब आइटी मंत्रालय ने नियमों में बदलाव की पहल कर दी. बदलाव के मसौदे को अभी तक आम जनता के लिए जारी नहीं किया गया है.
देश में 100 करोड़ से ज्यादा स्मार्ट फोन और 40 करोड़ से ज्यादा इंटरनेट यूजर्स हैं. जनता की सहमति के बगैर कुछ विदेशी कंपनियों के साथ मिलकर नियम और कानून में बदलाव, आखिर यह लोकतंत्र में कैसे स्वीकार्य हो सकता है?
इस मामले के तीन पहलू हैं- सोशल मीडिया कंपनियों द्वारा भारत में लगभग 20 लाख करोड़ के कारोबार पर टैक्स की वसूली; भारत के करोड़ों इंटरनेट यूजर्स के डेटा और प्राइवेसी के अधिकार की सुरक्षा; फेक न्यूज और आतंकवाद जैसी देश-विरोधी गतिविधियों से निबटने के लिए सोशल मीडिया कंपनियों का नियमन और उन पर लगाम. फेक न्यूज, पोर्नोग्राफी, आतंकवाद को रोकने के नाम पर सरकार के फौरी प्रयास, दरअसल चुनावी रणनीति का हिस्सा ज्यादा है.
साल 2014 के आम चुनाव और अभी पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में सोशल मीडिया के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने की वजह से आगामी चुनावों में इन कंपनियों की अहम भूमिका रहेगी. ग्राहकों द्वारा इन प्लेटफाॅर्म के इस्तेमाल करने पर इनकी भूमिका पोस्टमैन की तरह होती है, इसलिए कानून की भाषा में इन्हें ‘इंटरमीडियरी’ कहा जाता है.
यूरोपियन यूनियन की जांच के बाद फेसबुक द्वारा डेटा बेचने के प्रमाण मिले हैं. फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया कंपनियां भारत के करोड़ों यूजर्स का डाटा अमेरिका ट्रांसफर करने के बाद उसके व्यावसायिक इस्तेमाल से खरबों रुपये कमाती हैं.
यूरोप के देशों में इन कंपनियों के खिलाफ भारी जुर्माने और आपराधिक कार्रवाई की जा रही है, परंतु कैंब्रिज एनालिटिका मामले में फेसबुक जैसी सोशल मीडिया कंपनियों द्वारा चुनावी राजनीति में सक्रिय हस्तक्षेप के खुलासे के बावजूद, भारत सरकार नहीं चेती. भारत में सोशल मीडिया कंपनियों के ऊपर आइटी एक्ट, आइपीसी और इनकम टैक्स कानून के अनेक प्रावधानों को लागू करने के लिए दिल्ली हाइकोर्ट ने केएन गोविंदाचार्य की याचिका पर अनेक आदेश भी पारित किये थे.
पूर्ववर्ती कांग्रेस और वर्तमान मोदी सरकार द्वारा सोशल मीडिया कंपनियों के ऊपर नियमों को लागू करने की सार्थक पहल करने की बजाय, कानून में बदलाव के नाम पर जनता के साथ खिलवाड़ का सिलसिला बदस्तूर जारी है.
सुप्रीम कोर्ट ने टाइम्स ऑफ इंडिया मामले के अहम फैसले में कहा था कि मीडिया कंपनियों की कानूनी जवाबदेही को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन के तौर पर नहीं देखा जा सकता. भारत में इन कंपनियों के खिलाफ नियमों के पालन की ठोस पहल करने की बजाय सोशल मीडिया के स्वतंत्र प्लेटफाॅर्म में जनता की अभिव्यक्ति के हनन के असंवैधानिक प्रयासों से यह मामला जटिल और संगीन हो गया है.
सीबीआइ, ईडी जैसी सुरक्षा एजेंसियों द्वारा इंटरनेट और कंप्यूटर में सेंधमारी के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जारी आदेशों को यह कहकर सही ठहराया जा रहा है कि मोदी सरकार ने पूर्ववर्ती यूपीए सरकार द्वारा 2009 में बनाये गये नियमों को स्पष्ट बना दिया है. सरकार द्वारा 2013 के आरटीआइ का हवाला देते हुए यूपीए के दौर में टेलीफोन और ईमेल की जासूसी के अनेक प्रमाण दिये जा रहे हैं. सवाल यह है कि क्या मोदी सरकार द्वारा भी पिछले साढ़े चार सालों से मोबाइल और इंटरनेट की जासूसी नहीं की जा रही? पुराने नियमों के तहत ऐसी निगरानी यदि हो रही थी, तो फिर इस नये आदेश की जरूरत क्यों आ पड़ी?
आइटी एक्ट और नियमों में बदलाव के अनुसार, 50 लाख से ज्यादा ग्राहकों वाली सोशल मीडिया कंपनियों को भारत में अपना ऑफिस स्थापित करना पड़ेगा. इन कंपनियों द्वारा भारत में ऑफिस और डेटा सर्वर्स स्थापित करने से लाखों युवाओं को रोजगार मिलेगा और टैक्स की आमदनी भी होगी.
इस नियम का सख्ती से पालन करने के लिए आइटी एक्ट के अलावा कंपनी कानून और इनकम टैक्स कानून में भी बदलाव होना चाहिए. फेक न्यूज रोकने के लिए सोशल मीडिया कंपनियों द्वारा समयबद्ध कार्रवाई के लिए भी नये नियमों में प्रावधान है, जिसके लिए 24X7 समय के लिए नोडल अधिकारियों की नियुक्ति की बात भी की जा रही है. वर्तमान कानून के तहत 36 घंटों के भीतर आपत्तिजनक सामग्री हटाने का नियम है, उसके बावजूद सरकार पोर्नोग्राफी, ड्रग्स, आतंकवाद और फेक न्यूज की सुनामी को रोकने में विफल रही.
दिल्ली हाइकोर्ट द्वारा जारी आदेशों के अनुसार, सोशल मीडिया समेत इंटरनेट की सभी कंपनियों को भारत में शिकायत अधिकारी नियुक्त करना चाहिए. व्हॉट्सएप, फेसबुक, गूगल, ट्विटर जैसी कंपनियों द्वारा भारतीय कारोबार के लिए अमेरिका और यूरोप में शिकायत अधिकारी की नियुक्ति करने के बावजूद सरकार क्यों निरीह है? सवाल यह है कि पुराने नियमों के सही अनुपालन के लिए केंद्र सरकार द्वारा जब पहल नहीं हो रही, तो फिर नये नियमों से बदलाव कैसे आयेगा?
भारत जैसे बड़े बाजार की बदौलत सोशल मीडिया कंपनियां विश्व की धनी कंपनियों में शुमार हैं. इसमें जियो जैसी भारतीय मोबाइल कंपनियां भी हैं. शायद इसलिए मुकेश अंबानी ने डेटा को नये जमाने का तेल बताया है.
डेटा के इस खेल में कंपनियां मदारी, जनता प्रोडक्ट और भारत उपनिवेश बन गया है. सरकार द्वारा चुनावी समय में दलीय हित को वरीयता देना कानून के शासन और लोकतंत्र दोनों के लिए खतरनाक हो सकता है. सोशल मीडिया कंपनियों द्वारा कानून पालन की व्यापक व्यवस्था के लिए सरकार द्वारा ठोस प्रयासों के साथ, लोगों की प्राइवेसी की सुरक्षा सुनिश्चित की जाये, तभी देश में लोकतंत्र और संविधान का संरक्षण हो सकेगा.

Next Article

Exit mobile version