राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर किसान

योगेंद्र यादव अध्यक्ष, स्वराज इंडिया yyopinion@gmail.com बहुत समय बाद राष्ट्रीय किसान मंच पर बैठा है. बहुत साल बाद अखबारों और टीवी की सुर्खियों में किसान दिखने लगा है. सब देख रहे हैं, मानो गांव के मेले में भालू आ गया हो. कोई उसे छेड़ रहा है, कोई उसे टोपी पहना रहा है. यही हालत मंच […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 27, 2018 6:06 AM

योगेंद्र यादव

अध्यक्ष, स्वराज इंडिया

yyopinion@gmail.com

बहुत समय बाद राष्ट्रीय किसान मंच पर बैठा है. बहुत साल बाद अखबारों और टीवी की सुर्खियों में किसान दिखने लगा है. सब देख रहे हैं, मानो गांव के मेले में भालू आ गया हो. कोई उसे छेड़ रहा है, कोई उसे टोपी पहना रहा है.

यही हालत मंच पर बैठे किसान की है. सत्ता किसान को लालीपॉप देकर बहला रही है, मीडिया बहस को भटका रहा है, बीजेपी उसकी आंख में हिंदू-मुस्लिम की धूल झोंककर भरमा रही है, विपक्षी दल अपनी दुकान सजा रहे हैं. किसान की चिंता किसी को नहीं, सब अपना स्वार्थ साध रहे हैं.

जब से राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का चुनाव परिणाम आया है, तब से सभी सरकारों को मानो सांप सूंघ गया है. जो बात चार साल तक समझ नहीं आयी, वह चार दिन में समझ आ गयी है. कुर्सी हिलते ही सच दिखने लगा है कि किसान दुखी है, नाराज है. पहली बार यह संभावना बनी है कि देश का लोकसभा चुनाव गांव, खेती और किसानी के मुद्दे पर होगा.

सरकारें, पार्टियां और मीडिया, सब इस संभावना को टालने की कोशिश में जुटे हुए हैं. सरकारें इस फिराक में हैं कि किसान को लालीपॉप पकड़ाकर सस्ते में निपटा दिया जाये. इसलिए चारों तरफ कर्जमाफी का बोलबाला है. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में नयी सरकारों को शपथ लेते ही कर्जमाफी की घोषणा करनी पड़ी. इधर केंद्र में बीजेपी के नेता कर्जमाफी को सस्ती राजनीति घोषित कर रहे थे, उधर असम में बीजेपी की सरकार आंशिक कर्जमाफी घोषित कर रही थी और ओडिशा की बीजेपी अगले चुनाव में कर्जमाफी का वादा कर रही थी. गुजरात सरकार किसानों के बकाया बिजली बिल माफ कर रही थी, तो हरियाणा सरकार किसानों को पेंशन देने पर विचार कर रही है. ओडिशा सरकार ने तेलंगाना की तर्ज पर हर किसान को हर फसल के लिए नियमित अनुदान देने की घोषणा कर दी है.

पर दिक्कत यह है कि खाली कर्जमाफी से किसान का संकट दूर होनेवाला नहीं है. किसान को चाहिए फसलों के उचित दाम की गारंटी, उसमें हर साल बजट का मोटा हिस्सा लगेगा. वह कोई सरकार देना नहीं चाहती. इसलिए कर्जमाफी के झुनझुने का सहारा ले रही है.

मीडिया भी एक झूठी बहस चला रहा है. सवाल पूछा जाता है कि क्या देश किसान की कर्जमाफी का बोझ बर्दाश्त कर सकता है? यह सवाल तब नहीं पूछा जाता, जब सरकारी कर्मचारियों का वेतन बढ़ाने के लिए हर साल केंद्र सरकार एक लाख करोड़ रुपया अतिरिक्त खर्च करना शुरू करती है.

यह चिंता तब नहीं होती, जब बड़ी कंपनियों के हजारों करोड़ के कर्ज रफा-दफा किये जाते हैं. जब किसान की बारी आती है, तो अचानक अर्थशास्त्री याद आ जाता है. विशेषज्ञ पूछते हैं कि क्या किसान की सारी समस्या कर्जमाफी से हल हो जायेगी? जाहिर है, कोई एक घोषणा किसान के लिए रामबाण औषधि नहीं है.

यह नहीं पूछते कि क्या कर्ज से मुक्त हुए बिना किसान अपने पांव पर खड़ा हो सकता है? मीडिया यह जानने की कोशिश नहीं करता कि आखिर किसान आंदोलन ने मांगा क्या था? अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ने जो दो बिल संसद में पेश किये हैं, उसे पढ़ने की जहमत कोई नहीं उठाता.

किसानों के कंधे पर बंदूक रखकर राहुल गांधी भी फायर करते हैं- प्रधानमंत्री को सोने नहीं दूंगा, जब तक देशभर में किसानों की कर्ज माफी ना हो जाये. लेकिन खुद से नहीं पूछते कि पंजाब और कर्नाटक में उनकी सरकार ने कर्जमाफी का वादा करके अब तक पूरा नहीं किया है.

कांग्रेस के आक्रमण से घबरायी बीजेपी को अब कोई रास्ता नहीं दिख रहा. भाजपा नेताओं को भी समझ आ गया कि बार-बार रट्टू तोते की तरह किसानों की आय दोगुनी करने का जुमला दोहराने से अब किसान उल्लू नहीं बन रहा. इसलिए सत्तापक्ष अब येन केन प्रकारेण किसान को राष्ट्रीय मंच से उतारने के तरीके ढूंढ रहा है. ऐसे में डूबते को रामलला का सहारा. इसलिए अब मंदिर वहीं बनायेंगे का नारा दोबारा उठाया जा रहा है. हिंदू-मुस्लिम के बीच नफरत फैलाने की कोशिश चल रही है.

इस घड़ी का यक्ष प्रश्न यह है: दशकों बाद राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर पहुंचा किसान क्या इस व्यवस्था से कुछ डिस्काउंट मांगकर घर चला जायेगा? या किसान आंदोलन इस बार किसान विरोधी व्यवस्था को आमूलचूल बदलने की मांग करेगा?

पिछले डेढ़ साल में पहली बार किसान आंदोलन ने अभूतपूर्व एकता दिखायी है. पहली बार किसान आंदोलन सिर्फ विरोध नहीं कर रहे, विकल्प दे रहे हैं. पहली बार किसानों की तरफ से संसद में कानून पेश हुए हैं. इन दोनों प्रस्तावित कानूनों में किसान की समस्या के समाधान के बीज पड़ चुके हैं.

पहला विधेयक किसान को फसल का उचित मूल्य दिलवाने की कानूनी गारंटी देने की व्यवस्था करता है. अगर यह कानून बन जाता है, तो किसान को हर साल मंडी से खाली हाथ नहीं आना पड़ेगा. अगर फसल की लागत का डेढ़ गुना दाम नहीं मिला, तो वह कोर्ट से मुआवजा ले सकेगा.

दूसरा विधेयक किसानों के संपूर्ण कर्ज मुक्ति की व्यवस्था करता है. अगर यह कानून बन गया, तो किसानों का सारा कर्ज झटके में खत्म होगा और भविष्य में किसान कर्ज में न डूबे, उसकी पुख्ता व्यवस्था बनायी जायेगी.

पिछले दो सप्ताह से किसान की रट लगानेवाली सरकारों और पार्टियों की नियत समझनी हो, तो बस इतना देखते रहिए. क्या संसद के इस सत्र में दोनों विधेयकों को कानून बनाया जायेगा? या कि किसान को एक बार फिर सस्ते में निपटा दिया जायेगा?

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