युवा सदी का थका हुआ साल
मृणाल पांडे ग्रुप सीनियर एडिटोरियल एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड mrinal.pande@gmail.com हम नये साल की दहलीज पर खड़े हैं. इक्कीसवीं सदी ने पिछले दो दशक में जितना कुछ निगला है, नया साल भी उसे धीरे-धीरे पचायेगा. नयी सदी की शुरुआत पर लगता था कि बीसवीं सदी के झेले दो-दो विश्व युद्ध, उनसे उबरने और दोबारा नया सृजित […]
मृणाल पांडे
ग्रुप सीनियर एडिटोरियल
एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड
mrinal.pande@gmail.com
हम नये साल की दहलीज पर खड़े हैं. इक्कीसवीं सदी ने पिछले दो दशक में जितना कुछ निगला है, नया साल भी उसे धीरे-धीरे पचायेगा. नयी सदी की शुरुआत पर लगता था कि बीसवीं सदी के झेले दो-दो विश्व युद्ध, उनसे उबरने और दोबारा नया सृजित करने की तकलीफ, अनेक महामारियां, शीत युद्ध, देश की आजादी के सुख और बंटवारे के दुख अब बीते जमाने की बातें बन जायेंगे.
और बर्लिन की दीवार तथा सोवियत रूस के विघटन और यूरोप के साझा बाजार के निर्माण के साथ ग्लोबल दुनिया में एक नयी विश्व बिरादरी बनेगी, जहां अर्थव्यवस्था से लेकर राजनीति तक हर मुहिम पर मानवजाति के लिए साझीदारी के नये मानदंड होंगे. शुरू के दशक में अर्थनीति के स्तर पर यह होने भी लगा था. आजादी के बाद से तीन फीसदी पर ठिठकी हमारे देश के विकास की रफ्तार उछलकर दस का आंकड़ा छूने लगी, साक्षरता-दर (खासकर महिलाओं की) उम्मीद से अधिक तेजी से बढ़ी और दक्षिण भारत तो उन्नति के हर पैमाने पर नित नयी इबारत लिखने लगा.
उत्तर के हिंदी पट्टी के कुछ पिछड़े इलाके अलबत्ता तब भी उस दर से तरक्की करते नहीं दिखते थे. विपक्ष का कहना था कि इसकी बड़ी वजह भ्रष्टाचार और बहुसंख्य हिंदू हितों की कीमत पर अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण था. लिहाजा 2014 में जब उत्तर भारत में बहुमत हासिल कर नयी सरकार बनी, तो उम्मीदों में उछाल आना स्वाभाविक था.
पर धूनी की लौ में और जो हो, असली ताप नहीं था. लिहाजा पढ़े-लिखे मध्यवर्ग ने जल्द ही पाया कि कहीं कोई बड़ा फायदा होता नहीं दिख रहा. रही-सही कसर नोटबंदी ने और फिर 2017 में अफरातफरी के बीच लगाये गये जीएसटी ने पूरी कर दी और शहरी उपक्रमी और नौकरीपेशा जन ही नहीं, लगातार बदहाल हो रहे खेतिहर ग्रामीण भी उम्मीदें खो बैठे.
इसी के साथ विभेदकारी सोच को कहीं दबे-छिपे, तो कहीं खुलकर बढ़ावा दिया जाने लगा. आज, जब कानून व्यवस्था के रखवाले की बुलंदशहर में सरेआम हत्या के बाद भी आरोपी छुट्टा फिर रहा है, तो लग रहा है कि 2014 में बड़े ढोल-दमामे बजाकर दिखाये गये सपनों का कैलकुलस झूठा है.
साल 2018 गांधीजी की 150वीं जयंती का भी साल है. गांधी ने ही गुलामी झेलते गरीब और थके देश को अन्यायी की आंख में आंख डालकर देखने और सत्याग्रह की अड़ियल लड़ाई से बिना हथियार सत्ता छीनने की ताकत और एक्य दिया था.
एक खोखले हो चुके समाज के बीच से गांधी ने भारत के मर्म में छिपी आध्यात्मिकता, नैतिकता को फिर से खोज निकाला था और युगों से जाति-धर्म और वर्गभेद के पोखरों में बंटे समाज को एक महासागर बना दिया था. साल 2018 में हमने दूसरी विडंबना भी देखी. गांधी की विरासत पर खींचतान होने से आजादी की लड़ाई का संदूक खुला, तो हमने पाया कि पटेल और सुभाष बोस को भी अपना बनाने के लिए पंडों की एक जमात उमड़ी आ रही है. इस खींचतान के बीच 2018 एक उपजाऊ साल कैसे बन सकता था?
अपनी पूर्ववर्ती सरकार की हर मुहिम पर खिल्ली उड़ाना सत्तारूढ़ सरकार को अब भारी पड़ने लगा है. वही नयी तकनीक, जिसकी मदद से उसने 2014 में अपने हक में एक विशाल सुनामी तैयार करायी थी, अब दुधारी तलवार साबित हो रही है, क्योंकि विपक्ष ने भी उसका चतुर इस्तेमाल शुरू कर दिया है.
सरकार नोटबंदी को अग्रगामी कदम कहती है, तो उसके पूर्व वित्तीय सलाहकारों और मंत्रियों के बयान मीडिया में प्रकट होने में देर नहीं लगती, जो इसे एक आत्मघाती और बिना सलाह-मशवरे के उठाया कदम मानते हैं. वह कांग्रेस को वंशवादी भ्रष्टाचारी कहती है, तो इससे पहले कि जनता सहमति में सिर हिलाये, खुद उसके पार्टी प्रधान से लेकर बड़े मंत्रियों के वंशधरों की संपत्ति में आयी उछाल और बैंकों का कर्ज चुकाये बिन भागे धनकुबेरों से उनके करीबी बंधनों के चर्चे हवा में टिड्डी दल की तरह छा जाते हैं.
राफेल मामले में भी जनता को लग रहा है कि सरकार पाकदामनी के सारे दावों के बाद भी एकदम बेदाग तो नहीं है. जो शीर्ष नेतृत्व कभी शोला था, वह अब मनमोहन शासन के आखिरी दिनों की तरह एक मौन कलाकृति बन चला है.
इस तरह आम चुनाव का साल 2019 गहरी परछाइयां और कई चुनौतयां लेकर ही आ रहा है. लगता नहीं कि सरकार के पास उनसे निपटने का बढ़िया कैलकुलस या ऐसे सपनों का जखीरा बचा है, जिनको मतदाता अब भी भरोसेमंद मान लें. अगली सरकार किसकी बनती है, इसका दारोमदार उस अचीह्नी युवा पीढ़ी पर है, जिसके 25 फीसदी सदस्य पहली बार मतदान कर रहे होंगे. अभी उनके सवाल धुंधले हैं और वे कभी नौकरियां तो कभी दाखिले के लिए आरक्षण की सीमा बढ़ाने-घटाने से जुड़े नजर आते हैं.
लेखकों-कलाकारों के मन में भी यही सवाल हैं और उनके अध्यापकों, अभिभावकों के मन में भी कि हमारे बच्चे इस बंटे हुए प्रतिगामी सोचवाले माहौल में कितने सुरक्षित हैं, जहां शक्की भीड़ पीट-पीटकर किसी को भी मार देती है.
साल 2019 में जो भी सरकार आये, उसका सबसे पहला काम युवाओं गुस्से की ऊर्जा को रचनात्मकता की तरफ ले जाने का ही होना चाहिए. दरअसल, हमारे चाहे न चाहे नयी अर्थव्यवस्था, राज-समाज और मीडिया इन दिनों तकनीकी दक्षता और यांत्रिक बुद्धि पर आधारित बनते जा रहे हैं. यह तकनीकी उन्नति हमको कामकाज के लिए तरह-तरह की मेहनत बचानेवाले उपकरण देता है. नयी-नयी मनोरंजन विधाएं और मन को आराम देने को गोलियां देता है. पर इस मानवविहीन ज्ञान के बीच हम मानव जाति के काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ के पुतले किस तरह जियें?
राज्य और संस्था के अत्याचार पहले हम लोग सह लेते थे, क्योंकि उनका चेहरा और दंडविधान आचरण के नियम और गलतियां सब मानव ही बनाते थे और हमारे गुहार लगाने पर कुछ मानव ही आकर उनको दुरुस्त भी कर देते थे. लेकिन, आज समाज और राजकीय व्यवस्था डिजिटल ज्ञान और संप्रेषण पर टिकी है.
पार्टी मुख्यालयों के चुनावी वार रूम ही नहीं, बाजार से लेकर चिकित्सा विज्ञान तक में हर शोध और बोध हमारी स्वीकृति या जानकारी बिना लोकतंत्र या संविधानों की ऐसी-तैसी करते हुए हमारे जीवन का हर गोपनीय ब्योरा आधार या बैंक के कार्डों की मार्फत मिले डाटा के कच्चे माल की बतौर मोटे मुनाफे पर बेचा जा रहा है. ऐसे में 2019 की जन्मकुंडली लिखने के बारे में हम कितनी दूर तक सोचें?